आधुनिक भारत के निर्माता

गृह मंत्री के रूप में पटेल को शरणार्थियों के पुनर्वास, पाकिस्तान की ओर से काश्मीर पर आक्रमण तथा साम्प्रदायिक सौहार्द कायम करने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अखिल भारतीय सेवाओं की व्यवस्था शुरू करने का श्रेय भी सरदार पटेल को जाता है। इस नाते उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के संरक्षक संत के रूप में याद किया जाता है। आजादी के बाद असम, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल में पूर्वी पाकिस्तान के हिंदुओं के प्रवेश की भी समस्या पैदा हो गयी। इसे भी पटेल ने पाकिस्तान के साथ बातचीत तथा सुरक्षा-व्यवस्था कड़ी करके हल करने का प्रयास किया।


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक सुदृढ़ स्तम्भ और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अग्रणी नेता वल्लभभाई पटेल ने स्वतंत्र भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री के रूप में कुशल प्रशासक तथा दक्ष रणनीतिकार की ख्याति अर्जित की। किन्तु उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि 562 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय मानी जाती है। देश के राजनीतिक इतिहास में पटेल के अविस्मरणीय योगदान का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें जवाहरलाल नेहरू के साथ महात्मा गाँधी का दायाँ व बायाँ हाथ माना जाता था। स्वतंत्रतापश्चात् बनी अंतरिम सरकार में नेहरू जी प्रधानमंत्री और पटेल जी उप प्रधानमंत्री बने। कहा जाता है कि पहले से ही यह चर्चा चल पड़ी थी कि नेहरू और पटेल में से ही कोई एक प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभालेगा। गाँधी जी की इच्छा के अनुरूप सरकार में नेहरू को प्रथम और पटेल को द्वितीय स्थान मिला। कुछ इतिहासकार आज तक यह कहते हैं कि यदि उस समय पटेल को प्रधानमंत्री पद मिलता तो देश की राजनीतिक एवं आर्थिक दशादिशा भिन्न होती। यह बात अलग है कि स्वतंत्रता के लगभग 3 वर्ष बाद ही 15 दिसम्बर, 1950 को 75 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। किन्तु स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी अग्रणी भूमिका के पश्चात् तीन वर्षों के छोटे-से कालखण्ड में ही पटेल ने अपनी । व्यावहारिक एवं सकारात्मक सोच तथा दृढ़ व्यक्तित्व के कारण “लौहपुरुष' का खिताब अर्जित किया। इससे पहले बारडोलीआन्दोलन का सफल नेतृत्व करने पर उन्हें 'सरदार' की उपाधि से नवाज़ा गया था। इस तरह उन्हें भारतीय एकता के सूत्रधार लौहपुरुष सरदार पटेल के रूप में याद किया जाता है।



भारतीय जनता के हृदय सम्राट् सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नडियाड में हुआ। वह बचपन से ही बहुत स्वाभिमानी तथा कठोर स्वभाव के थे। वह छोटी उम्र में ही परिवार से अलग रहने लगे, किन्तु उनका अपने परिवार के साथ सुदृढ़ रिश्ता जीवनभर कायम रहा। उन्होंने 22 वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी इच्छा कुछ धन जमा करके इंग्लैण्ड में वकालत की पढ़ाई करने की थी। इसलिए उन्होंने भारत में कानून की डिग्री हासिल की और गोधरा में वकालत करने लगे। अपनी पत्नी झाबर बा, बेटी मणिबेन तथा बेटे डाहियाभाई पटेल के भरण-पोषण का फर्ज निभाते हुए वह उच्च शिक्षा के लिए धन भी जमा करते रहे। अपना संकल्प पूरा करने के लिए वह 1911 में 36 वर्ष की आयु में लन्दन गए तथा वहाँ मिडिल टेंपलइन में वकालत की शिक्षा के लिए प्रवेश लिया। उनकी योग्यता तथा दृढ़ इच्छा शक्ति का ही परिणाम था कि उन्होंने 36 महीने का पाठ्यक्रम 30 महीने में पूरा कर लिया और अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इंग्लैण्ड से लौटकर वह अहमदाबाद में रहने लगे। यही नगरी उनके राजनीतिक जीवन की जन्मस्थली और कर्मस्थली बनी। यों तो सन् 1917 से ही वह वकीलों और किसानों के हितों से जुड़े सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे थे, किन्तु स्वतंत्रता आन्दोलन में उनका प्रवेश गाँधीजी की प्रेरणा से उस समय हुआ जब उन्होंने खेड़ा के किसान-आन्दोलन का नेतृत्व संभाला। यह आन्दोलन गाँधी जी के नेतृत्व में चल रहा था, किन्तु उन्हें उसी समय चम्पारण के किसानों के संघर्ष का साथ देने के लिए जाना पड़ा। तब उन्होंने वल्लभभाई पटेल को इस काम के लिए चुना। पटेल ने काँग्रेस के अन्य नेताओं के साथ खेड़ा के किसानों को करों की अदायगी न करने के लिए तैयार किया और अंततः उनकी बहुत-सी मांगें मान ली गयीं। इस आन्दोलन की सफलता के बाद वह गाँधी जी के और निकट आ गए तथा काँग्रेस में सक्रिय हो गये। 1920 में वह नवगठित गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनाए गये। 1922 से 1927 के बीच वह तीन बार अहमदाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए।


