बिना सुविधाओं के जीवन जीने का कैसा अधिकार?

सवैधानिक ढाँचे में बराबरी और समान अधिकार का जिक्र किया गया है। फिर बराबरी अवसर की समता की हो। या अन्य किसी भी तरीके की। जाति-धर्म, ऊँच-नीच से परे होकर सभी के एक समान हक की बात होती है। फिर वह चाहे शिक्षा के क्षेत्र की बात हो, नौकरी-पेशे की बात हो। पर मुद्दे की बात, क्या इन बातों पर आज़ादी के इतने वर्षों बाद अमल हो पाया? उत्तर मिलेगा, लेकिन नकारात्मक। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी होना। समावेशी विकास, सबको साथ रखने का जिक्र सरकारें आज भी कागजी या फिर मौखिक बयानों में ही करती हैं, जो लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। समाज का एक तबका तीव्र विकास कर रहा है। देश में पूँजी का प्रवाह कुछ सीमित हाथों तक सिमटता जा रहा है। वहीं एक तबका ऐसा भी है, जिसे रोजगार, बेहतर तालीम के लिए भटकना पड़ रहा है। इसके अलावा 27 से 35 रुपए कमानेवालों की स्वास्थ्य-सेवाओं की देखभाल सरकारें न कर पायें, तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जनोन्मुखी कहलाने का हक कतई नहीं।



ऐसे में अगर संविधान का अनुच्छेद21 जीवन जीने का अधिकार देश की अवाम को देता है, तो अधिकार भलीभूत कब हो सकता है? जब लोगों को भूख मिटाने के लिए भोजन, बीमारियों से बचने के लिए दवा और रहने के लिए छत मयस्सर हो। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि संविधान ने जीवन जीने का अधिकार तो दे दिया, परंतु संविधान को लागू हुए लगभग 68 वर्ष होने के बाद भी देश में गरीब है कौन? उसका निर्धारण सटीक ढंग से हमारी सरकारें न कर पाई हैं। न ही उनके जीवन जीने के लिए आवश्यक मूलभूत आवश्यकताओं का इंतजाम हो पाया है। सरकारें जनोन्मुखी और सामाजिक सरोकार से जुड़ी होने का दम्भ तो भरती हैं, लेकिन जब आँकड़ों के भंवर में गोते लगाया जाए, तो पता चलता है। सरकार समावेशी विकास, सबको समान अधिकार और सबके विकास का सिर्फ दावा ही करती हैं। शायद असलियत से उसका कोई रिश्ता-नाता नहीं होता। लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्थित सरकार उसे कहा जा सकता है जो जनापेक्षाओं पर खरी उतर सके। सभी की भलाई के लिए कार्य कर सकें, ऐसे में यहाँ एक बात का ज़िक्र होना काफ़ी लाजिमी हो जाता है। हमारा देश शायद दुनिया का एकमात्र देश होगा, जहाँ पर ग़रीबी को पारिभाषित करने के लिए सबसे ज्यादा समितियाँ आज़ादी से अब तक गठित हो चुकीं, लेकिन गरीबी ने ऐसा धरना दिया है कि वह देश से बाहर होने का नाम नहीं ले रहीं।


यहाँ एक और बात का जिक्र होना आवश्यक है कि शायद देश में गरीबों की संख्या का जिक्र भी सरकारें अपनी सुविधा अनुसार ही करवाती हैं। तभी तो लगभग अलग-अलग समितियों के मुताबिक देश में गरीबों की संख्या अलग-अलग होती है। देश में रंगराजन समिति के अनुसार, 2011-12 में गरीबों की संख्या 36.3 करोड़ थी, जबकि 2009-10 में यह आँकड़ा 45.4 करोड़ था। वहीं तेंदुलकर समिति के अनुसार, 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 35.4 करोड़ थी, जो 2011-12 में घटकर 26.9 करोड़ रह गयी।


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