यानी उन्होंने अपने में ब्रह्मचर्य को रोककर उनको सन्तुष्ट किया।' श्रीकृष्णचन्द्र जी में काम नहीं था। वे कैसे थे, यह संसार जानता है। भगवान् ने स्वयं ही गीता (2.70) में कहा है कि वे कौन थे-
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
जिस प्रकार नदियाँ स्थिर, गम्भीर, पूर्ण और विशाल समुद्र मेंप्रवेश करके अपने को समुद्र में मिला देती हैं, उनकी पृथक् स्थिति नहीं रहती, उसी प्रकार जिस महान् पुरुष के उदार चित्तरूपी महान् समुद्र में समस्त कामनाएँ आकर लय हो जायँ, वही शान्ति को प्राप्त करता है, कामनापरायण जीव को शान्ति नहीं मिलती। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सामान्य कामनापरायण जीव के समान स्त्रियों को देखकर भाग नहीं जाया करते थे। किसी दूसरे में काम को देखकर दुर्बल की तरह भाग जानेवाला मनुष्य पूर्ण कदापि नहीं बन सकता; क्योंकि श्रुति में लिखा है- नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। दुर्बल मनुष्य आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता। श्रीकृष्ण का हृदय इस प्रकार तेजस्वी और पूर्ण था कि उस पर अपनी कामना की तो बात ही क्या, किसी अन्य व्यक्ति की भी कामना उनपर प्रभाव विस्तार नहीं कर सकती थी। उनके सामने आते ही भक्तजनों की कामनाएँ समुद्र में नदी मिलने की भाँति लुप्त हो जाती थीं और उन्हें मुक्ति का प्रसाद मिल जाता था।
। रासलीला का वर्णन सुनकर जब महाराजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा कि यह कैसी बात है कि धर्म के स्थापन के लिये अवतीर्ण हुए भगवान् ने दूसरों की स्त्रियों के साथ इस प्रकार बर्ताव किया। तब शुकदेवजी ने परीक्षित् को श्रीकृष्णचन्द्र जी का यथार्थ रूप समझाकर उनकी समस्त शंकाओं का समाधान कर दिया और मन्दमति कलियुग के जीवों के लिये भी अपूर्व धर्म का उपदेश किया। यथा
धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्।
तेजीयसां न दोषाय वह्नः सर्वभुजो यथा।।
नैतत्समाचरेज्जातु मनसाऽपि ह्यनीश्वरः।
विनश्यत्याऽऽचरन्मौढ्याद्यथा रुद्रोऽब्धिजं विषम् ।। कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते। विपर्ययेण वाऽनर्थों निरहङ्कारिणां प्रभो। किमुताऽखिलसत्त्वानां तिर्यह्मर्त्यदिवौकसाम्। ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाऽकुशलान्वयः।। यत्पादपङ्कजपरागनिषेवतृप्ता योगप्रभावविधुताऽखिलकर्मबन्धाः ।। स्वैरञ्चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमनास्तस्येच्छयात्तवपुषः कुत एव बन्धः।। गोपीनां तत्पतीनाञ्च सर्वेषामेव देहिनाम्। योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीड़नेनेह देहभाक्।। अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमास्थितः। | भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ।।