एके सर्वांगीण आत्मनिर्भर समाज बनजारा

हिन्दी की विभिन्न बोलियों में न जाने कब ‘बनजारा' शब्द प्रतीक बन गया। यह शब्द अनिकेत व्यक्ति के अतिरिक्त निःस्पृह, निरपेक्ष और परिव्राजक मन का भी परिचायक है। बनजारा पथ पर अंकित अपने पद-चिह्नों को मिटाता चलता है। उसे न तो भविष्य गुदगुदाता है और न आतंकित करता है। ऐसा मन जो आसक्ति से रिक्त किन्तु साहसिक स्पन्दनों से परिपूर्ण रहता है। जो व्यक्ति किसी बन्धन में जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मरण का वरण करता है। जिसे विश्राम और आश्रय- दोनों से अरुचि है, और जो यात्रा को मंज़िल मानता है। दियाबाती के समय कहीं रुकना भी पड़े जो पाँवों में घुघरू बँध जाते हैं। वह रात-रातभर ढप पर थिरकता पहता है। घना जंगल दर्द से पुकारता है जो बनजारे के गले से निकला गीत वातावरण को मिठास से सराबोर कर देता है।



एक समय ऐसा रहा होगा, जब ‘बनजारा' शब्द प्रतीक नहीं बना था। तब यह शब्द पूरे भारत में फैले हुए एक विशिष्ट समाज के सदस्य का परिचय देता था। नब्बे वर्षों की माँ बताती है, जब वह सात-आठ वर्ष की बालिका थी, उसके गाँवों (खिदरपुर, तहसील तिजारा, जिला अलवर, राजस्थान) में बनजारे आए थे। गाँव के बाहर उनका टाँडा पड़ा था। बनजारिने अनाज के बदले गेरू बेचने आई थीं।


आज भी पूर्वी राजस्थान में यदि कोई व्यक्ति बस से यात्रा करता है, तो उसे अकस्मात् अनुशासन में चलनेवाली सैकड़ों भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल धीरे-धीरे विपरीत दिशा में आगे बढ़ते दिखाई देंगे। सबसे पहले भेड़-बकरी, छोटे-छोटे मेमने, सैकड़ों की संख्या में। आश्चर्य होता है, एकसाथ भेड़-बकरी के इतने बच्चे कहाँ से आ गये। मेमनों के बाद बकरियाँ, फिर भेड़। बछिया, बछड़े और फिर गायें। इन सबके पीछे लाठी लिये छोटी-बड़ी आयु के पुरुष, जिनकी दाढ़ी दो भागों में विभक्त होकर कानों के पास बँधी होती है, सिर पर पगड़ी, शरीर पर कमरी और घुटनों तक की धोती। लाल ओढ़नी, हवा में उड़ाती लहंगा पहने निर्भीक महिलाएँ। लोग कहने लगते हैं, बनजारे जा रहे हैं।


विभिन्न नाम


बनजारे व्यापार, दस्तकारी, आयात-निर्यात और पशु-चारण के लिए भारत के विभिन्न प्रान्तों में ही नहीं, दूसरे देशों को भी जाते थे। व्यवसाय, शिल्प, वेश-भूषा आदि के कारण प्रान्त-प्रान्त में बनजारों के लिए अलग नामों का प्रचलन हो, यह स्वाभाविक था। उच्चारण के कारण भी एक ही शब्द के अनेक रूप प्रचलित हो गये। उच्चारणभेद तथा व्यवसायसूचक नामों को छोड़ दिया जाए, तो बनजारा समाज के लिए प्रयुक्त चार नाम रह जाते हैं- 1. बनजारा, 2. लभाणा, 3. लंबाड़ा और 4. सुगाली।


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