झालावाड़-नटेशों का अद्वितीय पुस्तक प्रेम

अठारहवीं-उन्नीसवीं शती के भारतीय राजे-रजवाड़ों में शाही वैभव, काफी विलासिता के साथ अक्सर देखने-पढ़ने को मिल जाती है। परन्तु इस कालावधि में राजपुताने की एक ऐसी रियासत भी थी, जहाँ के नरेश ने अपनी समूचे वैभव को पूर्णतः त्यागकर अपने जीवन का सार पुस्तकप्रेम को ही अपनी कलाप्रियता के साथ समर्पित कर दिया था। 19वीं शती के प्रारम्भ में राजपुताने की सबसे छोटी रियासत झालावाड़ राज्य के नाम से ब्रिटिशयुगीन भारत में प्रसिद्ध थी। इस रियासत का क्षेत्रफल मात्र 812 वर्गमील था। यह एकमात्र झाला-राजपूत राजवंश की रियासत थी। यहाँ के तत्कलीन नरेश महाराजराणा भवानी सिंह (1899-1929) थे। झालावाड़-नरेश भवानीसिंह का काल इस राज्य का स्वर्णयुग था। वे एक प्रगतिशील सोच के लोकतान्त्रिक नरेश, कलापारखी, साहित्यकार व गुणग्राहक थे। उनके काल में झालावड़ में विश्व-रंगमंच की विस्मयकारी धरोहर ‘भवानी नाट्यशाला', पुरा संग्रहालय तथा विशाल पुस्तकालयों का निर्माण हुआ। भवानीसिंह झाला के दरबार में साहित्य के नवरत्न सुशोभित थे। महान् साहित्यकार पं. गिरिधर शर्मा 'नवरत्न' (1881-1961) और विश्वप्रसिद्ध नर्तक पं. उदयशंकर (1900-1977) उनकी ही देन हैं। इन झाला-नरेश ने पाँच बार यूरोप के विभिन्न देशों की यात्राएँ कीं तथा वहाँ अर्जित ज्ञान को लिपिबद्ध कर ‘ट्रेवेल पिकर्स' नाम से एक सचित्र ग्रन्थ का प्रकाशन कराकर अपने पुस्तकप्रेम का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया, जो तत्कालीन भारतीय राजे-रजवाड़ों में पाई जानेवाली सबसे दुर्लभ अभिवृत्ति मानी जा सकती है।



महाराजराणा भवानी सिंह अपने पुस्तकप्रेम के कारण पूरे देश में कदाचित् एक ऐसे नरेश थे जो 1912 ई. में इंग्लैण्ड के सम्राट् जॉर्ज पंचम द्वारा स्थापित ‘रॉयल जिओग्राफिकल सोसायटी' व ‘पोईट्री सोसायटी के फेलो बनाए गए थे। वह भारत की तत्कालीन साहित्यिक संस्थाओं के भी मानद सदस्य रहे, जिनमें कलकत्ते की 'द रॉयल एशियाटिक सोसायटी' एवं अजमेर की ‘राजपुताना आर्कियालॉजिकल म्यूजियम' प्रमुख थीं। उन्होंने झालावाड़ में अपने राजकुमार के नाम पर एक साहित्यिक संस्था ‘राजेन्द्र लिटरेरी इंस्टीट्यूट' की स्थापना की थी जिसमें अनेक देशी-विदेशी पुस्तकों की समीक्षात्मक चर्चा होती थी।


महाराजराणा भवानीसिंह का पुस्तक-प्रेम भी उदात्त था। उन्होंने अपने काल में झालावाड़ नगर में दो पुस्तकालयों की स्थापना की थी जो आज भी संचालित है। इनमें प्रथम पुस्तकालय भवानी परमानन्द पुस्तकालय' था, जिसकी स्थापना उन्होंने सन् 1911 में अपने प्रिय दीवान परमानन्द चौबे के नाम पर की थी। उस युग में इस पुस्तकालय में विविध विषयों तथा भाषाओं के इक्कीस हजार से अधिक ग्रन्थों का सुन्दर संग्रह था। इस संग्रह में भारतीय और विदेशी प्रकाशकों की कई पुस्तकें थीं। इन पुस्तकों की ज़िल्द लन्दन में तैयार करवाई गई थी। उस युग में इस पुस्तकालय की गणना राजपुताने के प्रसिद्ध पुस्तकालयों में की जाती थी। उस समय इसमें प्रत्येक पुस्तक की 2 प्रतियाँ मंगवाई जाती थीं, जिनमें से एक प्रति इस पुस्तकालय के लिए एवं एक प्रति स्वयं महाराजराणा के राजमहल में स्थित निजी पुस्तकालय के लिए होती थी। 1946 ई. में यह पुस्तकालय झालावाड़ के महाविद्यालय को सौंपा गया और आज भी यह पुस्तकालय सञ्चालित है तथा इसमें लगभग 72 हजार ग्रन्थ मौजूद हैं। इस पुस्तकालय में नेपोलियन से सम्बन्धित ऐसे मूल ग्रन्थों का संग्रह है जो पहली और अन्तिम बार फ्रांस में छपे थे। देश-विदेश के जिज्ञासु पाठकों और शोधार्थियों के लिए यह पुस्तकालय आज भी पठनीय और दर्शनीय है।  


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