प्राणायाम-विमर्श

इस अनन्त ब्रह्माण्ड में चेतना-समुद्र की भाँति प्राण-तत्त्व ही उत्तुंग लहरें लेता रहता है। ब्रह्म ही चेतना की ऊर्जा है, अर्थात् वैश्विक चेतना-शक्ति ही प्राण है। प्राण केवल श्वास ही नहीं, प्रत्युत् यह वह तत्त्व है, जिसके द्वारा जीवित देह में श्वास-प्रश्वास की क्रियाएँ अनवरत चलती रहती हैं।



प्राण ही ब्रह्म है। वही व्यापक है, वही उज्जीवक है, वही प्रेरक है। प्राण ही सूर्य, चन्द्रमा प्रभृति विविध ग्रह-नक्षत्रादि है। सृष्टि के समुद्भवकाल में पञ्चमहाभूतों, यथा- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर तथा जड़- जंगमादि सभी पदार्थों की उत्पत्ति-उपादान कारण आकाश से ही प्राण-शक्ति के माध्यम से होती है। ये सभी इसी के अवलम्बन पर जीवित रहते हैं, किन्तु प्रलयकाल में इसी का आश्रय जब उन्हें नहीं मिल पाता, तब वे कार्य रूप से विनष्ट होकर अपने उसी कारणरूप आकाश में विलीन हो जाते हैं। वही प्राण है, जिसमें ये सभी भूत विलीन होते हैं और उसी प्राण के बल पर साँस लेते हैं। इसलिए वही प्राण ‘सर्वायुष' कहा जाता है। शरीर के आन्तरिक लोक में स्थित अधिष्ठाता के रूप में वही प्राण 'पुरुष' की संज्ञा से अभिहित होता है। शरीर में प्राण की विद्यमानता ही जीवन है।


ऋग्वेद के वायुसूक्त में कहा गया है- वायो त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मसि, अर्थात् हे प्राण! आप ब्रह्म हैं। प्राण जगत् के कारण है, इसलिए वह ब्रह्म है। प्राण के बल पर ऋषियों ने योग की उच्चतम भूमिका-समाधि-अवस्था में सत्य-दर्शन पाकर वैदिक मन्त्रों की रचना की है। इसलिए उन्हें मन्त्रद्रष्टा कहा गया है, न कि कर्ता अथवा स्रष्ट। शरीर नहीं, बल्कि प्राण के आधार पर ऋषित्व प्राप्त होने के कारण विभिन्न ऋषियों के नाम से उसका ही उल्लेख हुआ है। कतिपय उदाहरण के रूप में लें, जैसे- इन्द्रिय-निग्रह के परिणामस्वरूप सत्य-ज्ञान को ‘गृत्स' तथा मन्मथ को ‘मद कहते हैं। प्राण-शक्ति के द्वारा ये दोनों क्रियाएँ पूरी होती हैं। इसलिए उस ऋषि को ‘गृत्समद' कहते हैं। अं त्रायते इति अत्रिः आशय यह है कि जो प्राण की रक्षा करे, उस ऋषि को अत्रि कहते हैं। विश्वं मित्रं यस्य असौ विश्वमित्रम् अर्थात् प्राण के आश्रय- ग्रहण से सम्पूर्ण विश्व ही जिनका मित्र है, इस हेतु उन्हें विश्वमित्र कहा गया। इसी रूप में प्राण के वासिष्ठादिक अनेक अभिधान ऋषि- बोधक हैं। 


शरीर स्वस्थ रखने से मन प्रसन्न होता है। शरीर वह रथ है, जिस पर जीवन को यात्रा करनी पड़ती है। यह शरीर एक स्थान पर न टिकनेवाला देवस्थान है, जिसमें प्राणरूपी ईश्वर अपनी विभूतियों के साथ विराजमान हैं। मन की निष्कलुषता और बुद्धि की शुद्धता का साधन शरीर से प्रारम्भ तो होता है, किन्तु यह साधनमात्र है। इस साधनारूपी शरीर को स्वस्थता तथा पवित्रता धारण करने से योग की शुरूआत होती है। तामसी वृत्ति से शरीर में रोग और आलस्य घर कर लेता है और दरिद्रता आ जाती है। सात्त्विक वृत्ति तथा आसनों की सिद्धि से प्राणी स्वस्थ रहता है। सहज स्वास्थ्य के लिए बद्धपद्मासन आवश्यक है।


शरीरस्थ प्राणवायु से सभी प्राणी अनुप्राणित हैं। इसी प्राण-शक्ति का एक अत्युत्तम विज्ञान है और योग-साधना से इस विज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभूत किया जा सकता है। जो सुप्त प्राण जाग्रत् कर लेता है, उसी साधक के चतुर्दिक् प्रवाहित ऊर्जा का स्रोत दृग्गत होता है।


मानव-शरीर में वृत्ति के कार्य-भेद से भिन्न भिन्न नामों से इस प्राणवायु को विभक्त किया गया है


प्राणोऽपानः समानश्चोदान व्यानौ च वायवः।।


नागः कूर्मोऽथ करो देवदत्तो धनञ्जयः॥


-गोरक्षसंहिता


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