जनगणना के साथ नजरिया बदलने की जरूरत

पच्चीस फीट ऊँची रस्सी पर चलता एक इंसान, सड़क के किनारे करतब दिखाता एक बच्चा। शहर के किनारे तंबू डाले कुछ परिवार। आज यहाँ, कल कहीं और। बिस्तर के नाम पर जमीन, छत आसमान। महीने-दो महीने पर शहर बदल जाता है। और शायद जिंदगी के रंग भी, लेकिन यह कहानी सैकड़ों सालों से बदस्तूर जारी है। यह कहानी है भारत के उन 6 करोड़ घुमंतू और विमुक्त जनजातियों की, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में यायावर कहते हैं। इनकी बदनसीबी का आलम यह है कि आजादी के 71 सालों बाद भी न तो इनकी जनगणना हुई है और न ही इन्हें कोई सरकारी सुविधा मिली। उल्टे पुलिस-प्रशासन की निगाहों में इनकी छवि अपराधियों की बनी हुई है।



अंग्रेजों के जमाने में इन्हें रोजाना थाने में हाजिरी लगानी पड़ती थी। इनके लिए एक काला कानून अंग्रेजों ने बनाया था, जिसका नाम था क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871। आज़ादी के बाद भी दो सालों तक इनकी सुध किसी ने नहीं ली। दो साल बाद इस कानून में संशोधन तो हुआ, लेकिन इनकी जिंदगी में संशोधन के नाम पर कुछ नहीं हुआ। 1949-50 में अनन्तशयनम् अयंगर के नेतृत्व में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट इंक्वायरी कमेटी बनी, जिसने इस एक्ट को ख़त्म करने की सिफारिश की थी। 1953 में लालबहादुर शास्त्री यवतमाल के बनजारा-अधिवेशन में शामिल हुए थे, जहाँ उन्होंने इस समुदाय के बच्चों को शुल्कमुक्त शिक्षा व छात्रवृत्ति देने की बात कही थी। 1966 में दिल्ली में हुए बनजारा-अधिवेशन में इन्दिरा गाँधी ने भी शिरकत की थी और यह आश्वासन दिया था कि इस समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। फिर 31 मार्च, 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी महाराष्ट्र के सोलापुर में विमुक्त एवं घुमंतू जनजाति समुदाय की एक बैठक में शरद पवार के साथ शामिल हुए। इस बैठक में राजीव गाँधी ने इस समुदाय को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण और शैक्षणिक सुविधा देने का आश्वासन दिया। हालांकि यह आश्वासन भी कोरा ही साबित हुआ।


राजग के शासनकाल में प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी भी महाराष्ट्र के पंढरपुर में विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों के लाखों लोगों की एक रैली में पहुँचे, जहां उन्होंने नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एण्ड नोमाडिक ट्राइब्स (विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग) बनाने की घोषणा की। यह आयोग बना भी, लेकिन इसके अस्तित्व में आने के बावजूद इस समुदाय का कोई भला हुआ हो, ऐसा नहीं है। यह खुद आयोग की कार्यप्रणाली और उसकी रिपोर्ट पर सरकार के रवैये से ही पता चल जाता है। विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर इस आयोग ने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें बताया गया है कि इस समुदाय के लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में अस्थायी आश्रय स्थल, तंबू या खाली जमीन पर रहते हैं। इनके पास स्थायी पता नहीं है, जिसकी वजह से इन्हें घर के लिए जमीन आवंटित करने में भी मुश्किलें आती हैं। इनके पास न तो अपने परिचय का कोई सबूत है और न संपत्ति के स्वामित्व का। नतीजतन, इनका राशनकार्ड भी नहीं बन पाता हैऔर न ही ये बीपीएल कोटे में शामिल हो पाते हैं। जाति-प्रमाणपत्र मिलने में भी इन्हें काफी मुश्किल होती है और इस वजह से ये सरकार की किसी भी कल्याणकारी योजना का लाभ नहीं उठा पाते। यह रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई, लेकिन इस पर सरकार ने अब तक क्या किया है, इसका कुछ अता-पता नहीं। खुद इस आयोग के पूर्व चेयरमैन ने कहा है कि डेढ़ साल बाद भी इस रिपोर्ट पर सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। ज़ाहिर है, इनकी भलाई के लिए जो थोड़ेबहुत प्रयास हुए, घोषणाएँ हुईं, वे सब कागज़ों तक सीमित रह गए।


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