खेड़ा में ग्रामवासियों को संगठित करने का उनका अनुभव 1928 में बारडोली-सत्याग्रह में काम आया जब उन्होंने अहमदाबाद नगरपालिका की जिम्मेदारी से मुक्त होकर पूरी तरह से स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया। पटेल ने चार महीनों तक अनवरत रूप से किसानों को कर का भुगतान न करने के लिए तैयार किया और आन्दोलन के लिए जनता से धन भी एकत्र किया। अगस्त, 1928 में सरकार बातचीत के लिए तैयार हो गई और पटेल ने वार्ता के कुशल संचालन के माध्यम से किसानों के कल्याण के अनेक उपायों पर ब्रिटिश शासकों को राजी कर लिया। इसी सत्याग्रह के दौरान उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली। 1931 में नमक सत्याग्रह में उन्होंने आगे बढ़कर भाग लिया। उन्हें रास गाँव में गिरफ्तार कर लिया गया। पटेल तथा बाद में गाँधी जी की गिरफ्तारी के फलस्वरूप नमक आन्दोलन और तेज होता गया। 1931 में पटेल काँग्रेस के कराची-अधिवेशन में उसके अध्यक्ष चुने गए। इसी अधिवेशन में काँग्रेस ने बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा, धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, न्यूनतम वेतन तथा अस्पृश्यता के उन्मूलन-जैसे मूल्यों को स्वतंत्रता आन्दोलन का अंग बनाने के प्रस्ताव स्वीकार किये। लन्दन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन विफल रहने पर जनवरी, 1932 में गाँधी जी और पटेल को जेल में डाल दिया गया। जेल में पटेल और गाँधी जी विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहते थे जिससे दोनों के बीच वैचारिक तथा व्यावहारिक निकटता और सुदृढ़ हो गयी। 1934 तक पटेल काँग्रेस में अग्रणी नेताओं की पंक्ति में आ गए और वह पार्टी-गतिविधियों के लिए धन जुटानेवाले प्रमुख नेता बनकर उभरे। 1934 में केन्द्रीय एसेंबली और 1936 में प्रादेशिक एसेंबलियों के चुनाव के समय वह काँग्रेस के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष रहे और उम्मीदवारों के चयन में उनकी बड़ी भूमिका रही। 


सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन' का दौर आते-आते सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन' का दौर आते-आते सरदार पटेल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद तथा राजगोपालाचार्य के साथ काँग्रेस के सर्वोच्च नेताओं की श्रेणी में शामिल हो चुके थे। इन सभी ने गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन का समर्थन किया। 7 अगस्त, 1942 को काँग्रेस ने ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने का प्रस्ताव स्वीकार किया। इस दौरान स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद सरदार पटेल देशभर में घूम-घूमकर ओजस्वी भाषण देते रहे। साथ ही आन्दोलन का खर्च वहन के लिए धन एकत्र करने के काम में भी जुटे रहे। 7 अगस्त को बम्बई के ऐतिहासिक गोवालिया चौक में आयोजित एक लाख से अधिक लोगों की विशाल जनसभा को पटेल ने भी सम्बोधित किया। 9 अगस्त को उन्हें काँग्रेस के अन्य बड़े नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और 1945 तक वह अहमदनगर के किले में कैद रहे। 15 जून, 1945 को वह रिहा किए गये। 1946 में काँग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में पटेल ने गाँधी जी के आग्रह पर अपना नाम वापस ले लिया। यह चुनाव इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था कि काँग्रेस का अध्यक्ष ही स्वतंत्र भारत की पहली सरकार का नेतृत्व संभालेगा।



