यूरोप के रोमनी' भारतीय

रोमनी एक घुमंतू जाति है, यो रही है। वह यूरोप के सभी देशों में । फैली हुई है। इतना ही नहीं, वह यूरोपीय लोगों के साथ-साथ अमेरिका और और दूसरे मुल्कों में भी पहुँची है। उनकी संख्या पचास लाख से कम नहीं होगी। लोली और दूसरे नाम से रोमनी लोग पश्चिमी एशिया में भी हैं। पश्चिमी यूरोप में उनका घुमंतू और स्वच्छंद जीवन पहले से भी खत्म होने लगा था और रूस में सोवियत-क्रान्ति के बाद वे जगह-जगह बसने लगे। पश्चिमी यूरोप में, विशेषतः इंग्लैण्ड में, बहुत कुछ वे अपनी भाषा छोड़ चुके हैं और स्थायी अधिवासी बन साधारण जनता में करीब-करीब हजम हो चुके हैं। घुमंतू जीवन के साथ भी उन्होंने अपनी भाषा और बहुत अशों में अपने रंगरूप को भी सुरक्षित रखा था। उनके लिये पहले राजनीतिक सीमा भी बाधक नहीं थीऔर वे हर साल अपनी घोडागाड़ियों और तंबुओं के साथ सैकड़ों कोस चले जाते थे। वे अपनी विचरण-भूमि की कई भाषाओं पर अधिकार रखते हुए भी अपनी मूल भाषा को कायम रखे हुए थे, इसका यह मतलब नहीं कि उनकी भाषा में दूसरी भाषा के शब्द नहीं आये। आए अवश्य, लेकिन उनकी मूल भाषा रोमनी (हिंदी) बराबर बनी रही। तो क्या पचास लाख हिंदुस्तानी यूरोप के भिन्न-भिन्न देशों में फैले हुए हैं। हाँ, पिछले सौ साल के अनुसन्धान ने पश्चिमी विद्वानों के समक्ष यह प्रमाणित कर दिया है। इसे आप भी उनके उद्धत गीतों और शब्दों को देखकर मान लेंगे।



वे अपने लिये 'रोमनी' या 'रोम' नाम इस्तेमाल करते हैं, लेकिन दूसरे लोग उन्हें जिप्सी' (इंग्लैण्ड), सिगान' (रूस), लोली' (ईरानी प्रदेश) आदि नामों से पुकारते हैं। विद्वानों ने यह भी माना है कि 'रोम' शब्द 'डोम' का ही अपभ्रंश है। लेकिन डोम' को संकुचित अर्थ में न लेना चाहिए। डोम हमारे यहाँ घुमंतुओं की सिर्फ एक जाति का नाम है, जिनमें से कुछ स्थायी अधिवासी भी हो गए हैं और कुछ घूमा करते हैं। वे तब भी बराबर घूमा करते थे, जब भारत की भूमि बसी नहीं थी, अर्थात् जनसंख्या कम थी और वन-प्रांतर अधिक थे। आबादी बढ़ने के साथ ही उनके स्वतंत्र भ्रमण में रुकावट हुई। खानेपीने की तकलीफ़ों ने जीविकार्थ दूसरे तरीकों को स्वीकार करने के लिये बाध्य किया, जिससे आगे चलकर उन्हें जरायमपेशे के गड्ढे में गिरना पड़ा और कितने लोग समझने लगे कि चोरी और अपराध उनके रक्त में है। उन्होंने उनकी आर्थिक मजबूरियों की ओर ध्यान नहीं दिया। अस्तु।


डोम के अतिरिक्त और भी घुमंतू जातियाँ हमारे देश में हैं। कितने ही बंदरभालू नचाते हैं, कितने ही मदारी का खेल दिखलाते हैं, कितने ही नट का खेल करते हैं और भाग्य भाखते हैं। कितने ही नट हैंजो आल्हा गाते और कुश्ती सिखलाते हैं। इसी तरह कँगड़े, बंगाली (मुजफ्फरनगर जिले में), गदहिया (दरभंगा जिले में), बनजारे आदि भी इसी घुमंतू जाति में शामिल हैं। भारत से बाहर के रोमनी इन सब भारतीय घुमंतुओं के प्रतिनिधि हैं। वहाँ उनका पेशा नाचना-गाना, बंदर-भालू नचाना, घोड़फेरी करना, हाथ देखना, आदि रहा है। ये सभी पेशे आज भी भारतीय घुमंतुओं में देखे जाते हैं।


रोमनी कब भारत से बाहर गए, इस विषय में बहुत-से मत हैं। जिसका अर्थ यह है कि रोमनी ईसा की छठी सदी से पहले हिंदुस्तान से गये थे। लेकिन उनको भाषा का उदाहरण देकर प्रमाणित करते हैं कि वह समय इतना प्राचीन नहीं हो सकता। उसे ग्यारहवीं-बारहवीं सदी से पहले ले जाना बिलकुल सम्भव नहीं मालूम पड़ता। यह बात उनकी शब्दावली और उनके क्रियापदों से स्पष्ट हो जाती है। वैसे तो वे लोग इससे बहुत पहले भी अफगानिस्तान, ईरान और मध्य एशिया में घूमते-फिरते रहे होंगे, जैसा कि उनके भाई-बंधु ‘ईरानी' । आज भी हिंदुस्तान में घूमते-फिरते देखे जाते हैं। लेकिन मुसलिम-युग से पहले भारत के साथ उनका संबंध बराबर बना रहा, उनका यहाँ आना-जाना लगातार लगा। रहा, इसीलिये भाषा का संबंध भी अक्षुण्ण । बना रहा। जान पड़ता है, एक ऐसा समय आया, जब भारत से उनका संबंध टूट गया, भारत से बाहर गए रोमनी फिर भारत में फेरा नहीं दे सके। धीरे-धीरे वे पश्चिम की ओर बढ़ते हुए यूरोप में छा गए। ऐसा करने में उन्हें सदियाँ लगीं और जिन देशों से होकर वे गुजरे, उनके कितने ही शब्द उनकी भाषा में मिल गए। पन्द्रहवींसोलहवीं सदी में वे यूरोप में ज़रूर पहुँच गए थे।


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