होइहैं शिला सब चन्द्रमुखी

गोसाईंजी ने जब विन्ध्य के वासी उदासियों के साथ मधुर परिहास करते हुए लिखा था कि राम के चरणों के स्पर्श से समस्त शिलाएँ चन्द्रमुखी हो जाएँगी, यह जानकर इन तपस्वी जनों को मन-ही-मन बहुत आनन्द-लाभ हो रहा है, तब निश्चय ही उनके कलाग्राहक मन में खजुराहो की स्मृति बसी होगी, जहाँ कि ऐसा लगता हैकि विश्व के समस्त सौन्दर्य की गतिशीलता पाहन के बन्धन में छटपटाती हुई सँध गयी हो और जहाँ की शिलामयी चन्द्रमुखियों की भंगिमाओं को देखकर सहज ही में मांसल सौन्दर्य की मोहकता बिसरायी जा सकती है। मैं खजुराहो कई बार हो आया हूं, ऐसे लोगों के साथ, जिनका कला से या सौन्दर्य की रसानुभूति से '3' और '6' का सम्बन्ध रहता है, ऐसे लोगों के साथ भी जो कला के प्रत्येक उत्कर्ष में पार्थिव धरातल छोड़कर एकदम ऊपर उठ जाते हैं, ऐसे लोगों के साथ भी जो साहित्य के अधकचरे ज्ञान की बदौलत अपनी वासनाओं की प्रतिच्छवि हूँढ़ने की ऐसी जगहों में कोशिश किया करते हैं, और ऐसे लोगों के साथ भी जो मेरी तन्मयता में अधिक तन्मय हुए हैं और जिस कला के साथ वह तन्मयता है, उसमें कम।



पर मैं जब-जब गया हूँ, तब-तब मुझे यही लगा है कि शायद यह चीज़ पहली बार मैं इस दृष्टि से नहीं देख सका था या यह चीज़ यहाँ नहीं थी, आज यहाँ नयी आ गयी है। बराबर लगा है कि जैसे कोई गायक अपने स्वरों को नयी मीड़ दे रहा हो या कोई चितेरा अपने चित्र में नयी वर्णच्छाया भर रहा हो, या कोई महाकवि अपनी पंक्तियों में नयी व्यञ्जना दे रहा हो या कोई दार्शनिक अपनी चिन्तना में नयी कड़ी जोड़ रहा हो। नयेपन का यह सर्वांगीण बोध क्या ह्रासोन्मुख कला या तथाकथित अनैतिक समाज की कुण्ठाओं की अतृप्तियों की प्रतिकृति कही जानेवाली सामन्तकला या हेय दृष्टि से देखी जानेवाली मनुष्य की भोगलालसा में कभी फले-फुले, यह सम्भव नहीं है। सत्य से बढ़कर कोई नैतिक आचरण होता नहीं और जो उस सत्य को शिवरूप दे सके वह कला केवल इसलिए हेय हो जाय कि उसका कुछ विपरीत प्रभाव अपरिपक्व मस्तिष्कवाले या विकृत हृदयवाले पामर जनों पर पड़ता है, यह उचित नहीं। इसलिए जब मैंने अपनी पहली यात्रा में ही अज्ञेय जी को यह सुझाया कि खजुराहो के मन्दिरों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वांग-सुन्दर मन्दिर कन्दरिया का नाम इस परिसर को देखते हुए कन्दर्येश्वर होना चाहिए तो उन्हें भी बहुत रुचा और उन्होंने कहा था कि यदि काम शिव को पुनः अपने अनुकूल बनाने के लिए कोई साधन सोचता तो शायद यहाँ की कलासाधना से वह ओछा ही पड़ता। यही बात प्रकारान्तर से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किसी दूसरे प्रसंग में दुहरायी थी कि गतिशील सौन्दर्य को यदि कोई शिव कहीं टिका पाया है तो वह खजुराहो के इन कला-तीर्थों में, जहाँ पर शिव के भाग्य में लिखी हुई कला की रेखा की सफलता दिख जाती है।


खजुराहो रीवा से सड़क से लगभग सौ मील है। रीवा-नौगाँव सड़क पर पन्ना की मनोरम घाटी पार करने के बाद केन नदी का पुल पड़ता है। केन नदी बरसात में बहुत भयंकर हो जाती है और पुल जो कि रपटा मात्र है, जलमग्न हो जाता है, और महीनों में बड़े-बड़े विशाल भूरे पत्थर के ढोंकों के नीचे नन्हीं दुबकी-सी दिखाई पड़ती है और केवल जहाँ-तहाँ कुछ मरकतमय जल का प्रसार सघन हो जाता है। इस स्थान से खजुराहो पैदल रास्ते से केवल आठ-नौ मील है और खजुराहो के मन्दिरों के लिए पत्थर यहीं से ढोये गये थे, इसका प्रमाण जार्डिन म्यूज़िमय में उपलब्ध एक शिल्प से प्राप्त होता है। जनश्रुति के अनुसार, जिन चन्देल-नृपतियों की कीर्ति का वितान खजुराहो में है, उसके उद्भव की कहानी इस प्रकार है कि कर्णवती (केन) और चन्द्रमा के सम्मिलन से चन्द्रात्रेय (चन्देल) वंश की उत्पत्ति हुई। इस जनश्रुति का और कोई अर्थ हो न हो, पर इतनी ध्वनि इससे अवश्य निकाली जा सकती है कि खजुराहो की कला जहाँ अपने उपादान के लिए कर्णवती की और उन्मुख है, वहाँ कल्पना एक मोहक आह्लाद के लिए शिव के ललाटवासी चन्द्रमा की मुखापेक्षी। दूसरे शब्दों में, कर्णवती के युगों से सोये अरमानों का साकार स्वप्न है खजुराहो का कला-वितान।


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