कैबिनेट मिशन के देश के विभाजन के प्रस्ताव पर काँग्रेस में कैबिनेट मिशन के देश के विभाजन के प्रस्ताव पर काँग्रेस में गहरे मतभेद थे। गहन विचार-विमर्श के बाद नेहरू तथा पटेलदोनों विभाजन पर सहमत हो गए। विभाजन के समय सम्पत्तियों तथा स्थानों के बँटवारे पर विचार करने के लिए बनी भारत विभाजन समिति में पटेल ने भारत का प्रतिनिधित्व किया। इसी समिति में नेहरू जी के साथ मिलकर उन्होंने भारत के भावी मंत्रिमण्डल के नाम तय किये। विभाजन के फैसले के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों तथा जनसंख्या के आदान-प्रदान से अप्रत्याशित संकट पैदा हो गया। विस्थापितों के पुनर्वास, कानून-व्यवस्था कायम करने तथा शान्ति बनाए रखने के लिए पाकिस्तान के नेताओं के साथ बातचीत करने में पटेल ने प्रमुख भूमिका निभायी। राजनीतिक तथा प्रशासनिक सूझ- बूझ का परिचय देते हुए सरदार पटेल ने शान्ति कायम करने के लिए सेना की दक्षिण भारतीय टुकड़ियों को तैनात किया ताकि निष्पक्षता से काम किया जा सके। उन्होंने दिल्ली में मुसलमानों के मन में सुरक्षा का भाव जगाने के लिए निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाकर प्रार्थना की तथा वहाँ मौजूद हज़ारों मुसलमानों को सुरक्षा का आश्वासन दिया।


आज़ादी के समय विभाजन की विभीषिका के साथ एक और विकट समस्या भी देश को विरासत में मिली। यह थी देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करना। गृहमंत्री होने के नाते यह कठिन चुनौती भी पटेल के कंधों पर आयी। गाँधी जी ने पटेल से कहा, “रियासतों की समस्या इतनी कठिन है कि इसे केवल तुम ही हल कर सकते हो।'' उन्होंने विभाजन के मामलों पर विचार के दौरान अपने सहयोगी रहे अधिकारी वी.पी. मेनन को अपने साथ लेकर 6 मई, 1947 को रियासतों के एकीकरण का अभियान प्रारम्भ किया। रियासतों के शासकों से मान-मनौव्वल और समझाने-बुझाने के फलस्वरूप जम्मू- काश्मीर, जूनागढ़ तथा हैदराबाद को छोड़कर सभी रियासतें 15 अगस्त, 1947 तक भारत से जुड़ने पर सहमत हो गयीं। पटेल ने जूनागढ़ तथा हैदराबाद को पुलिस- कार्रवाई के बल पर भारत में शामिल कर लिया और काश्मीर के महाराजा हरि सिंह को मनाकर कुछ शर्तों के साथ काश्मीर को तक भी भारत में मिला लिया। किन्तु जम्मूकाश्मीर पर पाकिस्तान की ओर से कबायली हमला हो जाने से रियासत के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया। और इसने अन्तरराष्ट्रीय विवाद का रूप ग्रहण कर लिया। काश्मीर का मुद्दा आज तक भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का मुख्य कारण बना हुआ है। रियासतों के एकीकरण के कठिन व चुनौतीपूर्ण कार्य सम्पन्न करने के लिए सरदार पटेल की तुलना जर्मनी में ऐसा ही काम करनेवाले नेता बिस्मार्क से की गई और उन्हें भारत का बिस्मार्क' कहा गया। संविधान सभा के सदस्य के रूप में भी पटेल ने उपयोगी भूमिका निभायी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर को संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष बनाने में भी पटेल का हाथ था। पटेल स्वयं संविधान सभा की अल्पसंख्यकों, जनजातीय और उपेक्षित क्षेत्र, मौलिक अधिकार तथा प्रांतीय संविधान पर विचार करनेवाली समितियों के अध्यक्ष थे।


