प्रारम्भिक मुद्रणकाल में पाठाजुसन्धान

भारत में, उन्नीसवीं शती के प्रारम्भिक काल में मुद्रण-कार्य आरम्भ हुआ। यह हमारे इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। साहित्यिक प्रकाशनों एवं प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन-मुद्रण की दृष्टि से, प्रारम्भ में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं हुई। इसी शती के उत्तरार्ध में ईसाई धर्म-प्रचारकों ने अपनी प्रचार-पुस्तकों तथा हिंदी-गद्य के आरम्भकर्ताओं ने साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया। बालकृष्ण भट्ट का ‘हिंदी-प्रदीप', प्रतापनारायण मिश्र का ‘ब्राह्मण' तथा भारतेन्दु की ‘हरिश चन्द्र चन्द्रिका' एवं 'हरिश चन्द्र मैगजीन' आदि के माध्यम से हिंदी के समसामयिक साहित्य के साथ प्राचीन साहित्य की चर्चा भी आरम्भ हुई। लोगों का ध्यान अपने प्राचीन कवियों की रचनाओं के प्रकाशन की ओर गया। सबसे अधिक प्रकाशन 'रामचरितमानस' का हुआ, पर इसके प्रकाशन की प्रेरणा में धर्मभावना का अधिक हाथ था। इन प्रकाशनों के विकास-क्रम का सिंहावलोकन बड़ा ही रोचक है।



प्रारम्भ में पोथियों का मुद्रण लीथो छापाखाने में प्रारम्भ हुआ। लीथों में, हाथ से पत्थर की पट्टी पर अक्षर उत्कीर्ण किये जाते और उसी हस्तलिपि में मशीन से वाञ्छित संख्या में पन्ने छाप लिये जाते थे। इसी क्रम से पूरी-की-पूरी पुस्तक छपती थी। लीथो की छपी पोथियों में, प्रारम्भ में हस्तलेखों की ही भाँति अक्षर एक-दूसरे से मिलाकर लिखे जाते थे और छन्दों की पक्तियाँ अलग-अलग न लिखकर लगातार लिखी जाती थीं। बाद में, धीरे-धीरे मानस की पोथियों में चौपाई तो लगातार, पर दोहा या अन्य छन्द अलग पंक्ति में लिखे जाने लगे। आगे चलकर प्रत्येक शब्द को अलग-अलग लिखा जाने लगा। प्रारम्भ में, लीथो से छपी पोथियाँ प्रायः किसी रचना की एक प्रति के मुद्रित संस्करण के रूप में आयीं। ऐसी पोथियों में यदि मुद्रक- प्रकाशक ने यथावत् हस्तलेख की छपाई कर दी, तो ऐसी छपी पोथियों का महत्त्व भी हस्तलेख के समान ही उपयोगी रहा। ऐसी बहुत-सी पोथियों का परवर्ती पाठानुसन्धाताओं ने इसी रूप में उपयोग किया है।


इस समय कुछ प्राचीन मुद्रणालयों ने प्राचीन कवियों की रचनाओं के मुद्रण- प्रकाशन का श्लाघनीय कार्य किया। इनमें भारतजीवन प्रेस, काशी; चन्द्राप्रभा प्रेस, काशी; नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ; खड्गविलास प्रेस, पटना; बंगवासी प्रेस, कलकत्ता; वेकटेश्वर स्टीम प्रेस, बम्बई और वेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन मुद्रणालयों ने प्राचीन रचनाओं को जिस रूप में भी पाया, उसी रूप में छापकर उपस्थित किया। कहींकहीं भ्रष्ट पाठ के सुधार की चेष्टा भी की गयी। इन मुद्रकों का उद्देश्य निश्चय । ही व्यावसायिक था। दुर्लभ ग्रन्थों को छापकर बाज़ार में लाने से इन्हें लाभ अवश्य हुआ होगा, पर इससे कम इनका साहित्यिक योगदान नहीं है। लुप्त होती हुई रचनाओं को उजागर करने और उनके पाठ तथा प्रतिपाद्य की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका इनके द्वारा निबाही गयी।


इन प्रकाशकों का उद्देश्य किसी रचना का संशुद्ध पाठ या आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत करना नहीं था। यह वह युग था, जब प्राचीन ग्रन्थों का दर्शन ही दुर्लभ थाहस्तलेखों को पढ़ने या प्रतिलिपि के लिए प्राप्त करना तो बहुत टेढ़ा काम था, यहाँ तक कि उन्हें देख पाना भी कठिन था। सं. 1896 वि. में श्री मुकुन्दीलाल जानी के छापाखानाकलकत्ता की छपी ‘रामायण' (तुलसी-कृत ‘मानस') की भूमिका में इस मुद्रित ग्रन्थ की पाण्डुलिपि तैयार करने की कष्टकथा का उल्लेख है- '.....यह पोथी बहुत तल्लास करने से भरतपुर के राज्य में कायस्थ-कमल- कुल-प्रकाशक लाला सूरजमल माथुर कायस्थ ने अपने पाठ करने के निमित्त राजापुर परगने में जाय को श्री गोस्वामी जी के वंशज...... को अनेक रुपैये से साध्या और शरीर की सेवा कर को श्री गोस्वामी जी के हाथ की लिखी पोथी सो प्रति अक्षर सोध को पुस्तक अपना तैयार किया।' (शुम्भनारायण चौबे, मानस अनुशीलन, पृ. 5)।


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