लौहपुरुष को सच्ची श्रद्धाञ्जलि राष्ट्रीय एकता और शक्ति

लाैहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल, स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी रहे हैं। खेड़ा और बारडोली के किसान-आंदोलनों में उन्होंने अपने कुशल साहसिक नेतृत्व से सारे देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था। वे महात्मा गाँधी के निकट सहयोगी और काँग्रेस पार्टी के शीर्षस्थ नेता के रूप में समादृत थे। उन्होंने देश के संविधान- निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। वे स्वतंत्र भारत के उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे। पर सारा देश उन्हें देशी रजवाड़ों का भारत में विलय कराने में उनके अद्भुत योगदान के लिए उनका सदैव ऋणी रहेगा। विभाजन, शरणार्थी-समस्या, विधि-व्यवस्था की कठिन जिम्मेवारी सँभालने के साथ-साथ, अनेक जटिल समस्याओं से जूझते हुए हमारे सद्यःस्वतंत्र देश का एकीकरण करने और उसे सुदृढ़ता प्रदान करने में उनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। अपने विलक्षण गुणों- दूरदर्शिता, दृढ़ इच्छाशक्ति, कर्मठता, अपने उद्देश्य के प्रति अटूट निष्ठा और अपनी प्रशंसनीय प्रशासनिक क्षमता के बलबूते पर उन्होंने अत्यंत अल्प समय और निष्करुण विषम परिस्थितियों में जो कर दिखाया, वह उनके अतिरिक्त शायद ही कोई कर पाता! एक गहन तमिस्त्रा से दीर्घकाल तक आच्छादित देश को प्रकाश-पुञ्ज की ओर लानेवाले साहसी एवं त्यागी कर्मयोगियों में लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम है।



आज जिनके द्वारा एकीकृत किये गये जिस भारत में रहने का सौभाग्य और गर्व हमें प्राप्त है, उसके लिए विगत पीढ़ी, हमारी वर्तमान पीढ़ी और आनेवाली संततियों को उनका सदैव ऋणी रहना चाहिये। यह बात भी सत्य है कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में उनके प्रति सम्मान और आदर का भाव है; पर सरदार के प्रति हम अपनी सार्थक कृतज्ञता कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं? आधुनिक भारत के संगठनकर्ता के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाञ्जलि क्या होगी?


प्रायः महापुरुषों के प्रति हम अपनी श्रद्धाञ्जलि उनके चरण-चिह्नों पर चलने, उनके द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने और उनके सपनों को पूरा करने की अभिव्यक्ति से अर्पित करते हैं। पर, अपनी इन पवित्र और निश्छल भावनाओं को हम अपने व्यावहारिक जीवन में कितना अपना पाते हैं? क्या कृतज्ञ भावनाओं की निर्मल अभिव्यक्ति मात्र से ही हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है? क्या हमारी श्रद्धा का कुसुम मात्र समारोहों तक ही प्रफुल्लित और सुवासित रहता है?


सरदार जैसा जीए, वैसा ही दिखे! उन्होंने अपने जीवन में कभी दोहरे मापदण्ड नहीं अपनाये- वे बिना लागलपेट के सच्ची बात कहने का साहस रखते थे। उनके साथ स्वार्थी चमचों की निर्लज्ज फौज़ नहीं रहती थी। चाहे समाजसेवा का काम हो, संगठन का उत्तरदायित्व हो या प्रशासनिक जवाबदेही हो- वे अपने लक्ष्य, निश्चय और आदर्श से कभी विचलित नहीं होते थे। किसी भी काम को अपने हाथों में लेने से पहले, वे उसकी व्यावहारिकता और बारीकियाँ समझ लेते थे।


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