योग स्वस्थ जीवन की कला एवं विज्ञान

योगविद्या का उद्भव हजारों वर्ष प्राचीन है। श्रुति-परम्परा के अनुसार भगवान् शिव योगविद्या के प्रथम एवं आदिगुरु, या आदि योगी हैं। हजारों वर्ष पूर्व हिमालय में कान्ति सरोवर झील के किनारे आदियोगी ने योग का गूढ़ज्ञान पौराणिक सप्तर्षियों को दिया था। भारतीय उपमहाद्वीपों में भ्रमण करनेवाले सप्तर्षियों एवं अगस्त्य मुनि ने इस योगविद्या को विश्व के प्रत्येक भाग में प्रसारित किया। इस तरह भारत ही एकमात्र ऐसी भूमि है जहाँ पर योगविद्या पूरी तरह अभिव्यक्त हुई।


योग का व्यापक स्वरूप तथा उसका परिणाम सिंधु एवं सरस्वती नदी घाटी सभ्यताओं की अमर संस्कृति का प्रतिफलन माना जाता है। योग ने मानवता के मूर्त और आध्यात्मिक- दोनों रूपों को महत्त्वपूर्ण बनाकर स्वयं को सिद्ध किया है। सिंधु एवं सरस्वती घाटी सभ्यता में योग-साधना करती अनेक आकृतियों के साथ ढेरों मुहरें एवं जीवाश्म-अवशेष इस बात के प्रमाण हैं कि प्राचीन भारत में योग का अस्तित्व था। सरस्वती घाटी सभ्यता में प्राप्त देवी एवं देवताओं की मूर्तियाँ एवं मुहरें तन्त्र योग का संकेत करती हैं।



वैदिक एवं उपनिषद्-परम्परा, शैव, वैष्णव तथा तान्त्रिक परम्परा, भारतीय दर्शन, रामायण एवं महाभारत-जैसे महाकाव्यों, बौद्ध एवं जैन-परम्परा के साथ-साथ विश्व की अनेक सभ्यताओं में योग किसी-न-किसी रूप में प्राप्त होता है।


योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि माने जाते हैं। पतञ्जलि ने उस समय प्रचलित प्राचीन योगाभ्यासों को व्यवस्थित व वर्गीकृत किया और उनके निहितार्थ और इससे सम्बन्धित ज्ञान को ‘योगसूत्र' नामक ग्रन्थ में क्रमबद्ध तरीके से व्यवस्थित किया। यही योगदर्शन का मूल ग्रन्थ है। पतञ्जलि के नाम पर इस योगसूत्र को पातञ्जलयोगशास्त्र एवं पातञ्जलदर्शन भी कहा जाता है। योगदर्शन वैदिक षड्दर्शनों में कलेवर की दृष्टि से लघुतम है। इसमें कुल चार पाद (समाधि, साधन, विभूति एवं कैवल्य) तथा 195 सूत्र हैं।


योग शब्द के मुख्यतः तीन अर्थ ग्रहण किये जाते हैं- 1. समाधि, 2. सम्बन्ध और 3. संयमन। समाध्यर्थ में ‘योग’ शब्द की निष्पत्ति दिवादिगणीय आत्मनेपदी/युज समाधौ धातु से घञ् प्रत्यय का योग करने पर होती है। योगशास्त्र में 'योग' शब्द का अभीष्ट अर्थ समाधि अर्थात् चित्तवृत्ति का निरोध ही स्वीकार किया गया है


योगः समाधिः स च सार्वभौमः चित्तस्य धर्मः।


योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।


योगसूत्रभाष्य, 1.1


चित्रवृत्ति निरोधरूपी समाधि के अर्थ में ही पातञ्जलयोग का ग्रहण करना चाहिए। पातञ्जल योग संयोगरूप न होकर वियोगफलक ही है अर्थात् कैवल्य प्रदान करनेवाला है। त्रिविध दुःख निवृत्ति करनेवाला है। भगवद्गीता (6.23) में कहा गया हैदुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।।


पतञ्जलि के द्वारा अनुशासित योग के इसी स्वरूप में सादर निवेदन करते हुए भोज ने कहा है


पतञ्जलिमुनेरुक्तिः काप्यपूर्वा जयत्यसौ।


पंप्रकृत्योर्वियोगाऽपि योग इत्यादिशो यथा॥


–राजमार्तण्डवृत्ति, 11.3.65 इस प्रकार पातञ्जलयोग का अर्थ व्युत्पत्ति की दृष्टि से समाधि अर्थात् समाधान या चित्तवृत्तिनिरोध' हुआ। किन्तु चित्तवृत्ति का निरोध तो कुछ-न-कुछ सभी को और सदैव होता रहता है, परन्तु प्रत्येक समाधि या प्रत्येक प्रकार की चित्तवृत्तिनिरोध को योग नहीं कहा जा सकता। प्रश्न उठता है कि योग किस समाधि को कहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार पतञ्जलि ने बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्वक प्रदान किया है। उनके इन सूत्रों को क्रमशः पढ़ने पर प्रश्न का समाधान स्वतः प्राप्त हो जाता है।


अथयोगानुशासनम् । योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। तदा द्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्।


योगसूत्र, समाधिपाद, 1-3


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