नवलकिशोर प्रिंटिंग प्रेस देश का सबसे पुराना प्रकाशन

कुछ एक सरकारी प्रकाशनों कोin छोड़कर आज प्रकाशन-जगत् में छोड़कर आज प्रकाशन-जगत् में लखनऊ का कोई वजूद नहीं रह लखनऊ का कोई वजूद नहीं रह गया है। हालातों को देखकर गया है। हालातों को देखकर भरोसा नहीं होता कि मुंशी नवलकिशोर । (1836-1895) सरीखे महापुरुष ने लखनऊ की भूमि को अपनी कर्मभूमि बनाकर ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन किया होगा, जिनसे दुनियाभर में लखनऊ का नाम रोशन हो गया था। मुंशी नवलकिशोर द्वारा लखनऊ को दी गई यह गरिमा आज भी मध्य एशिया में यथावत् कायम है। विभिन्न पुस्तकालयों की रैकों में आज भी मुंशी नवलकिशोर द्वारा प्रकाशित पुस्तकें सर्वोत्कृष्ट साहित्य के रूप में पाठकों के अंदर ज्ञान की ज्योति जला रही हैं।


नवलकिशोर प्रेस अपनी स्थापना 23.11.1858 से लेकर सन 1950 तक भारत में लगातार अग्रणी रहा। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘विज्ञानवार्ता', ‘विचित्र चित्रण', आदि पुस्तकें यहीं प्रकाशित हुईं। कालिदास के 'ऋतुसंहार' के उर्दू-अनुवाद ‘अकसीर सुखन' प्रकाशित होने पर प्रेमचन्द ने ‘माधुरी' में इसका 27 पृष्ठों का विज्ञापन दिया था।



पं. बृजनारायण चकबस्त व अब्दुल हलीम शरर की नोक-झोंक ‘मार्का चकबस्त शरर' काफी दिनों तक ‘अवध अखबार में छपती रही। इतना ही नहीं, रतननाथ सरशार के किसाने आजाद', 'सैर कोहसार', 'जामे सरशार’, ‘खुदाई फौजदार’-जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ यहीं छपीं। इसके अलावा सूफी फ़कीर हजरत मोइनुद्दीन चिस्ती, हजरत निजामुदीन की लिखी पुस्तकों के प्रकाशन का श्रीगणेश भी यहीं हुआ। हाजी वारिस अली शाह का जीवन-चरित्र पहली बार यहीं से छपा। उन पर जो पुस्तकें बाद में छपीं, इसी किताब की मदद से छपीं। उर्दू, फारसी, हिंदी, संस्कृत, अरबी में आपसी तकरीरी अनुवाद करनेवाले मुंशी जी पहले व्यक्ति थे। कानून में फतवा आलमगीरी, लब्धप्रतिष्ठ ग्रंथ पद्मावत, मेघदूत, गीतगोविन्द, श्रीमद्भभगवद्गीता भी सर्वप्रथम यहीं से प्रकाशित हुए। इस प्रेस ने 124 धर्मशास्त्रों का उर्दू में और रामायण गुरुमुखी में प्रकाशन किया। 


मैकेंजी वेल्स का समग्र इतिहास 1888 में हिंदी व गुरुमुखी में यहाँ से प्रकाशित हुआ। ‘तारीख नादिरुल असर' में मुंशी नवलकिशोर ने लखनऊ की कहानी खुद कह डाली। सन् 1886 में यहीं ‘चाणक्यनीतिशास्त्र' का उर्दू तर्जुमा ‘लालचन्द्रिका' छपा। अमेठी नरेश माधव  सिंह के मूल व अनुवाद ‘श्रृंगारबत्तीसी', ‘रागप्रकाश', 'मीरा स्वयंवर', 'श्री रघुनाथचरित’, ‘भक्तिरत्नाकर' आदि तमाम किताबों को प्रकाशित कर इस प्रेस ने हिंदू, सिख व मुसलमानों के मन में अपना अलग ही स्थान बना लिया था। ‘कुरआन पाक' को जिस आदर से यहाँ शाया किया जाता था, सभी मुसलमान भाई जानते थे।


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