बिहार की मूर्तिकला : एक विहंगम दृष्टि

बिहार, भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में अवस्थित एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। गंगा इस राज्य की एक पवित्र नदी है जो बिहार को कमोबेश दो भागों में बाँटती है- उत्तरी बिहार एवं दक्षिणी बिहार। प्राचीन काल में सम्पूर्ण बिहार तीन महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में बँटा हुआ था- अंग, मगध और विदेह। अंग और मगध गंगा के दक्षिणी भाग में थे तो विदेह गंगा के उत्तरी भाग में। उत्तर बिहार में विदेह के साथ वज्जि-महासंघ की जानकारी भी मिलती है। विदेह की राजधानी मिथिला थी। उस समय विदेह एक महत्त्वपूर्ण राज्य था जिसकी चर्चा विस्तार से प्राचीन भारतीय साहित्यों, विशेष रूप से बौद्ध ग्रंथों में मिलती है।


कालान्तर में मिथिला वज्जि महासंघ में शामिल हो गया और तत्पश्चात् वज्जि उत्तर में नेपाल की पहाड़ियों से दक्षिण में गंगा नदी तक और पश्चिम में सदानीरा से पूर्व में कोशी और महानन्दा नदियों के जंगलों तक फैल चुका था। यह सम्पूर्ण प्रक्षेत्र हर्षवर्धन के काल तक इतिहास की मुख्य धारा से जुड़ा रहा। प्राचीन भारत के पुरातात्त्विक साक्ष्य में हड़प्पा-सभ्यता और धार्मिक साहित्य स्रोत के रूप में रामायण और महाभारत से हमें मूर्तिकला-संबंधी जानकारियाँ मिलती हैं। पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में हड़प्पा और मोहंजोदड़ो से चूना-पत्थर, सेलखड़ी आदि से निर्मित मूर्तियों की जानकारी मिलती है।



वाल्मीकीयरामायण में राम द्वारा किए गए अश्वमेध-यज्ञ और उस निमित्त सीता जी की स्वर्ण-प्रतिमा बनवाकर यज्ञ पूर्ण करने का प्रसंग प्राप्त होता है। महाभारत में भीम की प्रतिमा का उल्लेख है। पुराणों में भी प्रतिमा- निर्माण के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं।


ऐतिहासिक युग के प्राचीन काल में प्राङ् मौर्य, मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्त आदि शासकों के काल में हमें क्रमिक रूप से मूर्तिकला के क्षेत्र में विस्तार और विकास दृष्टिगोचर होता है, लेकिन पूर्व-मध्यकाल तक आते-आते बिहार के कला-इतिहास में पाल-शासकों द्वारा विकसित कला को ही प्रमुखता से स्थान मिला। मौर्यकालीन अनेक पुरास्थलों की जानकारी इस इलाके से मिलती है लेकिन बिहार में जब कभी पुरातात्त्विक महत्त्व की वस्तुओं, धरोहरों और पाषाण-प्रतिमाओं की चर्चा होती है, तब हमारा ध्यान गया, नालन्दा, पटना आदि की ओर चला जाता हैलेकिन अब चम्पारण और दरभंगा-जैसे क्षेत्रों को भी मुख्य धारा में लाने की कोशिश होनी चाहिए।


उत्तरी बिहार पाषाण-प्रतिमाओं की प्राप्ति के संबंध में यह मान्यता बनी हुई थी कि इस क्षेत्र में पाषाण-प्रतिमा नहीं है और यहाँ से पाषाण-प्रतिमाओं के उदाहरण नहीं मिलते हैं। शायद यही कारण रहा है कि पाल-कला की निष्णात विदुषी सुसान हटिंगटन ने अपने पुस्तकों में उत्तरी बिहार की प्रतिमाओं के संबंध में स्पष्ट रूप से कोई चर्चा नहीं की है। वस्तुतः इस क्षेत्र में उपलब्ध पाषाण-प्रतिमाओं पर विजयकांत मिश्र ने प्रारम्भिक कार्य किया था, सत्यनारायण सत्यार्थी ने मिथिला की उपलब्ध प्रतिमाओं का अन्वेषण कर सूचीबद्ध किया। प्रफुल्ल कुमार सिंह 'मौन', सत्येंद्र कुमार झा, शिवकुमार मिश्र, सुनील कुमार मिश्र आदि कलाविद्, मिथिला की प्रतिमाओं पर महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। उत्तरी बिहार में दरभंगा प्रक्षेत्र की पाषाण-प्रतिमाओं पर इन पंक्तियों के लेखक ने शोध कार्य किया।


हाल के वर्षों में हुए कार्यों के बाद अब स्थिति में बदलाव आया है और उत्तरी बिहार में प्रतिमा नहीं होने से सम्बन्धित मिथक टूटने लगा है। 2017 में नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी, शिकागो में कला-इतिहास के प्राध्यापक प्रो. रॉब लिंगरौथ ने इन पंक्तियों के लेखक के साथ उत्तरी बिहार के चार जिलों- बेगूसराय, समस्तीपुर, दरभंगा और मधुबनी के कतिपय क्षेत्रों का भ्रमण किया और ‘रिपोर्ट ऑन अ ब्रीफ टूर ऑफ नॉर्थ बिहार' नामक एक लेख लिखा जो मिथिला भारती, पटना के भाग 4, 2017 में प्रकाशित हुआ।


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