गीताप्रेस की गौरवगाथा

आस्तिकता, सात्त्विकता तथा गीतोक्त दैवीय सम्पदा आदि आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों के प्रसाद के लिए समर्पित करोड़ों भारतवासियों की श्रद्धा और आस्था का केन्द्र गोरखपुर-स्थित गीताप्रेस एक चिर- परिचित प्रतिष्ठित संस्था है। गोरखपुर उत्तरप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश की सीमा से परे सम्पूर्ण भारतवर्ष में ही नहीं दुनिया के अनेक क्षेत्रों में भारतवंशियों के बीच तथा अन्य लोगों के बीच भी जिन धार्मिक एवं आध्यात्मिक केन्द्रों के कारण जाना जाता है, उनमें गीताप्रेस और गोरखनाथ मन्दिर का उच्चतम स्थान है। गीताप्रेस का भारतीय मुद्रणालय की परम्परा में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह केवल पुस्तक छापने या उसका वितरण करनेवाली संस्था नहीं है। अपितु देश के नागरिकों विशेषकर हिंदू कहे जानेवाले लोगों के चरित्र और संस्कार का निर्माण करनेवाली सस्था है। यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकीयरामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा समस्त तुलसी-साहित्य और अन्य महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों की स्थापना करनेवाली पुस्तकों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में जन-जन तक पहुँचाने का एकमात्र श्रेय गीताप्रेस को जाता है। गीताप्रेस ने भारतीय जनमानस को उसकी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक विरासत से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध रखा, यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि भारतीय साहित्य के इन महान् ग्रन्थों का प्रकाशन अन्यत्र नहीं हुआ है, पर बहुत ही कम कीमत पर और प्रामाणिक पाठ के साथ सरलता से सर्वत्र उपलब्ध कराने का काम गीताप्रेस ने किया है। इसके पुस्तकों की प्रसार-संख्या भी अकल्पनीय है। अब तक बासठ करोड़ से अधिक पुस्तकें गीताप्रेस से छप चुकी हैं। इनमें सर्वाधिक संख्या विभिन्न संस्करणों के रूप में प्रकाशित होनेवाले श्रीरामचरितमानस की है। श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा स्थान है। विभिन्न विषयों की लगभग एक हजार आठ सौ पुस्तकें गीताप्रेस से छपती रही हैं। इनमें लगभग आठ सौ हिंदी तथा संस्कृत-भाषा की हैं, शेष अन्य भाषाओं की पुस्तकें हैं।



इस विश्वविख्यात संस्था की स्थापना का अपना एक रोचक इतिहास है। इस संस्था के आदि स्वप्नद्रष्टा सेठ जयदयाल गोयन्दका राजस्थान के चूरू नामक स्थान के रहनेवाले थे। वे मारवाड़ी वैश्य थे। मारवाड़ी वैश्य व्यवसाय में निपुणता तथा प्रामाणिकता के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। अपने व्यवसाय के लिए वे अपने देश के किसी भी कोने में प्रवास हेतु तत्पर रहते हैं। अतः सेठ जयदलाल गोयन्दका जन्मभूमि छोड़कर बाँकड़ा (पश्चिम बंगाल) चले गये और वहाँ अपना स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ किया। व्यापार में ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के लिए सेठजी प्रसिद्ध थे। वे वंचितों और पीड़ितों के प्रति सहानुभूतिशील थे और उनकी यथोचित सहायता भी किया करते थे। सेठ जी के भीतर आध्यात्मिकता का संस्कार बचपन से ही था, श्रीमद्भगवद्गीता में उनकी गहरी आस्था थी। वे इसका निरन्तर अध्ययन एवं मनन किया करते थे। गीता का स्वाध्याय करते ही उनका ध्यान गीता के अठारहवें अध्याय के दो (6869) श्लोकों पर गया, जिसमें भगवान् कृष्ण ने कहा है कि जो व्यक्ति मुझसे प्रेम करके इस रहस्ययुक्त गीताशास्त्र का भक्तों के बीच निर्वचन करेगा, वह मुझे प्राप्त होगा और उससे बढ़कर मेरा प्रिय करनेवाला तथा पृथिवीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय कोई दूसरा नहीं होगा।


 इस घटना ने उन्हें गीता के प्रचारप्रसार के लिए प्रेरित किया और उनका जीवन गीता के प्रचार में लग गया। सेठ जी जहाँ कहीं भी व्यापार से या अन्य कार्य जाते, कार्य से मुक्त होने पर मित्रों, परिचितों के बीच गीता पर चर्चा करते और विशेषकर गीतोक्त निष्काम कर्म का उपदेश देते थे। धीरे-धीरे सेठजी के लिए व्यापार गौण और गीताचर्चा प्रधान हो गया।


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