राष्ट्रभाषा के महत्व को समझें

जो विद्वान् व सभ्यजन अपने को आधुनिक वैज्ञानिक सभ्यता व संस्कृति का सदस्य मानते हैं, वे भी भूल जाते हैं कि मातृभाषा व राष्ट्रभाषा का एक व्यक्ति के जीवन में क्या स्थान होता है। यहाँ पर वे भी अवैज्ञानिक, पाखण्डी एवं अंधे अनुयायी बन जाते हैं। वैज्ञानिक रूप से किसी भी बच्चे को मातृभाषा की बजाय एक विदेशी भाषा में शिक्षा देना उसकी सुप्त क्षमताओं को और भी गहरे तलों पर दमित कर देना है। बच्चों की क्षमताओं को नष्ट कर देना मातृविहीन भाषा का एक खतरनाक एवं घातक दोष है। अंग्रेजी भाषा में विज्ञान व चिकित्सा तथा तकनीकी शिक्षा होने के कारण भारत का बहुत बड़ा वर्ग इनकी शिक्षाओं से वंचित रह जाता है। अंग्रेजी भाषा को न जानने का कारण वे ज्ञान-विज्ञान से वंचित रह जाते हैं। इसके बारे में ये मूढ़ राजनीतिज्ञ व शिक्षाशास्त्री क्यों नहीं विचार करते हैं?



अंग्रेजी भाषा का गुणगान करनेवाले यह जान लें कि महाकवि तुलसीदास ने अपने साहित्य में छत्तीस हजार शब्दों का प्रयोग किया है, जबकि अंग्रेजी-भाषा के अग्रणी कवि शेक्सपियर ने अपने साहित्य में पैंतीस हजार शब्दों का प्रयोग किया है। जिस तरह अनपढ़ ग्रामीणों तक, चरवाहों तक व सामान्य जन तक तुलसी की चौपाइयों व दोहों की पहुँच व पकड़ है, वह शेक्सपियर की नहीं है- न पश्चिमी देशो में न अन्य देशों में। कबीर, रहीम, नितानन्द, गरीबदास आदि के सम्बन्ध में भी यही बात है। इस समय भी पूरे विश्व में हिंदी को मातृभाषा लिखवानेवालों की संख्या 36 करोड़ तथा अंग्रेज़ी को मातृभाषा लिखवानेवालों की संख्या 35 करोड़ है। पूरे विश्व में हिंदीभाषी लोगों की संख्या 50 करोड़ है व अंग्रेजीभाषी लोगों की संख्या 40 करोड़ है। विश्व में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा मंदारिन (चीनी) है। दूसरा स्थान हिंदी का व तीसरा अंग्रेजी का है। इसमें भी मंदारिन की हालत यह है कि इसे दो स्थानों के चीनी लोग नहीं समझ सकते, हिंदी में यह दुविधा नहीं है।


अंग्रेजी ने विश्व में अपना जो महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है, वह उसके वैज्ञानिक होने के कारण या सर्वगुणसंपन्न होने के कारण नहीं, अपितु उपनिवेशवाद ही उसका कारण है। इस भाषा को जबरदस्ती थोपा गया था। कभी ऐसा फ्रेंच-भाषा के साथ भी था, जब फ्रांस महाशक्ति हुआ करता था। हिंदी को सरकारी संरक्षण न कभी पहले मिला, न वर्तमान में मिल रहा है। फिर भी अपनी कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं तथा अपनी वैज्ञानिक व सरल पद्धति के बल पर हिंदी-भाषा ने सम्पर्क भाषा का स्थान प्राप्त किया है तथा विदेशों में भी यह फल-फूल रही है। हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है- यह राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय भाषा का स्थान बना चुकी है। यदि सरकारी रुकावटें इसमें आड़े न आएँ, तो हिंदी का प्रचार-प्रसार सरलता से हो जाए।


यह भी एक हास्यास्पद एवं मूढ़तापूर्ण बात है कि दो शताब्दियों के अंग्रेजों के प्रयास एवं विगत सत्तर वर्ष के भारतीय राजनीतिज्ञों एवं पाश्चात्य सभ्यता के समर्थकों के प्रयास के बावजूद भारत की कुल आबादी के एक प्रतिशत हिस्से को ही अंग्रेजी-भाषी बना सके हैं। मातृभाषा की जगह विदेशी भाषा को ज़बरदस्ती लादने का ही यह फल है। कितने दुःख व पीड़ा की बात है कि इसके बावजूद भी मूढ़ व विदेशियों के अंधभक्त अंग्रेज़ीभाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की हिमायत कर रहे हैं।


जो दो वर्ग अंग्रेजी एवं भारतीयों केआजादी से पहले थे- वे ही दो वर्ग भारत में अब भी हैं, चाहे अंग्रेज़ भारत से चले गए हों। फूट, वर्ग-भेद एवं वैमनस्य के बीज वे हमारे देश में बो गए हैं। इसमें हम भी बराबर के दोषी हैं। पहले गोरी चमड़ी के अंग्रेज़ अपने को उच्च वर्ग का एवं सभ्य मानते थे, अब अंग्रेजी पढ़े लोग स्वयं को अन्य भारतीयों से विशेष, सभ्य, सुसंस्कृत, उच्च एवं सुविधाभोगी मानते हैं। यह वर्ग स्वयं को प्रथम स्तर का व अन्यों को दूसरे स्तर का नागरिक मानता है। वर्ग-भेद उनकी प्रतिष्ठा, अहम् व अकड़ हेतु ज़रूरी है। इस अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग ने बड़े-बड़े पदों पर कब्ज़ा कर रखा है। देश के नीति-निर्माता एवं भाग्यविधाता ये स्वयं को ही मानते हैं, और यह सच भी है। इस तथाकथित उच्च वर्ग का एक षड्यंत्र है कि हिंदी-भाषी या अन्य मातृभाषी भारतीयों को उच्च पदों तक न पहुँचने दिया जाए। अंग्रेजी-भाषा को उन्होंने अपना हथियार बनाया है ताकि वे अपने कुचक्र में सफलता प्राप्त कर सकें।


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