भारतीय प्रस्तरकला और योग

भारतवर्ष रत  में योग का प्रचार वैदिक काल से ही देखा जाता है। पर इस लेख में यह विचार करना है कि भारतीय ललितकला में योग का प्रादुर्भाव किस समय से हुआ तथा शनैः-शनैः इसका प्रचार कैसे बढ़ता गया। भारतीय कला का धर्म से अधिक सम्बन्ध है। जैसे-जैसे धर्म की भावना बढ़तीघटती गयी, वैसे-वैसे कला पर भी उसका प्रभाव पड़ता गया। गुप्तकाल से पूर्व भागवत धर्म का उदय हुआ। इसके प्रभाव से बौद्धधर्म में महायान की उत्पत्ति हुई। महायान-धर्म ने बौद्ध कला में एक नया युग पैदा किया। महायान (ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी) के जन्म से पूर्व मौर्य, शुंग तथा आन्ध्र कलाओं में बुद्ध भगवान् के प्रतीक (बोधिवृक्ष, चूडा तथा धर्मचक्र आदि) की ही पूजा होती थी। साँची, भरहुत तथा अमरावती की वेष्टनी और तोरणों पर इन्हीं के पूजा-प्रकार तथा भगवान् बुद्ध की जन्मकथाओं (जातकों) का ही। दिग्दर्शन देखने में आता है। महायान के प्रचार से उत्तर-पश्चिमी भारत में एक नवीन कला का जन्म हुआ, जिसे 'गान्धार' का नाम दिया जाता है। ईसा की पहली शती से गान्धार कला में बुद्ध मूर्तियाँ बनने लगीं, जो उन्हें महापुरुष और योगी समझकर तैयार की जाती थीं। गुप्त-काल में ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के कारण हिंद मर्तियाँ बनने लगीं। 



भारत में सबसे प्रथम बुद्ध भगवान् की मूर्ति गान्धार कला से प्राप्त होती है। अतएव प्रथम शताब्दी के पहले भारतीय कला में योग के प्रचार के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। बुद्ध सर्वोत्कृष्ट योगी थे, अतः उनकी मूर्तियाँ योगासनों तथा मुद्राओं से युक्त मिलती है। बौद्धकला से हिन्दूप्रस्तरकलापर्यन्त योग का प्रचार बराबर मिलता है। प्राचीन समय में मूर्तिकला धर्मप्रधान होने से देवताओं की ही प्रतिमाएँ यौगिक आसनों तथा मुद्राओं से युक्त मिलती हैं। योगी स्वयं सिद्ध महात्मा हुआ करते थे, अतएव मूर्तिपूजा की उन्हें विशेष आवश्यकता न थी


शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिनः।


अज्ञानां भावनार्थाय प्रतिमा परिकल्पिता।।


-जाबालोपनिषद्


अर्थात्, योगी शिव को अपने अन्दर देखते हैं, प्रतिमाओं में नहीं। प्रतिमा तो अज्ञलोगों के भावना करने के लिये निर्माण की गई है।


यही कारण है कि योगियों की विभिन्न भावनाओं से युक्त प्रतिमाएँ प्राचीन काल में नहीं बनती थीं। देवताओं की मूर्तियाँ उन भावों के साथ मिलती हैं। इस लेख में संक्षेप-से योगसम्बन्धी (1) आसन (2) मुद्रा तथा (3) चक्र आदि का वर्णन किया जायगा तथा बौद्ध तथा हिंदू-प्रतिमाओं में इनके रूपों का समन्वय करके पाठकों के सम्मुख रखने का प्रयत्न किया जायगा।


योगियों को समाधिस्थ तथा एकाग्रचित्त होने के लिये यह आवश्यक होता था कि वे समयानुकूल आसन मारकर बैठेमुख्यतः योगशास्त्र में पद्मासन, वीरासनभद्रासन, पर्यंकासन, आदि तेरह आसनों का वर्णन मिलता है। परन्तु प्रस्तर कला सब आसनों का प्रयोग नहीं किया जाता था। कला में सबसे अधिक पद्मासन प्रयोग मिलता है। इसके अतिरिक्त पर्यंकासन, वीरासन तथा ललितासन अवस्था में भी मूर्तियाँ मिलती हैंसमयान्तर में ‘आसन' शब्द का प्रयोग साधारण पीठ के अर्थ में किया जाने लगासुप्रभेदागम में विभिन्न आकार के पीठों वर्णन है। तदनुसार अनन्तासन (त्रिभुजाकार), सिंहासन (चुतुर्भुज)विमलासन (सप्तभुज), योगासन (अष्टभुज) तथा पद्मासन (वृत्त) विभिन्न आकार के होते थे (देखिये- गोपीनाथ राव, एलिमेंट्स ऑफ हिंदू आइकॉनोग्राफीपृ. 19-20)। यौगिक आसनों के सिद्धान्त को कहीं-कहीं समूल नष्ट कर दिया गया है, जिसका कारण शिल्पकारों की अनभिज्ञता ही है। दक्षिण भारत के एलोरा नामक स्थान में नवीं शताब्दी की कुछ मूर्तियाँ कमल, मकर तथा कूर्म पर खड़ी मिली हैं। इन वाहनों को पद्मासनमकरासन तथा कूर्मासन कहा गया (वही, फ्लेट 6)। अस्तु । यथार्थ आसनोंमुद्राओं और चक्रों को अब देखें।


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