योगीश्वर शिव

मन्त्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग- इन चारों के आदि । प्रवर्तक भगवान् शिवजी ही हैं। शिवजी के उपदेशामृत से मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, शावरनाथ, तारानाथ और गैनीनाथ आदि अनेक महात्मा योगबल से सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। श्रुति कहती है- मनोनाशः परमं पदम्, मन का नाश ही परम पद है। कठोपनिषद् में भी है


यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह्। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्॥


मनो जानीहि संसार तस्मिन् सति जगत्त्रयम्। तस्मिन् क्षीणे जगत् क्षीणं तचिकित्स्यं प्रयत्नतः॥


'जिस काल में योगबल से पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, छठा मन और सातवीं बुद्धि- सब शिवपद में लय हो जाती हैं, उसी को परम गति, मोक्ष, मुक्ति, कैवल्य, अमनस्क और ब्राह्मी स्थिति कहते हैं। मन के उदय से जगत् का उदय और मन के लय से जगत् का लय होता है।'



योगी जिसको अनहद शब्द कहते हैं, वेदान्ती उसी को सूक्ष्म नाद कहते हैं, हम उसी को शुद्ध वेद कहते हैं, यह ईश्वर के नाम की महिमा और अनुवाद है। नाम में अनन्त शक्तियाँ हैं। गुरु के बतलाये मार्ग से जो पुरुष नाम-जप करता है, वह परमानन्दरूपी मुक्ति को पाता है। शिवजी ने मन के लय होने के सवा लाख साधन बतलाये हैं, उनमें नामसहित नादानुसन्धान श्रेष्ठ है। साक्षात् श्रीशिवरूप शंकराचार्यजी के योगतारावली ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि


सदाशिवोक्तानि सपादलक्षलयावधानानि वसन्ति लोके।।


नादानुसन्धानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम्॥


नादानुसन्धान ! नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम्। भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे॥


नासनं सिद्धसदृशं न कुम्भकसमं बलम् । न खेचरीसमा मुद्रा न नादसदृशो लयः॥


सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा। नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता॥ 


सदाशिवजी ने मन लय होने के जो सवा लाख साधन बतलाये हैं, उन सबमें नामसहित नादानुसन्धान ही परमोत्तम है। हे नादानुसन्धान! तुम्हें नमस्कार है। तुम परमपद में स्थिति कराते हो। तुम्हारे ही प्रसाद से मेरे प्राणवायु और मन विष्णुपद में लय हो जायेंगे। सिद्धासन से श्रेष्ठ कोई आसन नहीं है। कुम्भक के समान बल नहीं है, खेचरी मुद्रा के तुल्य मुद्रा नहीं है। मन और प्राण को लय करने में नाद के तुल्य कोई सुगम साधन नहीं है। योगसाम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो तो सावधान होकर एकाग्र मन से नाद को सुनो।


हे प्रभो! मेरा चित्त आपके चेतनस्वरूप में लय हो जाय, यही वरदान चाहता हूँ। शिवजी कृत ज्ञानसङ्कलिनी ग्रन्थ में लिखा हैकि


दृष्टिः स्थिरा यस्य विनैव दृश्यात् वायुः स्थिरो यस्य विना निरोधात्। चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बात् स एव योगी स गुरु स सेव्यः॥


अन्तर्लक्ष्यं वहिर्दष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता। एषा सा शाम्भवी मुद्रा वेदशास्त्रेषु गोपिता॥


जिस महापुरुष के नेत्र और पलकें दृश्य का आश्रय न लेकर भी स्थिर हैं, इन लक्षणोंवाला पुरुष ही योगी है। वही गुरु होने योग्य है तथा सेवा करने योग्य है। जब मन हृदय में ईश्वर के ध्यान में संलग्न होता है, तथा ध्यान के बल से नेत्र निमेष-उन्मेष से रहित हो स्थित हो जाते हैं तो उसको शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। शिवजी ने इस मुद्रा का चिर काल तक अभ्यास किया है, इसी कारण यह उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है।


कुण्डलिन्यां समुद्धता गायत्री प्राणधारिणी। प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदवित्॥


अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः। अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥


अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी। अस्याः स्मरणमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः॥


कुण्डलिनी-शक्ति से गायत्री उत्पन्न होकर प्राण को धारण कर रही है, जो इस गायत्रीरूपी प्राणविद्या महाविद्या को जानता है, वही वेद का ज्ञाता है। इसके सदृश विद्या नहीं, इसके तुल्य जप नहीं, इसके समान अपरोक्ष ब्रह्म का अद्वैत ज्ञान करानेवाला सुगम साधन कोई न हुआ है, न है और न होगा। यह अजपा गायत्रीरूपी ईश्वर का नाम, साधक को जीवन्मुक्त कर देता है।


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