क्यों है महत्त्वपूर्ण नारी सशक्तिकरण?

इक्कीसवीं शती के इस दौर में लगभग हर जगह चाहे वह गाँव हो, शहर हो - या कोई छोटा मोहल्ल- हर जगह महिला-सशक्तिकरण पर चर्चा हो रही है, लेकिन इसके वास्तविक मायने कितने लोग समझ पाते हैं, यह कहना बहुत कठिन है। हमारे भारतीय समाज में इसकी कितनी मान्यता मिल रही है, यह अनुसन्धान करना बेहद कठिन है। यद्यपि हमारे भारतीय समाज में महिलाओं की अवस्था में काफी सुधार हुआ है, तथापि जिस स्वस्थ सुधार की कल्पना की जाती है, वैसा सुधार नही हुआ है। आनेवाले समय में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए इस दिशा में अभी बहुत कुछकरने की आवश्यकता है।



अभी भी देश की आधी आबादी अपने अनेक अधिकारों से वंचित है। आज भी हमारे सामने पीड़ित महिलाओं के उदाहरणों में कमी नहीं है। समाचार-पत्र, समाचार चैनल, वेब-चैनल आदि यौन-हिंसा, दहेज- हत्या, भ्रूण-हत्या की घटनाओं से भरे पड़े मिलते हैं। इन आँकड़ों में दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। महिलाओं से होनेवाली हिंसा और शोषण की घटनाएँ खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं।


क्या है महिला सशक्तिकरण?


हम इस समाज में पुरुष-सशक्तिकरण की बजाए केवल महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में ही क्यों बात करते हैं? महिलाओं को क्यों सशक्तिकरण की आवश्यकता है और पुरुषों की क्यों नहीं है? दुनिया की कुल आबादी का लगभग 50% महिलाएँ हैं, फिर भी समाज के इस बड़े हिस्से को सशक्तिकरण की आवश्यकता क्यों है? महिलाएँ अल्पसंख्यक भी नहीं हैं कि उन्हें किसी प्रकार की विशेष सहायता की आवश्यकता हो। तथ्यों के आधार पर कहा जाए तो यह एक सिद्ध तर्क है कि महिलाएँ पुरुषों से हर कार्य में बेहतर हैं। तो यहाँ सवाल यह उठता है कि हम महिला सशक्तिकरण पर चर्चा क्यों कर रहे हैं? आज हर क्षेत्र में पुरुष के साथ ही महिलाएँ भी तमाम चुनौतियों से लड़ रही हैं, सामना कर रही हैं, कई क्षेत्रों में तो महिलाएँ पुरुषों से आगे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि समाज के कुछ पुरुष-प्रधान मानसिकतावाले तत्त्व यह मानने के लिए तैयार नही हैं कि महिलाएँ भी उनकी बराबरी करें, ऐसे लोग महिलाओं की खुले विचारवाली कार्यशैली को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। समाज में महिलाओं पर लिखे गए लेख और सिनेमा आसानी से स्वीकार नहीं किए जाते हैं, कहीं-न-कहीं उनका विरोध शुरू हो जाता है। क्या महिलाओं को अधिकार नहीं है कि वे स्वतंत्र होकर अपने विचारों को समाज के सामने रख सकें।


भारत में महिला सशक्तिकरण ।


प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक महिला की स्थिति सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से समान नहीं रही है। महिलाओं के हालातों में कई बार बदलाव हुए हैं। प्राचीन भारत में महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा प्राप्त था। वेदकाल में वे बहुत ही शिक्षित थीं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में गार्गी और मैत्रेयी-जैसी ऋषिकाओं के उदहारण हैं।


सभी प्रकार की भेदभावपूर्ण प्रथाएँ- बालविवाह, देवदासी-प्रथा, नगरवधु, सतीप्रथा आदि से शुरू हुई हैं। महिलाओं के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों को कम कर दिया गया और इससे वे परिवार के पुरुष सदस्यों पर पूरी तरह से निर्भर हो गई। शिक्षा के अधिकार, काम करने के अधिकार और खुद के लिए फैसला करने के अधिकार उनसे छीन लिए गए। मध्ययुग में मुस्लिम शासकों के आगमन के साथ महिलाओं की हालत और भी खराब हुई। ब्रिटिश काल के दौरान भी कुछ ऐसा ही था, लेकिन ब्रिटिश शासन अपने साथ पश्चिमी विचार भी देश में लेकर आया। हमारे देश में राजा राममोहन राय-जैसे कुछ प्रबुद्ध भारतीयों ने महिलाओं के खिलाफ प्रचलित भेदभाव-संबंधी प्रथाओं पर सवाल खड़ा किया। अपने निरंतर प्रयासों के माध्यम से ब्रिटिशों को सती–प्रथा को समाप्त करने के लिए मजबूर किया गया। इसी तरह ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानन्द, आचार्य विनोबा भावे आदि जैसे कई अन्य सामाजिक सुधारकों ने भारत में महिलाओं के उत्थान के लिए काम किया। उदाहरण के लिए 1856 के विधवा पुनर्विवाह अधिनियम विधवाओं की स्थितियों में सुधार ईश्वरचंद्र विद्यासागर के आंदोलन का परिणाम था।


आगे और-----