बनजारा समाज में स्त्री

बनजारिन का परिधान


महाराष्ट्र के कुछ भागों में बनजारा महिला के परिधान में सुधार हुआ है। आसपास की महिलाओं की भाँति वे भी साड़ी-चोली पहनने लगी हैं। कई जगह सुधारवादी दृष्टिकोण तथा आर्थिक कारणों से बनजारिन हल्के-फुल्के लहँगे पहनने लगी हैं। हिंदीभाषी क्षेत्रों में बनजारा स्त्री के वेश में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, किन्तु दक्षिण के पहनावे में विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता।



बनजारिन रंग-बिरंगे परिधान को पसन्द करती है, किन्तु उसे सर्वाधिक प्यार लाल रंग से है। सिर पर गहरे रंग की चूनर, कमर में घेरदार गहरे रंग का घाघरा। चूनर और घाघरे- दोनों पर खानेदार गोल चक्करों की सुर्ख मखमली कढ़ाई, बीच-बीच में चमकते हुए काँच के टुकड़े। तथाकथित हाथी दाँत के चूड़े से भरी बाँहें।


सुहागिन का वेश


सुहागिन स्त्री के तीन कपड़े दर्शक का ध्यान आकर्षित करते हैं- 1. फेटिया, 2. काँचली, 3. हाटिया। फेटिया लहँगे से अधिक घेरदार और घाघरे से कुछ हलका होता है। बेलबूटों और काँच से सजी हुई काँचली, चोली की तरह पहनी जाती है। हाथभर का हाटिया बहुत कलात्मक होता है। इसे 'पूँघटो' भी कहते हैं। यह ओढ़नी के उस हिस्से में टाँका जाता है, जो सिर पर आता है।


कुँवारी लड़की का वेश


कुंवारी लड़की काँचली की जगह सीधासादा कब्ज़ा पहनती है। उस पर कौड़ी या काँच नहीं टॉक जाते। कुंवारी लड़की का फेटिया भी सीधासादा होता है, एक कपड़े का, उस पर पूँघटो नहीं रहता। कुँवारी लड़की की ओढ़नी ‘फड़की कहलाती है। दस-बारह साल की लड़की ओढ़नी के दोनों छोरों पर एक-एक गठरी बाँधती है। इन गठरियों में सुपारी, कौड़ी और चावल बँधे होते हैं। एक गठरी सामने और एक पीठ पर झूलती रहती है। गठरियों के कारण ओढनी हमेशा सिर पर बनी रहती है और लड़की निश्चिन्तता से काम कर सकती है, बार-बार आँचल से सिर ढकने की आवश्यकता नहीं पड़ती।


खानदेश में लड़कियाँ चोली या ब्लाउज नहीं पहनतीं। ओढ़नी से ही ऊपर का शरीर ढकती हैं। यदि कहीं बनजारिन ने पुराना वेश त्यागकर आधुनिकता स्वीकार नहीं की है तो उसके वेश में प्रान्त के अनुसार थोड़ा-बहुत अन्तर पड़ता है।


राजस्थानी जनजाति


राजस्थान की बनजारिनें लहँगा, ओढ़नी या ऑगी पर आरसी नहीं टाँकतीं। यहाँ कौड़ियों का उपयोग भी नहीं होता। प्रदेश की अन्य महिलाओं की भाँति बनजारिनें भी रंग-बिरंगेबड़े घेरे के घाघरे पहनती हैं। विवाह होने पर चूनर और पुत्र जन्म के पश्चात् ‘पीला' ओढ़ती हैं।


सुनारिन


वेश के कारण बनजारा और मथुरा- महिलाओं से सुनारिन को अलग किया जा सकता है। सीधा-सादा लहँगा, मामूली-सी ओढ़नी। चोली भी साधारण। आरसी- कौड़ी या कसीदाकारी का उपयोग नहीं होता।


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