योग में कुण्डलिनी और हृदय शास्त्रीय चिन्तन

गत कुछ दशकों में ‘योग’ शब्द विश्वभर में सुविदित हो गया है। इसकी विश्वजनीन ख्याति का आधार तो योगासनों से मानव को होनेवाले लाभ ही प्रमुखतः माने जा सकते हैं। विश्व के अधिकतर देशों ने वर्ष के सबसे बड़े दिन (21 जून) को योग दिवस के रूप में मनाए जाने के भारत के प्रस्ताव का समर्थन देकर योग को जब से वैश्विक बनाया है, तब से उस दिन योगासनों का प्रदर्शन ही भारत तथा अन्य देशों में प्रमुखतः होता है। उसे ही आज का नागरिक 'योगा' कहता है। मैं विनोद में बहुधा कहा भी करता हूँ कि हमारे छहदर्शनों में से एक ‘योग’ जब से विदेश यात्रा करके अंग्रेज़ बनकर 'योगा' नाम से विख्यात हुआ, तब से घर-घर में लोकप्रिय हो गया। आज इसकी पहचान आसन और प्राणायाम के रूप में ही अधिक है, किन्तु ये दोनों तो आठ अंगवाले (अष्टांग) योग के केवल दो अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- इन आठ अंगों को तो योग का सामान्य स्वरूप माना जाता है, किन्तु हमारे छह आस्तिक दर्शनों में से एक योगदर्शन का स्वरूप इन आठ अंगों से कहीं ऊपर उठकर परम तत्त्व के ज्ञान से जुड़नेवाले चिन्तन और अभ्यास से सम्बद्ध है जो मानव जीवन की संजीवनी है। इसका सर्वाधिक स्पष्ट प्रमाण है।


इसका सर्वाधिक स्पष्ट प्रमाण है। भगवद्गीता, जो सदियों से भारतीय मनीषा का कालजयी और प्रेरक अमृत-स्रोत रही है। अपने आपको ‘योगशास्त्र' कहकर गौरवान्वित होती है। भवद्गीतात्सु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे प्रत्येक अध्याय के अन्त में अभिलिखित है। गीता ब्रह्मविद्या । और योगशास्त्र है। यहाँ योग से तात्पर्य वह योग नहीं है जो व्यायाम के रूप में आसन और प्राणायाम करवाता है। यहाँ योग का बहुत व्यापक अर्थ है। कुछ संकेत तो स्वयं गीता में ही उपलब्ध है- योगः कर्मसु कौशलम्, समत्वं योग उच्यते, योगो नष्टः परन्तप- ऐसी शतशः अभिव्यक्तियाँ ‘योग’ शब्द को अत्यन्त व्यापक अर्थ देती हैं। संस्कृत के शब्दकोशों में तो योग के शतशः अर्थ और तात्पर्य व्याख्यात मिल जाएँगे।



 


योग मानव जीवन को परम तत्त्व से जोड़नेवाली विद्याएँ बतानेवाला दर्शन रहा है। हमारे छहों दर्शन (इनके अतिरिक्त तीन नास्तिक दर्शन भी) ज्ञान के सभी आयामों की स्पष्ट व्याख्या करनेवाले शास्त्र हैं। इनमें सांख्य समस्त सृष्टि का विज्ञान है, योग सृष्टि का और उसके नियन्ता का भी ज्ञान देनेवाला विज्ञान माना जाता है। यह जानकर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हमारे छह आस्तिक दर्शनों में भी तीनसांख्य, मीमांसा और वैशेषिक- ईश्वर को नहीं मानते। योग, वेदान्त और न्याय- ये । ईश्वर को मानते हैं। कपिल मुनि द्वारा प्रणीत सांख्य समस्त सृष्टि की व्याख्या करता है, किन्तु कोई ईश्वर इसे बनाता है या बिगाड़ता है, ऐसा नहीं मानता। योगदर्शन ईश्वर को मानता है, अतः उसे ‘सेश्वर सांख्य' कहा गया है। यह भी एक कारण है कि दुनिया को सांसारिक आपाधापी से ऊपर उठकर किसी। परम तत्त्व से उन्मुख होने का उपदेश देनेवाले शास्त्र को अधिक वाञ्छनीय माने जाने के कारण योग के प्रति श्रद्धा की उद्भावना करना भारतीय मनीषा को अधिक ग्राह्य हुआ, अतः योग और योगी भारत में अधिक पूज्य हुए। योग-सम्बन्धी प्राचीन चिन्तन में एक संज्ञा ‘कुण्डलिनी' भी आती है जो अपेक्षाकृत अल्पज्ञात रही है।