हिंदुस्तान में छापेखाने का आरम

यह बात बिलकुल सही है कि जैसे लेखन-कला के प्रचार से ज्ञान- प्राप्ति का मार्ग सुलभ हुआ है, वैसे ही छापने की कला प्रचार से यह मार्ग सहस्र गुना अधिक सुलभ और विस्तृत हो गया है। इसलिए छापेखाने का इतिहास जानना आवश्यक है। ह बात बिलकुल सही है कि जैसे लेखन-कला के प्रचार से ज्ञान- प्राप्ति का मार्ग सुलभ हुआ है, वैसे ही छापने की कला प्रचार से यह मार्ग सहस्र गुना अधिक सुलभ और विस्तृत हो गया है। इसलिए छापेखाने का इतिहास जानना आवश्यक है।


मुद्रणकला–छापाखाने-की शोध सबसे पहले चीन में हुई थी। वहाँ सन् 1900 में एक छपी हुई पुस्तक मिली थी, जिसमें छापने की ता. 11 मई सन् 868 थी। यह छपाई ब्लॉक-प्रिंटिंग में हुई थी। मगर कहा जाता है कि अलग-अलग टाइप बनाने और उनसे छापने की कला का आविष्कार पी. शेग ने सन् 1041 से 1049 के बीच किया था। मुद्रणकला–छापाखाने-की शोध सबसे पहले चीन में हुई थी। वहाँ सन् 1900 में एक छपी हुई पुस्तक मिली थी, जिसमें छापने की ता. 11 मई सन् 868 थी। यह छपाई ब्लॉक-प्रिंटिंग में हुई थी। मगर कहा जाता है कि अलग-अलग टाइप बनाने और उनसे छापने की कला का आविष्कार पी. शेग ने सन् 1041 से 1049 के बीच किया था।



यूरोप के छापेखाने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि छापने की कला की शोध और उसका विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ था। ईसवी सन् 1440 के पूर्व चित्रादि लकड़ी के ब्लॉक बनाकर छापे जाते थे। टाइप बनाकर उनसे छापने का कब से और कहाँ से आरम्भ हुआ, इस सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। जर्मनी, फ्रांस, हॉलैण्ड और इटली– इन देशो में से हरेक देश कहता है कि छपाई का आरम्भ हमारे यहाँ से हुआ था। मगर हमें इस वाद-विवाद में पड़ने की जरूरत नहीं है। यूरोप के छापेखाने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि छापने की कला की शोध और उसका विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ था। ईसवी सन् 1440 के पूर्व चित्रादि लकड़ी के ब्लॉक बनाकर छापे जाते थे। टाइप बनाकर उनसे छापने का कब से और कहाँ से आरम्भ हुआ, इस सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। जर्मनी, फ्रांस, हॉलैण्ड और इटली– इन देशो में से हरेक देश कहता है कि छपाई का आरम्भ हमारे यहाँ से हुआ था। मगर हमें इस वाद-विवाद में पड़ने की जरूरत नहीं है।


अधिकाश लोगों का मत है कि सुप्रसिद्ध जर्मन मुद्रक योहान्न गुटेनबर्ग (1398-1468) ने टाइप बनाकर छापने की कला का विकास किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि पन्द्रहवीं शती में जर्मनी में छपाई का श्रीगणेश हुआ। हिंदुस्तान में इस अधिकाश लोगों का मत है कि सुप्रसिद्ध जर्मन मुद्रक योहान्न गुटेनबर्ग (1398-1468) ने टाइप बनाकर छापने की कला का विकास किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि पन्द्रहवीं शती में जर्मनी में छपाई का श्रीगणेश हुआ। हिंदुस्तान में इस कला का प्रवेश सौ बरस बाद हुआ। यह बात जेसुइट लोगों के पत्र-व्यवहार से कला का प्रवेश सौ बरस बाद हुआ। यह बात जेसुइट लोगों के पत्र-व्यवहार से मालूम होती है। (Rerum aethiopicarum scriptores occidentales inediti a saeculo, Vol. X, pp. 55-61)। 29 मार्च, 1556 के दिन, जेसुइट मिशन की एक टुकड़ी। अबीसीनिया जाने के लिए पुर्तगाल के बेले नामक बन्दर से जहाज पर चढ़ी। इसके साथ ही मुद्रणकला का जानकार जुआन द बुस्तामाति (Juan Falconi de Bustamante : 15961638) अपने एक सहयोगी के साथ गोवा जानेवाले जहाज पर सवार हुआ। वह 6 सितम्बर, 1556 के दिन गोवा पहुँचा। वह अपने साथ छपाई के आवश्यक साधन लेकर आया था। इसलिए उसने गोवा पहुँचते ही 'सेंट पॉल' नामक कॉलेज में छापाखाना खड़ाकर छापने का काम शुरू कर दिया।


दिनांक 06 नवम्बर, 1556 को पाट्रियार्क का लिखा हुआ एक पत्र मिला है। उसमें इस छापेखाने में तत्त्वज्ञान का निर्णय (Conclusiones Philoso-phicas) नामक ग्रन्थ छपा था, इसका उल्लेख है। उसमें यह भी लिखा है कि सेट जेवियर कृत ‘ईसाई धर्म के सिद्धान्त' (Catecismo da Doutrina Christa) नामक ग्रन्थ छापने का विचार भी हो रहा था। यह ग्रन्थ सन् 1557 में छपा था और प्रश्नोत्तर के रूप में मुद्रित हुआ था। इस पुस्तक का उल्लेख फ्रांसिस डी सौज नाम के पादरी ने अपने पोर्तुगीज़-भाषा के ग्रन्थ 'ओरिऐति कोकि स्ता-आ जेसु क्रिस्तु (Oriente Conqulistado a Jesu Christo) o Con I, Div. I, para 23 में किया है। गोवा के प्रथम आर्च बिशप दो गास्पार द लियाव ने 'कोपेदियु स्पिरितुआल द व्हिद क्रिस्ता' (Compendio espiritual da vida crista) नाम की पुस्तक लिखी थी। वह पुस्तक सेट पॉल कॉलेज, गोवा के इसी छापेखाने में सन् 1561 में छपी थी।


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