चल पड़े अपनी डगर गुमनाम बनजारे

नैन में हैं आँसू गीले,


पांव में काँटे नुकीले,


बाँध अभिशापों की गठरी,


सामने है राह सँकरी,


लादकर कांधे पे अपने दर्द दुःख सारे,


चल पड़े अपनी डगर गुमनाम बनजारे।



कभी न खत्म होनेवाले सफर और बिना किसी मंज़िल की चाह के बनजारे अपनी पूरी जिंदगी लाखों-लाख मील तक सफ़र करते-करते यायावरी में निकाल देते हैं। बनजारों का न अपना कोई ठौर-ठिकाना होता है, न ही कोई घर-बार... होता है तो सिर्फ उनका अपना कारवाँ जिसमें बच्चे, बूढे, औरतें और जानवर होते हैं जिनको लेकर ये दर-ब-दर घूमते हैं। इन लोगों को कभी किसी जगह से कोई लगाव नहीं होता। इनकी अपनी एक अलग दुनिया होती है। सदियों से यह समुदाय देश के दूर-दराज़ इलाकों में घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता आ रहा है। दिनभर चलते-चलते साँझ होते ही कहीं भी डेरा डालकर रात बिता देना इनके जीवन की साधारण-सी प्रक्रिया है। बनजारों को पशुओं से बेहद लगाव होता है। यही कारण है कि वे अपने कारवें में अपने पालतू पशु, जैसे- बैल, बकरियाँ, गाय व शिकारी कुत्तों को रखते हैं। बैलगाड़ियाँ इनके काफिले का प्रमुख वाहन होता है। जिनमें वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते हैं व उनमें अस्थायी घर बनाकर रखते हैं। इसमें रोजाना इस्तेमाल किए जानेवाले सामान वे रखते हैं। बनजारे कुछ खास चीजों के लिए बेहद प्रसिद्ध हैं, जैसे- नृत्य, संगीत, रंगोली, कशीदाकारी, गोदना और चित्रकारी; जो इनकी आजीविका में भी काफी हद तक सहायक हैं। शहर में आम तौर पर सड़क किनारे टेंट में या फिर खुले में अस्थायी तौर पर कुछ लोग रहते दिख जाएंगे। कई बार ये लोग 2 से 3 दिन तो कई बार हफ्तों ऐसे ही समय गुजार देते हैं। ये बनजारे लोग ऐसे ही पूरा जीवन घूमते हुए गुजार देते हैं। महिलाएँ तो इन जगहों पर पूरा दिन रहती हैं, जबकि पुरुष मेहनत-मज़दूरी करने के लिए आस-पास के इलाकों में चले जाते हैं और कुछ पैसे इकट्ठा कर फिर अगले पड़ाव की ओर बढ़ जाते हैं।


आम तौर पर बनजारे पुरुष सिर पर पगड़ी बाँधते हैं। कमीज या झब्बा पहनते हैं। धोती बाँधते हैं। हाथ में नारमुखी कड़ा, कानों में मुरकिया व झेले पहनते हैं। अधिकतर ये हाथों में लाठी लिए रहते हैं। बनजारा महिलाएँ बालों की फलियाँ गूंथकर उन्हें धागों में पिरोकर चोटी से बाँध देती हैं। महिलाएँ गले में सुहाग का प्रतीक दोहड़ा पहनती हैं। हाथों में चूड़ा, नाक में नथ, कान में चाँदी के ओगन्या, गले में खंगाला, पैरों में कड़िया, नेबरियाँ, लंगड, अंगुलियों में बिछिया, अंगूठे में गुछला, कमर पर करधनी या कंदौरा, हाथों में बाजूबंद, डोड़िया, हाथपान व अंगूठियाँ पहनती हैं। कुछ महिलाएँ घाघरा और लहंगा भी पहनती हैं। लुगड़ी ओढ़नी ओढ़ती हैं। बूढ़ी महिलाएँ कांचली पहनती हैं। मध्य भारत के बनजारों में एक वृषपूजा (बैल की पूजा) का भी प्रचलन है। बनजारे बैल को ‘हतादिया' (अवध्य) तथा बालाजी का सेवक मानकर पूजते हैं; क्योंकि बैलों का कारवाँ ही इनके व्यवसाय का आधार होता है।


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