क्या है हठयोग

भारतीय दर्शन में योग की अपनी महत्ता है। मोक्ष को प्राप्त करने महत्ता है। मोक्ष को प्राप्त करने की अनेक साधन-पद्धतियों में की अनेक साधन-पद्धतियों में योग का अपना विशिष्ट स्वरूप है। समस्त भारतीय वाङ्मय में योग का वर्णन हुआ है। और ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग के रूप योग का समष्टि स्वरूप गीता में प्रकट हुआ है। ‘योग’ शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘युज' धातु से निष्पन्न है, जिसका शब्दार्थ मिलना, संयोग तादात्म्य इत्यादि माना गया है। कठोपनिषद् (2.3.11) में कहा गया है- तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रयधारणम् अर्थात् जिसमें इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती हैं, योग कहलाता है। योगसूत्र में योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः चित्त की वक्ष्यमाण प्रमाणदि वृत्तियों का जो निरोधक (रुक जाना) है, वह योग कहा जाता है। योगवैशारदीकार वाचस्पति मिश्रानुसार क्षिणोति च क्लेशान् योगः अर्थात् जो निरोध, क्लेश, आदि नाश का हेतु हो, वह योग कहलाता है। योगवार्तिककार विज्ञानभिक्षु के अनुसार तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् योगः अर्थात् जो निरोध द्रष्टा पुरुष के स्वरूपावस्थिति का हेतु हो, वह योग कहलाता है। बौद्ध दर्शन में योग से आशय यह है कि तत्राप्राप्तस्मार्थस्य प्राप्तये पर्यनुयोगो योगः (सर्वदर्शन संग्रह, पृ. 66) अर्थात् अप्राप्त ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना योग है।



योग-साधना के उद्भव के सन्दर्भ में विद्वानों में मतैक्य का अभाव प्रतीत होता है; क्योंकि भारतीय अध्यात्म-परम्परा में योगविद्या का समन्वय अनादिकालिक दृष्टिगोचर होता है। नाथ सम्प्रदाय और बाद के यौगिक सम्प्रदायों ने आदिदेव को अपना आराध्य स्वीकारकर इस योग-परम्परा को अनादिकाल से जोड़ा है। हठयोगप्रदीपिका के वर्णनानुसार श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनापदिष्टा हठयोगविद्या (हठयोग प्रदीपिका, प्रथम उपदेश, 1), इसी प्रकार, नाथ सम्प्रदायवालों का विश्वास भी है। आदिनाथ जो स्वयं शिव हैं (जहाँ भारतीय दर्शन परम्परा में सांख्यदर्शन को सबसे प्राचीन दर्शन के रूप में स्वीकारा गया है, वहीं योग (पातञ्जल) की प्राचीनता भी स्वयंसिद्ध है)। सगुण आत्मज्ञान के आविर्भूत होने पर उसके साथ योग भी अवश्य आविष्कृत हुआ था। कारण यह है कि श्रवण, मनन तथा आविष्कार होने से योग का भी उसके अनुरूप संस्कार हुआ था। परमर्षि कपिल से जिस प्रकार निर्गुण आत्मा का ज्ञान प्रवर्तित हुआ, उसी तरह निर्गुण पुरुष को प्राप्त करनेवाला योग भी प्रवर्तित हुआ। उदर एवं पृष्ठ जैसे अन्योन्याश्रित हैं, सांख्य और योग भी वैसे ही हैं।


हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः (योत्रियाज्ञवल्क्य - 12.5)- इन वाक्यों से जान पड़ता है कि योग का आदिवक्ता हिरण्यगर्भदेव को माना गया है। हिरण्यगर्भदेव ने किसी स्वाध्यायशील ऋषि में योगविद्या को प्रकाशित किया था, उसी से संसार में योगविद्या का प्रचार-प्रसार हुआ, अथवा 'हिरण्यगर्भ'- यह शब्द कपिल मुनि के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार विद्वासहायभवन्त च आदित्यस्थं समाहितम। कपिलं प्राहुराचार्याः सांख्यनिश्रित-निश्रच्यः। हिरण्यगर्भो भगवानेष छन्दसि सुष्टुतः। (शान्तिपर्व, 339.69-70)- इन वाक्यों से स्पष्ट जान पड़ता है कि कपिल ऋषि ही प्रजापति कहलाते थे तथा ‘हिरण्यगर्भ' नाम से उनकी स्तुति की जाती थी। इसी प्रकार योग सम्प्रदाय के प्राचीनतम ग्रन्थ श्वेताश्वतरोपनिषद् (5.2) में भी वर्णन आया कि ऋषि प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति। यहाँ दूसरे मत (योग) के अनुसार उन्होंने परमात्मा ‘या’ ज्ञान प्राप्त किया था। योगदर्शन के प्रसिद्ध टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने लिखा है कि पतञ्जलि ने हिरण्यगर्भ द्वारा उपदिष्ट शास्त्र का ही पुनः प्रतिपादन किया था। (परमतत्त्ववैशारदी, 1.1.36)।  


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