यत्र योगश्वर कृष्णो...

रासलीला तथा अन्यान्य प्रकरणों में श्रीकृष्ण नाम के साथ महर्षि वेदव्यास के द्वारा ‘योगश्वर' शब्द का प्रयोग होते हुए देखकर साधारण पाठकों के हृदय में सन्देह उत्पन्न होता है कि इस प्रकार के पुरुष योगेश्वर कैसे हो सकते हैं। विदेशी लोगों ने तो भ्रमवश श्रीकृष्ण भगवान् को ‘Incarnation of Lust अर्थात् कामकलाविस्तार का ही अवतार कह दिया है। हमारे देश के भी कुछ अज्ञ, दुर्बलचेता व्यक्ति इस झगड़े से पिण्ड छुड़ाने के लिये झट से यह फैसला कर देते हैं कि महाभारत और भागवत के कृष्ण भिन्न-भिन्न थे या भागवत के श्रीकृष्ण कोई व्यक्ति थे ही नहीं, यह केवल बोपदेव द्वारा रचित काल्पनिक चित्रमात्र है। अतः श्रीकृष्ण भगवान् की योगेश्वर-सत्ता को प्रमाणित करने के लिये इन दोनों शंकाओं का समाधान करना अत्यावश्यक है।



महाभारत के द्रोणपर्व में सञ्जय के प्रति धृतराष्ट्र की जो उक्ति है, उसे पढ़ने पर कोई भी यह नहीं कह सकता कि महाभारत और भागवत के श्रीकृष्ण अलग-अलग हैं, यह उक्ति निम्नलिखित है


शृणु दिव्यानि कर्माणि वासुदेवस्य सञ्जय।।


कृतवान् यानि गोविन्दो यथा नान्यः पुमान् क्वचित् ।।


गोकुले वर्द्धमानेन बालेनैव महात्मना। विख्यापितं बलं बाह्वोस्त्रिषु लोकषु सञ्जय।।


उच्चैःश्रवस्तुलयबलं वायुवेगसमं जवे। जघान हयराजं तं यमुनावनवासिनम् ।।


प्रलम्बं नरकं जम्भं पीठञ्चापि महाऽसुरम्। मुरञ्चान्तकसंकाशमवधीत् पुष्करेक्षणः।।


तथा कंसो महातेजा जरासन्धेन पालितः। विक्रमेणैव कृष्णेन सगणः पातितो रणे।।


चेदिराजं च विक्रान्तं राजसेनापतिं बली। अर्ये विवदमानं च जघान पशुवत् तदा।।


यच्च तन्महदाश्चर्थ्य सभायां मम सञ्जय। कृतवान् पुण्डरीकाक्षः कस्तदन्य इहार्हति ।।


यमाहुः सर्वपितरं वासुदेवं द्विजातयः। अपि वा ह्येष पाण्डूनां योत्स्यतेऽर्थाय सञ्जय।।


ततः सर्वान्नरव्याघ्रो हत्वा नरपतीन् रणे। कौरवांश्च महाबाहुः कुन्त्यै दद्यात् स मेदिनीम्।।


यस्य यन्ता हृषीकेशो योद्धा यस्य धनञ्जयः। रथस्य तस्य कः संख्ये प्रत्यनीको भवेद्रथः।।


मोहाद् दुर्योधनः कृष्णं यो न वेत्तीह केशवम्। मोहितो दैवयोगेन मृत्युपाशपुरस्कृतः॥


अर्थात्, भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण के दिव्य कर्मों को सुनो, जिनके समान कर्म कोई नहीं कर सकता। जिस समय बाल्यावस्था में श्रीकृष्ण गोकुल में थे, उसी समय इनकी अलौकिक शक्ति तीनों लोकों में प्रकट हो गई थी। इन्होंने यमुनावनवासी अति वेगवान् तथा बलवान् हयासुर का मारा था। प्रलम्ब, नरक, जम्भ, पीठ, मुर आदि असुरों का इन्होंने ही संहार किया था। जरासन्ध द्वारा सुरक्षित महाबली कंसराज को सारे पायकों सहित इन्हीं ने मारा था और युधिष्ठिर के यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल का पशु की तरह वध इन्हीं ने किया था। मेरी सभा में ही इन्होंने जो आश्चर्यजनक कार्य किया था, वह दूसरा कौन कर सकता है? जिनको द्विजगण परमपिता परमात्मा कहते हैं, अब वे पाण्डवपक्ष में होकर युद्ध करेंगे और कौरवों को तथा उनके पक्षवाले राजाओं को मारकर पाण्डवों को राज्य दिलावेंगे। जहाँ पर भगवान् श्रीकृष्ण सारथी और महावीर अर्जुन योद्धा हैं, वहाँ कौन उनके सामने युद्ध कर सकता है? दैवविमूढ़ दुर्योधन श्रीकृष्ण भगवान् के स्वरूप को नहीं जान सका, अतः उसका नाश सन्निकट है।


इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वृन्दावन की लीला तथा महाभारत की लीला करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण दो नहीं, एक ही थे। अब इस प्रकार लीला करने की आवश्यकता क्या थी? यह बात पूर्णावतार के स्वरूप पर विचार करने से विदित हो जाती है। श्रीभगवान् सत्, चित्, आनन्द के स्वरूप थे, अतः उनके पूर्णावतार में सत्, चित् तथा आनन्द- तीनों की लीलाओं का पूर्णरूप से प्रकट होना सर्वथा स्वाभाविक एवं अवश्यम्भावी था। सतु के साथ कर्म का, चित् के साथ ज्ञान का और आनन्द के साथ भक्ति का सम्बन्ध है। इसी कारण इनकी लीला में कर्मयोग का उत्तम आदर्श प्रकट हुआ था, ज्ञानयोग की प्रत्यक्ष मूर्ति गीतोपदेश के रूप में प्रकट हुई थी और भक्ति के वीर, करुण, हास्य आदि सप्त गौण रसों तथा दास्य, सख्य, कान्त, तन्मय, वात्सल्य आदि सप्त मुख्य रसों के अनेक स्त्री-पुरुष भक्तों ने जन्म लेकर रासलीला आदि के द्वारा उस भक्ति-भावमयी लीला को पूर्ण किया था, जैसा कि भागवत में आया है


वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः। जनिष्यते तत्प्रियार्थ सम्भवन्तु सुरस्त्रियः ।।


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