कोटा क्षेत्र की अचर्चित दशावतार-पट्टिका

कोटा नगर के दाहिनी ओर पुराणप्रसिद्ध चम्बल नदी प्रवाहित होती है। चम्बल के इस क्षेत्र में बनी गहरी घाटियों से पुरामहत्त्व के अनेक शैलाश्रय भी मिले हैं। कोटा नगर के दाहिनी और चम्बल के किनारे ‘कान्हा कराई' नामक स्थल है, जहाँ से कुछ ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं जो अभी तक अचर्चित हैं। कोटा के कुंनाडी क्षेत्र में स्थित चम्बल की कराइयो में पाषाण-पट्टी पर विष्णु के दशावतारों का अंकन है। सम्पूर्ण हाड़ौती क्षेत्र में ऐसी लम्बी एक ही पट्टिका है। इसमें शेषशायी विष्णु के दशावतार- कच्छपावतार, नृसिंहावतार, कृष्णावतार के अतिरिक्त राम, सीता व लक्ष्मण भी उकेरे हैं। वर्तमान में पानी भरने के कारण मूर्तियों का काफी भाग नष्ट हो चुका है।



कराई के अन्दर चट्टानों के नीचे से चम्बल का जल सूखने पर एक स्थानीय व्यक्ति ने विगत दिनों मुझे सूचना दी कि कराइयों में देवताओं की मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। मैंने स्थलविशेष का सामुख्य अध्ययन करने के पश्चात् हाड़ौती क्षेत्र के इतिहासविदों से दशावतार-पट्टिका पर बनी वैष्णव-अवतार मूर्तियों के निर्माण के प्रयोजन आदि के बारे में जानकारी लेनी चाही तो मुझे यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि कोई भी विद्वान् न तो इस स्थल से अभी तक परिचित था और न ही कोई इस स्थल की पुरातात्त्विक जानकारी की पुष्टि कर सका। ऐसी स्थिति में मैंने स्वयं के सामुख्य अध्ययन के आधार पर कोटा की इस अज्ञात एवं अप्रकाशित दशावतार पट्टिका पर प्रथम दृष्टया जो अध्ययन हो सका, वह करने का एक लघु प्रयास किया है। कोटा संग्रहालय के प्रभारी अधिकारी के संज्ञान में ‘कान्हा कराई' स्थल नहीं होने की पुष्टि हुई है। विवेच्य स्थल के चट्टानी तल पर कुछ अलग से पाषाण लगाकर लगभग 15 फीट लम्बी और 3 फीट चौड़ी पाषाणपट्टिका पर विष्णु के दशावतारों का अंकन बायीं से दायीं और क्रमबद्ध रूप से जिस कला शिल्प के अनुरूप है, वह कला सम्भवत 16वीं- 17वीं शताब्दी की प्रतीत होती है। ऐसी शिल्पकला झालरापाटन की विधाता-विमाता मूर्तियों की कला से स्पष्टतया साम्य रखती है। यद्यपि इस पट्टिका पर उकेरी गई दशावतार प्रतिमाएँ जलप्लावन तथा कई अन्य कारणों से अपनी कलात्मकता खो बैठी हैं, तथापि जो शेष है वह हाड़ौती क्षेत्र की एकमात्र दशावतार-पट्टिका के रूप में पुरा-निधि के रूप में उपलब्ध है।


इस पट्टिका पर प्रथम मूर्ति हाथ जोड़े मानवाकार स्थानक गरुड़ की है जिसके पीछे लहरदार कवच एवं पंख है। इस मूर्ति में गरुड़ के शीश पर मुकुट और कान में कुण्डल हैं। उसका आगे का मुख एवं वक्षभाग भग्न है। संभवतः यह विष्णु व उनके वाहन गरुड़ को सम्मिलित रूप से दिखाने का प्रयास है। इसी के निकट एक भग्न हो चुकी शेषशायी विष्णु की मूर्ति है जिसमें लक्ष्मी का अधोभाग शेष है। वह बहुत ही हल्की-सी छायामात्र इस मूर्ति की बची है। इस पट्टिका पर तीसरी मूर्ति विष्णु के मत्स्यावतार की है, जिसमें विष्णु को चतुर्भुज दर्शाया गया है। वे अपने पृष्ठ के दोनों करों को ऊपर उठाए हुए है तथा इनमें गदा व पुष्प धारण किए हुए हैं। उनके शीश पर लम्बा मुकुट व कंधों से कटि तक लहराता उत्तरीय है। उनके दो मुख्य कर गोद में हैं। उनका कटि से नीचे का शेष भाग मछली के रूप में है।


इसी क्रम में एक मूर्ति भगवान् विष्णु के कच्छप रूप की है। यह मूर्ति भी मत्स्यावतार मूर्ति के समान है, अंतर मात्र इतना है कि इसके कट्रिप्रदेश के नीचे के भाग में कच्छप को दर्शाया गया है। कच्छप के शरीर पर कवच को बहुत ही सुंदर शिल्प के रूप में उकेरा गया है।


आगे और----