गृह मंत्री के रूप में पटेल को शरणार्थियों के पुनर्वास, पाकिस्तान की ओर से काश्मीर पर आक्रमण तथा साम्प्रदायिक सौहार्द कायम करने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अखिल भारतीय सेवाओं की व्यवस्था शुरू करने का श्रेय भी सरदार पटेल को जाता है। इस नाते उन्हें ‘भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के संरक्षक संत के रूप में याद किया जाता है। यह व्यवस्था राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता बनाए रखने में कारगर सिद्ध हुई है। आज़ादी के बाद असम, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल में पूर्वी पाकिस्तान के हिंदुओं के प्रवेश की भी समस्या पैदा हो गयी। इसे भी पटेल ने पाकिस्तान के साथ बातचीत तथा सुरक्षा-व्यवस्था कड़ी करके हल करने का प्रयास किया। 30 जनवरी, 1948 को गाँधी जी की हत्या ने पटेल को अंदर से झकझोर दिया। उन्होंने तत्काल राष्ट्रीय स्वयंसेवक पर प्रतिबंध लगाया तथा साम्प्रदायिक तनाव पर काबू पाने की दिशा में उपयुक्त उपाय किए। गाँधी जी के हत्यारों पर मुकदमा चलाने तथा उन्हें सजा दिलाने में भी उनके गृह मंत्रालय ने तत्परता से कार्य किया। इस दौरान कुछ विषयों पर नेहरू तथा पटेल में मतभेद की ख़बरें भी आने लगीं। कुछ तत्त्वों ने आरोप लगाया कि पटेल का गृह मंत्रालय गाँधी जी की जान बचाने में विफल रहा है। इस पर पटेल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। किन्तु नेहरू ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया और पटेल के साथ किसी भी तरह के मतभेद से इंकार किया। नेहरू ने पटेल को व्यक्तिगत पत्र लिखकर उनकी योग्यता, प्रशासनिक कौशल तथा सत्यनिष्ठा की प्रशंसा की। उन दिनों यह अफवाह फैली कि पटेल स्वयं प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। पटेल ने सार्वजनिक बयान जारी करके ऐसी अफ़वाहों का खण्डन किया और नेहरू जी के नेतृत्व में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया। यह सच है कि पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने जैसे कई मामलों में नेहरू की इच्छा का खुलकर विरोध किया था। 1948 में गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर के पुनरुद्धार के प्रश्न पर भी दोनों नेताओं के बीच असहमति सामने आयी, किंतु पटेल अपनी बात पर अडिग रहे। बाद में नेहरू को उनका प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा।


सन् 1950 में सरदार पटेल की तबियत खराब रहने लगी। उन्होंने बैठकों में भाग लेना कम कर दिया और घर पर डॉक्टरों का दल उनकी देखभाल के लिए तैनात रहने लगा। 2 नवम्बर को उनकी तबियत एकदम बिगड़ गई और उनकी चेतना लुप्त हो गई। 12 दिसम्बर को इलाज के लिए उन्हें बम्बई ले जाया गया। 15 दिसम्बर को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वह सदा के लिए इस संसार से विदा हो गए।


सरदार पटेल का पूरा जीवन जनकल्याण तथा देशसेवा को समर्पित रहा। यही कारण है। कि उनके नाम पर देशभर में अनेक संस्थाएँ चल रही हैं और अनेक स्थानों पर उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की गयीं। गुजरात में 'स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी' का निर्माण चल रहा है जो विश्व में सबसे ऊँची प्रतिमाओं में शामिल होगी। पटेल देश के पहले सूचना और प्रसारण मंत्री भी थे। उनकी याद में आकाशवाणी की ओर से हर साल सरदार पटेल व्याख्यान का आयोजन होता है जिसमें किसी ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे पर किसी विद्वान् व्यक्ति का व्याख्यान होता है। भारत की एकता के सूत्रधार और लौहपुरुष सरदार पटेल को उनकी जयन्ती पर सभी देशवासियों का नमन।


(लेखक भारतीय सूचना सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं।)