बनजारा एक विहंगम दटि

विगत शती के अन्तिम दशक में जब मैं ‘पीलीभीत के बनजारों ' का लोकजीवन' नामक विषय पर काफ़ी दौड़ना भी पड़ा था तथा घर छोड़कर दूसरी जगहों पर रातें भी बितानी पड़ी थीं। इसी सिलसिले में मुझे एक रात ‘कंजा टांडा' नामक बनजारों की गौटिया में बितानी पड़ी। गौटिया के कुछ बनजारों, जिनको पहले ही मैं अपने कथित कार्य के बारे में बता चुका था, ने कापड़ी के आने पर मुझे रात में गौटिया में ही बुला लिया था। (ज़िला पीलीभीत (उ.प्र.) का ‘कंजाटांडा' नामक नगला मेरे निवासस्थान पूरनपुर से लगभग 8 किलोमीटर उत्तर की ओर हिमालय की तलहटी (तराई) में बसा हुआ है।)


 


कंजाटांडा में ‘प्रेमचन्द' नामक कापड़ी, जो ग्राम बनभौरी, जिला हिसार (हरियाणा) के निवासी थे, ने बताया कि कापड़ी' ब्रह्मभाट होते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ‘कापड़ी' शब्द मूलतः ‘कावर' शब्द से विकसित हुआ है। ‘कावर' से भ्रष्ट होकर यह शब्द ‘कापड़ बना और कापड़ को लेकर चलनेवाले ‘कापड़ी' कहलाये। जिस प्रकार काँवरथी जन काँवर को कंधों पर लादकर य रखकर ले जाते हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में यातायात के साधनों के अभाववश बनजारों के विरुवर्णक पुरोहित, जो हरियाणा में बसते है, अपनी भारी पोथियाँ कंधों पर लादकर अपने यजमान बनजारों के ग्रामों (टांडों) में जाया करते थे। इसलिए इन पुरोहितों या पण्डों को ‘कावर' के अपभ्रंश ‘कापड़ के आधार पर ‘कापड़ी' कहा जाने लगा। हरियाणा में कई स्थानों पर 'व' को 'प' तथा 'र' को सामान्यतः 'ड' कहा जाता । ‘कापड़ी' शब्द के निर्माण के पृष्ठ में भी यही भाषात्मक प्रक्रिया रही है।


आपको ध्यान होगा कुछ वर्षों पूर्व तक एक किश्त प्रथा' चलन में रही थी। (संभव है, कुछ स्थानों पर यह अब भी चल रही हो।) क्षेत्र के महाजन और साहूकार गाँवों के भोले-भाले, अनपढ़ और जरूरतमंद लोगों को ऊँचे ब्याज दर पर रुपया ऋण देते थे। ऋण देने और ब्याज उगाहने के लिए ये महाजन अपने कारिंदे रखते थे। ये कारिंदे एक वर्ष के बाद भारीभारी बहीखाते थैलों में लटकाकर आसामियों के पास जाते थे और उनसे उगाही कर हिसाब-किताब का नये सिरे से नवीनीकरण करते थे। इन लोगों को ‘किश्तहा' कहा जाता था क्योंकि ये एक वर्ष की किश्तों में रुपये का लेन-देन करते थे। ये ‘कापड़ी' भी एक प्रकार से बनजारों के ‘सांस्कृतिक किश्तहे हैं, जो वर्ष भर बाद अपने यजमानों के यहाँ आकर उनकी वंशावली का विरुद वर्णन करते हैं और बदले में अच्छी-सी दक्षिणा लेकर पुनः अपने देश-घर को चले जाते हैं।


प्रस्तुत पंक्तियों में कापड़ी के विचारों सहित कुछ उन सम्भावनाओं, परिस्थितियों एवं विचारधाराओं पर चर्चा की जा रही है, जिनसे ‘बनजारा' शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। या जो ‘बनजारा' शब्द के निर्माण में सहायक रही हैं।


एक मत के अनुसार 'बणजारा' (बनजारा) शब्द की व्युत्पत्ति ‘वाणिज्य कार्य के कारण हुई। मुस्लिम काल में (विशेषतः औरंगजेब के समय) क्षत्रियों को अपने वश में करने के लिए मुस्लिमशासकों ने इन पर अत्याचार किये। फलतः अपनी रक्षार्थ ये घर-बार छोड़कर भाग आए और कबीले बनाकर रहने लगे। ये लोग अपनी जान के लिए ही नहीं, अपने धर्म के लिए भी भागे थे। एक स्थान पर कबीले में रहकर जब वहाँ की पारिस्थितिकी का ये अधिकतम उपभोग कर लेते थे, तब वहाँ से दूसरे स्थान पर डेरा डालने के लिए चल देते थे। जीवननिर्वाह के लिए ये लोग व्यापार का सामान बैलों पर लादकर रास्तेभर व्यापार करते चलते थे। अंग्रेजी राज में जब रेल, सड़क परिवहन आदि का पर्याप्त विकास हो गया, तब ये लोग भी नगला और गाँव बनाकर रहने लगे। इनके गाँव 'तांडा' या ‘टांडा' कहलाते हैं।


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