बनजारा सभ्यता-संस्कृति के प्रतीक-पुरुष सदगुरु संत सेवालाल

भारतभूमि का सौभाग्य है कि यहाँ की रत्नगर्भा माटी मेंमहापुरुषों को पैदा करने की शोहरत प्राप्त है, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व से न सिर्फ स्वयं को प्रतिष्ठित किया, वरन् उनके अवतरण से समग्र विश्व मानवता धन्य हुई है। इन्हीं संत पुरुषों, गुरुओं एवं महामनीषियों की श्रृंखला में एक महापुरुष हैं सद्गुरु संत सेवालाल जी, जिनकी पहचान दुनिया के महान् तपस्वी, ब्रह्मचारी, महान् संत आदि स्वरूपों में होती है। बनजारा सभ्यता-संस्कृति के प्रतीकपुरुष सन्त सेवालाल ने दया, प्रेम, अहिंसा, करुणा का सन्देश देकर बंधुभाव स्थापित करने की बात सिखायी। भाग्य की रेखाएँ स्वयं निर्मित करने की प्रेरणा जागृत की। स्वयं की अनन्त शक्तियों पर भरोसा और आस्था जागृत की।


सद्गुरु संत सेवालाल जी का जन्म 15 फरवरी, 1739 को सिरसी, उत्तर कर्नाटक में बनजारा समाज के राठोड (रामावत) कुल में हुआ था। उनको श्रद्धा व प्यार से सेवाभाया, सेवादास, मोतिवाळो, तोडावाळो आदि नामों से पुकारा जाता है। इनके पिता का नाम भीमा नायक तथा माता का नाम धर्मणी था। कहा जाता है कि आदिशक्ति माँ जगदम्बा की कृपा से संत सेवालाल जी का जन्म हुआ। बनजारा समुदाय में सन्त सेवालाल को शिव का अवतार माना जाता है। 04 दिसम्बर, 1806 को इनका स्वर्गवास हुआ, हालांकि बनजारा समाज की मान्यतानुसार ये आज भी अमर हैं।



सन्त सेवालाल की शिक्षाएँ


सद्गुरु सन्त सेवालाल का धर्माचरणयुक्त जीवन जैसे उदात्त, परोपकारी, निःस्पृह और ग्रहण करने योग्य है, वैसे ही इनके उपदेश भी कल्याणकारी हैं। इनकी शिक्षाओं में ब्रह्मचर्य, मानवसेवा, नशामुक्त जीवन, अहिंसा, तप, दान आदि महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य (गोरकोर) को कौन-से कर्म करणीय और कौन-से अकरणीय हैं, इस दृष्टि से संत सेवालाल ने अपने बोल वचन या लडी के माध्यम से सुन्दर उपदेश दिये हैं।


गायों में एक साँड अवश्य रखना चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टि से अगर इस वचन का अर्थ लगाया जाए तो ‘गो’ का एक अर्थ पृथिवी भी होता है।


पृथिवी पर इस मनुष्य समूह में यदि धर्म का स्थान न रहे तो विनाश ही संभव है। 'धर्म' का ही प्रतीक है। हमें विश्व का कल्याण चाहिए जो धर्म से ही संभव है। चोरी अधर्म है, अव्यवहार्य है। दूसरे


चोरी अधर्म है, अव्यवहार्य है। दूसरे की वस्तु पर हक जमाना चोरी ही है। विद्या, धन, नारी, सम्पत्ति, भूमि और व्यक्तित्व आदि कोई भी वस्तु अपने पुरुषार्थ से ही संग्रह करनी चाहिए। उसे छीनकर या चोरी के माध्यम से लेने के विचार से ही मानसिक प्रगति में बाधा उत्पन्न हाती है। मन रोगग्रस्त होता है और मनुष्य का आत्मिक विकास रुक जाता है।


नित्य सत्य ही बोलें, भूलकर भी असत्य न बोलें। असत्य व्यवहार, असत्य वाणी धर्मविरुद्ध है। सत्यवादी मनुष्य जगत् के सामने एक आदर्श ही नहीं अपितु जीवन को सरल, पवित्र, तथा बलवान् बनाने में भी सहायता करते हैं। झूठ का भ्रम दिखने में भले ही ठीक हो, पर अन्त में विजय सत्य की ही होती है। जगत् का सारा व्यवहार सत्य पर आधारित है। सत्य ईश्वर का रूप है। जब तक सत्यवादी मानवों का अस्तित्व है, तब तक जगत् की स्थिति कायम है।


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