झालावाड़ के दो अद्वितीय मूर्तिशिल्प

अर्धनारीश्वर प्रतिमा


स्त्री-पुरुष के युग्म स्वरूप ‘अर्धनारीश्वर' के रूप में प्रमुखतः भगवान् शिव की कल्पना की गयी। इस रूप में शिव की पूर्णता व विस्तारार्थ शक्ति को भी अनिवार्य माना गया, साथ ही दोनों में अन्तरावलम्बन बताया गया। कालान्तर में शिव-पार्वती (शक्ति) का समन्वित रूप ही ‘अर्धनारीश्वर' स्वरूप बना। ऐसे आशय की मूर्तियाँ नर-नारी, ब्रह्मभाव व आदि सृष्टि के द्वन्द्वात्मक मूल कारणों के संयोग की प्रतीक मानी गयीं। शिव-पार्वती की ऐसी अर्धनारीश्वर मूर्तियों का निर्माण कुषाण युग में आरम्भ हुआ जिसके प्रमाण मथुरा में मिले हैं। परन्तु गुप्तकाल में ऐसी मूर्तियों के निर्माण में गति आयीसाहित्यिक रूप में ऐसे संयोग का वर्णन चौथी शताब्दी से प्राप्त होने लगता है। कालिदास ने ‘रघुवंश' का आरम्भ ही 'शब्द' तथा 'अर्थ' के समान संयुक्त सम्पूर्ण जगत् के अधिष्ठित रूप पार्वतीपरमेश्वरौ के नामोल्लेख रूप में आदरपूर्वक किया है


वागर्थविव सम्पृक्तो वागर्थपतिपत्तयै।


जगत पितरौ वन्दै पार्वतीपरमेश्वरौ॥



कालान्तर में शिव-पार्वती का परस्पर इतना तादात्म्य हुआ कि दोनों की सम्मिलित (युग्म) मूर्ति ‘अर्धनारीश्वर' के रूप में समाज में चल पड़ी और इसी को आदिसर्गिक बीज तथा योनि का नैकट्य मानकर नर-नारी का मूल सूचक स्वीकार किया गया। अर्धनारीश्वर में स्त्री-पुरुष- दोनों (शिव-शक्ति) एक ही शरीर के भाग रूप में स्वीकार किये गये और उनमें यह भी अभिव्यक्त किया गया कि वे दोनों परस्पर पूरक हैं। भारतीय समाज में इसी कारण यह भी लोकभाव प्रसिद्ध रहा कि भारतीय देवों में नारी शक्ति को सर्वाधिक सम्मान शिव महादेव ने प्रदान किया जिन्होंने अपने अर्धाग में ही देवी अम्बा पार्वती को धारण किया और वे लोकसंस्कृति में ईश्वर से अर्धनारीश्वर कहलाये। इसी आशय में स्त्री ‘अर्धागनी' कहलाती है। उसे वाम भाग की स्वामिनी मानकर ‘वामांगी' कहा गया और मूर्ति में भी उसे वाम भाग में ही उकेरा गया। अतः अर्धनारीश्वर की ऐसी मूर्ति तदयुगीन शैव और शाक्तमत, दर्शन तथा संस्कृति के समन्वित भावों की महत्त्वपूर्ण प्रतीक बनी।।


झालावाड़ पुरातत्त्व संग्रहालय में संरक्षित तथा झालरापाटन की जातकनगरी चन्द्रावती से अवाप्त अर्धनारीश्वर की इस अद्वितीय मूर्ति में ऐसे ही युग्मस्वरूप के दर्शन होते है। संग्रहालय के संख्यांक 83/88 पर प्रदर्शित इस अनुपमेय मूर्ति में शिव को पूर्णतया स्त्री-पुरुष के लास्य भाव की मुद्रा में दर्शाया गया है। मूर्ति का वाम अर्ध-अंग स्त्री (पार्वती) व दक्षिण अंग पुरुष (शिव) देह को प्रदर्शित करता है। मूर्ति की चार भुजाओं में से पुरुष ओर की दो भुजाओं में पृष्ठ की ऊपर उठी भुजा में त्रिमुखी त्रिशूल धारित है। इसके पृष्ठ में बलदार सर्प दर्शित हैं। मुख्य भुजा नीचे की ओर नन्दीकार पुरुष के शीश पर वरदमुद्रा में रखी हुई दर्शाई गई है। भुजा में सुन्दर कड़ा है। यहाँ नन्दी को पुरुषाकृति में दर्शाया गया है। जिसका बायाँ हाथ स्वयं के शीश पर स्वर्णलंकुट के भार को स्पर्श किए हुए एवं दायाँ हाथ अपनी जंघा पर रखे व आगे झुके रूप में दर्शाया गया है। नन्दी को धोती धारित किए हुए दर्शाया गया है। यह पक्ष कालिदास द्वारा वर्णित भगवान् शिव के द्वार पर पुरुष रूप में स्वर्णलंकुट पर हाथ रखकर खड़े गणों को चुप रहने का संकेत करते हुए नन्दी का स्मरण कराता है।