लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र

शहर में क्या पूरे प्रदेश में हलचल है। वैसे यह हलचल यदाकदा दो- चार महीने में समुद्री ज्वार-भाटा की भाँति उठती गिरती है कि “लोकतंत्र खतरे में है' या ‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गयी है'' यह उसी तरह है जब पाकिस्तान इस्लाम में हो जाता है। जब-जब देश में चुनाव होते हैं तब-तब लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगता है। चुनाव और लोकतंत्र, ये हैं तो सगे भाई, पर दिखते दुश्मन जैसे हैं। लोकतंत्र है तो चुनाव है, और चुनाव है तो लोकतंत्र भी रहेगा। पर देश में हर पार्टी का अपना लोकतंत्र है, जो कभी लाल हरे, केशरिया हरे तो कभी तीन रंगों में रंगे हैं। सभी पार्टियों ने लोकतंत्र को अपने रंग में रँगकर, लोकतंत्र की दुकान सजा ली है। वे अपने-अपने तरह से लोकतंत्र की मार्केटिंग कर रहे हैं। लोकतंत्र इनके हाथ में है। आज लोकतंत्र शोकेश का पीस बन गया है।



लोग उसे देख सकते हैं पर महसूस नहीं कर सकते हैं। यह सब सोच रहा था कि भाई रामलाल आ धमके-नमस्कार! मैंने उन्हें सदा की भाँति हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई। वे इस मुद्रा को व्यंग्य समझते हैं, पर इसके उत्तर में दुबारा नमस्कार कह जवाब भी देते हैं। “कहिये क्या समाचार है।'' मैंने उनसे पूछा, तब उनका जवाब आया-गुप्ता जी का फोन आया है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई। वे बता रहे थे कि किसी कद्दावर नेता ने किसी चैनल पर कहा है। पर भाई साहब, मुझे लगता कि यह खबर सही है। इस पर मुझे संदेह है, गुप्ता कभी-कभी लम्बी फें कता है। जब कोई गंभीर मामला होता है तभी वह फोन करता है, वरन वह सिर्फ मिस-कॉल करता है। उसकी बैटरी मिस- कॉल में खर्च हो जाती है। तब मैंने रामलाल को रोकते हुए कहा-अरे ऐसा नहीं हो सकता। वरना अब तक शोर मच गया होता। मेरी बात को बीच में काटते हुए उन्होंने कहा-भाई साब, आप किस दुनिया में रहते हैं, हल्ला मच गया है। गुप्ता कह रहा था वाट्सऐप, फेसबुक, ट्यूटर पूरे सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा है।


मैंनेकहा-रामलाल अभी तो सुबह के सात बजे हैं और लोग ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा-भाई साब, अब कट, कॉपी और पेस्ट का ज़माना है, हवा फैलाते देर नहीं लगती है। फिर भी मुझे गुप्ता पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने अपने मुहल्ले के राजनीतिक विशेषज्ञ नागपुरकर को फोन लगाया। तब उसने बताया कि ऐसी कोई खबर नहीं है। नागपुरकर तो राजनीति का एंटीना है, वह इस तरह की खबर जल्दी पकड़ता है। उसकी ना सुनकर यह लगा कि वह भी फेल हो गया है। अचानक रामलाल जी को स्मरण आया और उन्होंने अंदर की और इशारा किया-‘‘चाय कहाँ है?'' मैंने भी निश्चिंत रहो का इशारा किया। चाय आ रही है। हमारे घर में रामलाल जी की आवाज सुनकर सब लोग उनके लिए चाय-नाश्ता की तैयारी में लग जाते हैं, वरना वे इसके बिना खिसकते नहीं है। यह सब चर्चा तो उनके लिए चाय का बहाना है। जब वे आश्वस्त हो गये तब उन्होंने कहा-“तब मैंने स्वयं दो-तीन चैनल पलटाये, सब जगह अपनी-अपनी चिंताएँ, अपने-अपने राग बज रहे थे, पर लोकतंत्र की खबर नहीं थी।'' ऐसा लगता है वे लोकतंत्र को लेकर निश्चिंत हैं।


उनका लोकतंत्र मजबूत है, कोई भी उसे कुछ भी कहला सकता है। पूरा लोकतंत्र उन्होंने नेताओं पर छोड़ दिया है। वे (मीडिया) तो बस जनता के मनोरंजन के लिए बने हुए हैं। मैंने उन्हें रोका-चाय आ गयी है। चाय देखकर वे तुरन्त रुक गये। उनकी नजरें नाश्ते की प्लेट को ढूँढ़ रही थीं। नाश्ता भी आया, तब नाश्ता और चाय लेकर वे कहने लगे-एक चैनल में लोकतंत्र की हत्या पर कुछ लोग बतियाते हुए दिख रहे थे, पर उनके चेहरे शांत, प्रसन्न और निर्विकार थे। जैसे वे लोकतंत्र के संन्यासी हों। उन्हें उससे कोई लेना-देना नहीं। वे अपना काम समान भाव से कर रहे थे। उनके सामने चाय के कप रखे थे। फिर भला आप ही सोचिए, लोकतंत्र या किसी की भी हत्या हो जाय तो दुःख के बजाय कोई बेशर्मी से चाय पी सकता है, क्या?। फिर मैंने सोचा यह खबर सही नहीं है। 


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