महिषासुरमर्दिनी माता शिला देवी

कोन नहीं जानता कि राजस्थान विश्वभर में अपनी आनबान-शान के लिए प्रसिद्ध है। कहीं आकाश से बातें करते दुर्ग, कहीं दूर- दूर तक फैले चमकते हुए रेत के टीले, कहीं मनोरम झाल तो कहा श्रद्धा और आस्था के सतरंगी रंग में डूबा जनसैलाब। अनेक रंग लिए यह राज्य अपने गौरवशाली इतिहास के लिए दुनियाभर में जाना जाता है। जयपुर शहर से 11 कि.मी. दूर एक पहाड़ी पर स्थित आमेर का किला मुगलों और हिंदुओं के वास्तुशिल्प का मिला-जुला और अद्भुत नमूना है। इस अजेय दुर्ग का सौन्दर्य इसकी चारदीवारी के भीतर मौजूद इसके चारस्तरीय सोपानों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है, जिसमें लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से निर्मित दीवान-ए- आम या आम जनता के लिए विशाल प्रांगण, दीवान-ए-खास या निजी प्रयोग के लिए बना प्रांगण, भव्य शीशमहल तथा सुख निवास शामिल हैं, जिन्हें गर्मियों में ठण्ढा रखने के लिए दुर्ग के भीतर ही कृत्रिम रूप से बनाए गये पानी के झरने इसकी समृद्धि की कहानी कहते हैं। जिस पहाड़ी पर आमेर दुर्ग स्थित है, उसके सामने एक अत्यंत सुन्दर झील है, इसे मावठा सरोवर कहते हैं। झील के एक छोर पर किले में जाने का मार्ग है जहाँ एक सुन्दर वाटिका बनी है। इसे राजा जयसिंह के समय में बनवाया गया था, इसका नाम दूलाराम बाग है, जिसमें में कुछ नक्काशी किये हुए छत्रीनुमा कक्ष बने हैं। बाहरी परिदृश्य में यह किला मुगल-शैली से प्रभावित दिखाई पड़ता है, जबकि अन्दर से यह पूर्णतया राजपूत स्थापत्य शैली में है। पर्यटक आमेर किले के ऊँचे मेहराबदार पूर्वी द्वार से प्रवेश करते हैं, यह द्वार ‘सूरजपोल' कहलाता है। इसके सामने एक बड़ा-सा चौक स्थित है, इसे ‘जलेबी चौक' कहते हैं। आमेर में हाथी की सवारी करना अपने आप में एक अनूठा रोमांच से भरा हुआ अनुभव है। आमेर के अतीत पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि छः शताब्दियों तक यह नगरी ढूँढाढ़ क्षेत्र के सूर्यवंशी कछवाहों की राजधानी रही है। बलुआ पत्थर से बने आमेर के किले का निर्माण 1558 में राजा भारमल ने शुरू करवाया था। निर्माण की प्रक्रिया बाद में राजा मानसिंह और राजा ।



जयसिंह के समय में भी जारी रही। करीब सौ वर्ष के अंतराल के बाद राजा सवाई जयसिंह के काल में यह किला बनकर पूरा हुआ। उसी दौर में कछवाहा राजपूत और मुगलों के बीच मधुर संबंध भी बने, तभी राजा भारमल की पुत्री का विवाह अकबर से हुआ था। बाद में राजा मानसिंह अकबर के नवरत्नों में शामिल हुए और उनके सेनापति बने। वही आमेर घाटी और इस किले का स्वर्णिम काल था।


विश्व-विख्यात शिला देवी मन्दिर


शिला देवी मन्दिर आमेर के महल में स्थित है जो जन-जन की आस्था का केंद्र है। शिला देवी जयपुर के कछवाहावंशीय राजाओं की कुलदेवी रही हैं। शिलादेवी मन्दिर में सम्पूर्ण कार्य संगमरमर के पत्थरों द्वारा करवाया गया है, जो महाराज सवाई मानसिंह द्वितीय ने 1906 में करवाया था। मन्दिर में 1972 तक पशु बलि दी जाती थी, लेकिन जैन मतवलम्बियों के विरोध के चलते अब यह प्रथा पूर्णतः बंद कर दी गई है। मन्दिर का मुख्य द्वार चाँदी का बना हुआ है, जिस पर नवदुर्गा शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्ममाण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री के चित्र अंकित हैं। दस महाविद्याओं के रूप में काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्तिका, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमलादेवी को भी चित्रित किया गया है।


दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की गणेश मूर्ति प्रतिष्ठित है, श्रद्धालुगण मन्दिर में प्रवेश करते समय इन्हें शीश झुकाना नहीं भूलते हैं। मन्दिर में प्रवेश करने पर द्वार के सामने झरोखे के अन्दर चाँदी का नगाड़ा रखा हुआ है, जिसे आरती के समय प्रातः व सायं बजाया जाता है। आगे मन्दिर में दायीं ओर महालक्ष्मी व बायीं ओर महाकाली के काँच में बने चित्र हैं। सामने जो मूर्ति है, वह शिला देवी के रूप में प्रतिष्ठित अष्ट भुजाओंवाली दुर्गा माँ की मूर्ति है, जिसे महाराजा मानसिंह प्रथम 16वीं शताब्दी के अंत में पूर्वी बंगाल से लाए थे। एक मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि यह मूर्ति समुद्र में पड़ी हुई थी और राजा मानसिंह इसे समुद्र में से निकालकर लाये थे। यह मूर्ति शिला के रूप में काले रंग की थी। राजा मानसिंह ने इसे आमेर लाकर विग्रह शिल्पांकित करवाकर प्रतिष्ठित करवा दिया। प्रतिष्ठा के समय मूर्ति पूर्वाभिमुख थी, लेकिन तभी जयपुर नगर की स्थापना किये जाने पर इसके निर्माण में अनेक विघ्न उत्पन्न होने लगे। तब राजा जयसिंह ने अनुभवी पण्डितों से सलाह करके मूर्ति को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवा दिया जिससे जयपुर के निर्माण में कोई अन्य विघ्न उपस्थित न हो, क्योंकि मूर्ति का मुख एक ओर झुका हुआ है। जिसके कारण मूर्ति की दृष्टि शहर पर तिरछी पड़ रही थी। इस मूर्ति को वर्तमान गर्भगृह में प्रतिष्ठित करवाया गया जो उत्तरमुखी है।


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