योग-मनोविज्ञान और अंतर्गवाक्षों को खोलती योग-साधना

योग शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद में ऋतस्य योगे (10.30.19), योगे योगे तवस्तरम् (1.30.7), वाजसनेयीसंहिता में योगक्षेमो न कल्पतम् (22.22), अथर्ववेदसंहिता में योग प्रपद्ये क्षेमं च (19.8.2) के रूप में प्रयुक्त हुआ है। ऋक् में इसका अर्थ जहाँ शकट, संग्राम, अज्ञानता के परित्याग को लेकर है, वहीं वाजसनेयी व अथर्ववेद में योग का अभिप्राय अलभ्य वस्तु का लाभ है। इस शब्द का मनोवैज्ञानिक धरातल पर आध्यात्मिक साधना हेतु विवेचन महर्षि पतञ्जलि ने किया। ऐसा शायद पहली बार हुआ, जब किसी सांख्यदर्शन-प्रभावित ऋषि ने ईश्वर को भी एक तत्त्व माना और ऐसा मानने के बाद भी आस्था-विश्वास जैसी प्रथाओं से खूब परहेज़ किया। वह योगसूत्र ही है, जिसने यह बताया कि कोई भी साधना भले ही मानसिक व शारीरिक स्तर पर की जा रही है, उसका प्रभाव वातावरण पर भी पड़ता है- अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्यागः। अहिंसा में भली-भाँति प्रतिष्ठित होने पर साधक के सम्मुख सब प्राणी अपना स्वाभाविक वैरभाव त्याग देते हैं। योगसूत्र का योगी रहस्यमय, गुह्य, मर्मपूर्ण किसी पहेली की तरह रह ही नहीं सकता, यदि उसके द्वारा योग के सोपान अनुष्ठित हैं, तो उसका प्रभाव वातावरण पर अवश्य होगा जहाँ वह अवस्थित है।



किसी भी आध्यात्मिक साधना की सबसे बड़ी त्रुटि उसका एकांगी होना है या तो वह शरीर प्रधान होती है या फिर अंतःकरण द्वारा अनुष्ठित। यही वजह है कि ज्यादातर साधक अर्श, अपस्मार, अतिसार प्रभृति से पीड़ित हो जाते हैं। पतञ्जलि- प्रणीत राजयोग सर्वांगपूर्ण है और उसका कारण राजाधिराज महाराज समुद्रगुप्त विरचित ‘श्रीकृष्णचरित' की प्रस्तावना से ज्ञात होता है, जहाँ वे पतञ्जलि के विषय में लिखते हैं


विद्ययोद्रिक्तगुणया भूमावमरतां गतः। पतञ्जलिर्मुनिवरो नमस्यो विदुषां सदा॥


तं येन व्याकरण भाष्यं वचनशोधनम्। धर्मावियुक्ताश्चरके योगारोगमुषः ताः॥


महानन्दमयं काव्यं योगदर्शनमद्भुतम्। योगव्याख्यानभूतं तद् रचितं चित्तदोषहम्॥


-तृतीय भाग, सातवाँ परिशिष्ट


महाभाष्य के रचयिता पतञ्जलि चरकसंहिता में धर्मानुकूल कुछ योग सम्मिलित किये और योग की विभूतियों का निदर्शक योग व्याख्यानभूत ‘महानन्द काव्य रचा। इस वर्णन से महर्षि पतञ्जलि का महाभाष्यकार के रूप में वैयाकरण होना, साथ ही चरकसंहिता-जैसे ग्रंथ को परिवर्धित करनेवाला चिकित्सक होनायोगदर्शन का प्रणेता योगी होना सिद्ध होता है।


तो फिर कोई आश्चर्य नहीं कि उनके योगसूत्रों में भाषा की प्रांजलता के साथ देह की बहिरिन्द्रियों और अन्तरिन्द्रियों को साथ लेकर न्यूनाधिक सक्रिय-निष्क्रिय किसी को भी न करते हुए, जिस प्रकार की साधना-प्रणाली का अवलम्बन प्रदान किया है, उससे सर्वप्रथम निरोगी काया, तत्पश्चात् ईश्वरलाभ और जगत् का रूपांतर है। इस दृष्टि से योगसूत्र ईश्वरप्राप्ति के सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय हैं। भक्ति और कर्म-जैसे योग उसके एक एक सूत्रों से उद्भूत हुए हैं।


महाराज समुद्रगुप्त ने मुनिवर पतञ्जलि का वर्णन देवल के बाद और भास से पहले किया है। भास द्वारा रचित प्रतिज्ञायौगन्धरायण नाटक के एक श्लोक का निर्देश- नवं वरावं सलिलस्यपूर्णम्......। (प्र.यौ., 4.2; अर्थशास्त्र, 10.3) कौटल्य कृत अर्थशास्त्र में होने से भास चाणक्य से पूर्वभावी हैं और अधिक सम्भावना है कि वे उदयन के समकालिक हों। अतएव भास का समय 1500 विक्रम पूर्व होना चाहिए। चूंकि पतञ्जलि का वर्णन भास से पहले किया गया है, इसलिए उन्हें 2000 विक्रम पूर्व होना युधिष्ठिर मीमांसक ने स्वीकारा है। उनके तर्क अभूतपूर्व, वैज्ञानिक तो हैं ही, वे स्वयं कालविद् महापुरुष भी हैं। कितना सुखद आश्चर्य होता है यह सोचकर, कि जब विश्व की अन्यान्य सभ्यताएँ विकसित हो रही थीं, उस समय भारतीय धरा पर मनोवैज्ञानिक उलझनों को सुलझानेवाले सूत्र रचे जा रहे थे, जिनका स्तर इतना ऊँचा है कि आज भी जिन्हें देखकर बड़ी आसानी से मनोप्रवृत्तियाँ समझी और सुधारी जा सकती हैं। ध्यातव्य है वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥33॥ (साधनपाद) (वितर्क अर्थात् योग के विरोधी भाव उपस्थित होने पर उनके प्रतिपक्षी विचारों का बारम्बार चिंतन करना चाहिए।)


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