जोह से प्राप्त प्रतिमाएँ

मानव ने जब से इस धरती पर कदम रखा है, तभी से कला का प्रादुर्भाव हुआ। अपनी सृजनशीलता के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है। प्राकृतिक वातावरण में रहते हुए प्राकृतिक तत्त्वों में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी को अमूर्त रूप में देखा तथा अपनी कल्पना से पाषाण एवं उनसे बने उपकरणों के माध्यम से इसे मूर्त रूप प्रदान किया। धीरे-धीरे उसकी कला उसके बौद्धिक विकास के साथ उन्नति की ओर अग्रसर होती गयी। 


प्राचीनतम भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व में मूर्ति-निर्माण की अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। सिंधु की उपत्यकाओं से प्राप्त मिट्टी से निर्मित कई प्रभावोत्पादक नारीप्रतिमाओं तथा पाषाणनिर्मित पुरुष-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। भारतीय मूर्तिकला का इतिहास चित्रकला से भी प्राचीन है। मानव ने पत्थरों को काटकर, धातुओं को ढालकर, ठप्पा लगाकर, मिट्टी ढालकर, पकाकर तथा काष्ठ को मढ़कर मूर्तियों को बनाया।



जब हम मूर्तिकला की बात करते हैं, तब राजस्थान प्रांत के भरतपुर-जिले का नाम प्रमुख रूप से सामने आता है। भरतपुर क्षेत्र में विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय देखा जाता है। प्राचीन अवशेषों में शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन आदि विविध संस्कृतियों का रूप देखने को मिलता है। इनमें सर्वप्रथम नोह से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों के ढक्कनों में बनी चिड़िया, वसुधारा, नारी-मुखाकृति, यक्ष आदि की मूर्तियाँ प्रारम्भिक मूर्तिकला का स्वरूप हैं जो मूर्तिकला के क्षेत्र में विशेष स्थान रखती हैं।


नोह, भरतपुर क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थल है। यहाँ से 1100 ई.पू. से लेकर गुप्तकाल तक की पुरासामग्री प्राप्त हुई। इस स्थल का उत्खनन राजस्थान के पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा 60 और 70 के दशक में कई चरणों में करवाया गया। इस उत्खनन ने इस क्षेत्र में प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यताओं को खोजकर विश्व-स्तर पर प्रकाशित किया। इस स्थल के उत्खनन से संस्कृति के सात स्तर प्राप्त हुए हैं। यहाँ सभ्यता एवं संस्कृति का विकास रूपारेल नदी के तट पर हुआ। गैरिक मृद्धाण्ड, उत्तरी काले पॉलिशवाले मृदभाण्ड तथा शृंग-काल के अवशेष। गैरिक मृद्भाण्डपरम्परा को ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों के प्रारम्भिक विकास के साथ जोड़ा जाता है। नोह से प्राप्त इस परम्परा के मृद्भाण्ड लाल और नारंगी रंग के हैं तथा उन पर कुछ रेखाओं का अंकन भी है। इनमें अधिकांशतः मनकों के आकार के हैं। तथा इनके साथ कुछ धातुखण्ड भी हैं। काले-लाल मृद्भाण्ड के अन्तर्गत अधिकतर कटोरियाँ एवं तश्तरियाँ मिली हैं जो अच्छी प्रकार पकी हुई एवं अत्यन्त सुंदरता से सज्जित हैं।


शृंग-कुषाण काल के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के मानव-मुख, पशु-पक्षियों की आकृतियाँ, स्वस्तिक का अंकन, काँच के टुकड़े, ताम्र-मुद्राएँ, चूड़ियों के टुकड़े, विभिन्न मुद्राओं में मातृदेवियाँ तथा लौह-धातु से निर्मित विभिन्न प्रकार के खण्ड शामिल हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ से लाल चित्तिदार पत्थर पर निर्मित बोधिसत्व मैत्रेय की प्रतिमा मिली है जो भारतीय कला के इतिहास में अद्वितीय है। यहाँ से प्राप्त विष्णु-प्रतिमाएँ गुप्तकालीन मूर्तिकला का विशिष्ट उदाहरण हैं। नोह से प्राप्त प्रमुख शिल्प-स्वरूपों का वर्णन निम्न प्रकार है:


यक्ष (प्रथम या द्वितीय शताब्दी ई.पू.)


नोह ग्राम के उत्खनन के परिणामस्वरूप यक्ष की उक्त प्रतिमा प्रकाश में आयी। बलुआ पत्थर से निर्मित इस प्रतिमा का आकार लगभग 8 फीट 8 इंच है। अलंकृत पट्टे से एक चपटा ग्रेवेयक गले से बँधा है जिसकी गाँठों के दोनों छोर कमर पर लटक रहे हैं। छाती पर फेंटा कसा है तथा कटि से नीचे धोती पहनी हुई है, जिसे मेखलाओं से इस प्रकार सुसज्जित किया गया है कि आकृति का स्थूल उदर स्पष्ट दिखाई देता है। कुण्डलों के अतिरिक्त भुजबंध एवं कटक भी धारण किए हुए है। प्रतिमा का केवल दाहिना हाथ ही बचा है जो कलाई के पास से टूटा है। अनुमानतः यह अभयमुद्रा में उठा हुआ होगा। उक्त प्रतिमा आज भी पूजान्तर्गत है जिसे ग्रामवासी जखेया या जख बाबा कहते हैं। प्रतिमा को शुंग या कुषाणकालीन माना जाता है।


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