सोमनाथ मन्दिर के शिल्पकार

हिंदू-संस्कृति में शैव सम्प्रदाय की प्राचीनता का अनुमान हमें सोमनाथ मन्दिर से पता चलता है। सोमनाथ का भव्य मन्दिर गुजरात के पश्चिमी छोर पर वेरवाल बंदरगाह के निकट प्रभासपाटन में स्थित है। इस मन्दिर का नाम ‘सोमनाथ मन्दिर भगवान् शिव द्वारा सोम अथवा चंद्र देवता को दिए गए एक वरदान के कारण पड़ा। यहाँ भगवान् शिव को ‘सोमनाथ' के नाम से पूजा जाता है। इस मन्दिर को भगवान् शिव के प्रमुख 12 ज्योतिर्लिंग मन्दिरों में से एक माना जाता है। इस मन्दिर का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। शिवपुराण के अनुसार सोमनाथ ज्योतिर्लिंग को भगवान शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग माना जाता है।


यह मन्दिर चालुक्य शैली में निर्मित है और इसका मुख्य शिखर 15 मीटर ऊँचा है। इस मन्दिर की स्थिति बहुत ही अनोखी है। जहाँ यह मन्दिर बना हुआ है, उसके समक्ष अंटार्कटिका तक कोई भूमि अथवा स्थल नहीं है। इस मन्दिर की स्थिति को अत्यन्त पावन माना जाता है, क्योंकि यह तीन नदियों- कपिला, हिरण और सरस्वती के अभिसरण स्थल पर बना हुआ है। यही वह जगह है जहाँ भगवान् शिव की अनुकम्पा से चन्द्रमा को अपने शाप से मुक्ति मिली और वह पुनः पूरी चमक के साथ आकाश में चमकने लगा। इसलिए इस स्थान का नाम ‘प्रभासपाटन' पड़ा। शुक्ल पक्ष के दौरान चंद्रमा अपनी पूरी चमक के साथ इस स्थान को आलोकित करता है।



सोमनाथ मन्दिर ऐसा कहा जाता है कि यह मन्दिर सर्वप्रथम चन्द्रमा, उसके पश्चात् रावण और भगवान् कृष्ण द्वारा भगवान् शिव की आराधना में निर्मित किया गया था। इस मन्दिर ने कई विनाश देखे, परन्तु हर बार यह अविनाशी सिद्ध हुआ। इस मन्दिर का अब तक कई बार पुनर्निर्माण किया जा चुका है।


वर्तमान सोमनाथ मन्दिर का नवनिर्माण सरदार वल्लभभाई पटेल की वचनबद्धता का परिणाम है। ‘सोमनाथ मन्दिर का नवनिर्माण अध्ययन के दौरान मुझे ‘सरदार लेटर्स : मोस्टली अननोन', भाग 1, पृ. 259, मणि बेन पटेल एण्ड जी.एम. नन्दुरकर द्वारा अनुदित पत्र पढ़ने को मिला जो इस प्रकार है-


प्रिय श्री ननजी भाई, मणि बेन ने 17 तारीख का आपका लिखा पत्र मुझे दिखाया, मैं आपका शुक्रगुजार हूँ कि आपने सोमनाथ के जीर्णोद्धार की मेरी वचनबद्धता को पूरा करने के लिए मेरे जन्मदिन पर 73, 1 0 0 रुपये का चन्दा एकत्र किया। मन्दिर के वास्तव में व्यावहारिक रूप से लगता हैं। कि आप अपनी जेब से ही यह चन्दा दे रहे हैं, क्योंकि इसमें 51,000 रुपये तो आपने खुद ही दिए हैं और बाकी चन्दा भी आपके कुछ निकटतम लोगों से मिला है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि कीर्ति मन्दिर में काम ठीक तरह से आगे बढ़ रहा है।


आशा है, सानन्द होंगे!


आपका शुभचिंतक वल्लभभाई श्री ननजी कालीदास मेहता, पोरबन्दर, 21 नवम्बर, 1948 (मूल : गुजराती)


(मूल : गुजराती) सरदार पटेल ननजी कालीदास मेहता के पत्र को पढ़कर जूनागढ़ से सोमनाथ गये। सोमनाथ मन्दिर की बेहद जीर्ण-शीर्ण स्थिति देखकर सरदार पटेल का दिल रोने लगा। नवानगर के जाम साहब (सौराष्ट्र संघ के राजप्रमुख) से एक-दो शब्द कहकर सरदार पटेल समुद्र तट की ओर चले गये। उन्होंने अपने हाथ में कुछ जल लिया और उसे पृथिवी को समर्पित करते हुए धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में बोले कि इस मन्दिर का पुनर्निर्माण किया जायेगा और फिर से इसका गौरव बहाल होगा। बिजली की तेजी से यह समाचार देश के कोने-कोने में फैल गया और देश की लाखों जनता के चेहरे पर खुशी छा गयी। यह वह क्षण था जब सरदार पटेल ने मन्दिर के नवनिर्माण की स्वीकृति प्रदान कर दी।


सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण में तत्कालीन केन्द्रीय कार्य मंत्री एन.वी. गाडगिल अपने शब्दों को याद करते हुए कहते हैं- 1 नवम्बर, 1947 को सरदार पटेल और मैं सोमनाथ गये। वहाँ मैंने मन्दिर- पुनर्निर्माण के बारे में सोचा और सरदार से यह बात कही, उन्होंने उसे स्वीकृति दी। मन्दिर के मुख्य द्वार पर खड़े होकर मैंने भारत सरकार से मन्दिर का पुनर्निर्माण करने की घोषणा की। मैंने कहा कि हमारी स्वतंत्रता रचनात्मक है, विध्वंसक नहीं। वहाँ एकत्र हजारों श्रद्वालुओं ने इस घोषणा का जयकारे के साथ स्वागत किया। एक घण्टे बाद वल्लभभाई ने देवी अहिल्याबाई होलकर द्वारा बनाए मन्दिर में यही घोषणा की। तुरन्त ही दस लाख रुपये मिलने का आश्वासन प्राप्त हो गया और इससे बड़ी बात क्या होगी कि संघबद्ध सौराष्ट्र का विचार भी बन गया। नवानगर के जाम साहब ने सरदार पटेल से वार्ता की और दो माह के अन्दर अलग- अलग छोटी-बड़ी 342 रियायतों के साथ- साथ सौराष्ट्र रियासत का भी विलय संघ में हो गया।


‘मौलाना आजाद ने कहा कि इस स्थान को उसी स्वरूप में संरक्षित । किया जाये। मैंने कहा कि मन्दिर उसी पुराने मूल गौरव को प्राप्त होगा। और इस तरह से हिंदू और मुस्लिमों के बीच अविश्वास की दीवार मिटा दी जायगी।


सोमनाथ मन्दिर पुनर्निर्माण के लिए काठियावाड़ में हमें सोमपुरा समुदाय के कारीगर मिले जो पत्थरों पर उसी तरह की नक्काशी और चित्रण कर सकते थे, जैसा प्राचीन काल में चालुक्य शैली में सोमनाथ मन्दिर में हुआ करता था। मैंने उन्हें मन्दिर के पुनरुद्धार में सहायता के लिए लगाने का निश्चय किया। वल्लभभाई और मैंने इस उद्देश्य के लिए 50 लाख रुपये इकड़े किये। इससे पूर्व यह कार्य केन्द्र सरकार के जरिये कराने का निश्चय किया गया था। लेकिन नेहरू ने इसे स्वीकृति नहीं दी। गाँधी जी की सलाह पर यह काम किसी ऐसे ट्रस्ट को देने का निश्चय किया गया जिसमें केन्द्र सरकार का एक प्रतिनिधि हो।।


भारत सरकार ने कार्य की निगरानी के लिए दो इंजीनियर और वास्तुशिल्पी की समिति बनायी। सन् 1951 तक मन्दिर के पूरे आधार के साथ-साथ आंतरिक वेदी भी तैयार हो चुकी थी। हमने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद से आग्रह किया कि वह लिंगम् के। प्रतिष्ठापन में प्रमुख प्रतिभागी बने। हमने उन्हें योजना के इतिहास और प्रगति के बारे में। एक नोट दिया और वे पवित्र समारोह में भाग लेने पर सहमत हो गये।


‘उसी समय पाकिस्तानी समाचार-पत्र ने इस काम (सोमनाथ के पुनरुद्धार) के विषय में शोरगुल मचाना शुरू कर दिया। और कहने लगे कि वह एक और महमूद गजनी पैदा करेंगे और मन्दिर को फिर से ध्वस्त करेंगे।


‘मन्दिर-समारोह के लिए नेहरू ने कहा कि राष्ट्रपति समारोह में शामिल नहीं होवें। मंत्रिमण्डल में भी इस विषय पर चर्चा हुई। मैंने मुंशी से कहा कि अगर इस पूरे मामले के लिए कोई ज़िम्मेदार है तो वह मैं और वल्लभभाई हैं, जिन्होंने मेरा समर्थन किया था। इसलिए मैं मंत्रिमण्डल के सामने पूरा मामला स्पष्ट करूंगा।


'मैंने मंत्रिमण्डलीय रिपोर्ट का हवाला देकर साबित किया कि नेहरू का यह आरोप सही नहीं है कि सारा कार्य मंत्रिमण्डल को सूचित किए बिना किया जा रहा था। मौलाना आज़ाद और जगजीवन राम ने कहा कि मामले पर चर्चा हो चुकी है। भारत सरकार इस कार्य पर सौ हज़ार रुपये खर्च कर चुकी है। मैंने बात उठाई कि सरकार हज़ारों मस्जिदों और मकबरे को सब्सिडी और अनुदान देती है। और अगर थोड़ा धन हिंदूमन्दिर के पुनरुद्धार पर खर्च कर दें, तो इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। मैंने धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्म में समानता । ही समझा था।


‘सोमनाथ मन्दिर के नवनिर्माण से सरकार को लाखों लोगों की सद्भावना हासिल हुई और इससे सौराष्ट्र प्रांत का निर्माण आसान हो गया। लाखों हिंदू मूर्तिपूजा करते हैं और सब नेहरू की तरह बुद्धिजीवी नहीं हैं। हममें से कुछ दृढ़ आस्था की कमजोरी के शिकार होते हैं। यह चर्चा यहीं समाप्त हो गयी। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद समारोह में शामिल हुए। मैं समझता हूँ कि वह अपने निर्णय पर दृढ़ थे। उन्होंने नेहरू को अपना निर्णय बता दिया था। जरूरत पाने पर वह अपने गरिमामय पद से त्याग-पत्र देने को भी तैयार थे।


‘काश! वल्लभभाई पटेल कुछ समय और जीवित रहते तो भारत में हिंदू-मन्दिरों का और पुनर्निर्माण होता।' (एन.वी. गाडगिल, गवर्नमेंट फ्रेम इनसाइड, मीनाक्षी प्रकाशन, मेरठ, 1968, पृ. 59-60, 185-186)।