भारत के एकीकरण के सूत्रधार

भारतीय संघ में रियासतों का प्रवेश एक नाटकीय घटनाक्रम था। कुछ राजाओं के लिए विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करना एक क्रूर त्रासदी की तरह था। केंद्रीय भारत के एक राजा हस्ताक्षर करने के कुछ ही पल बाद मूर्छित होकर गिर गए और दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी। धौलपुर के राजा नेआँखों में आँसूभरकर माउंटबेटन से कहा, 'आज से हमारे पूर्वजों एवम् आपके राजा के पूर्वजों के बीच की सन् 1765 से चली आ रही सन्धि का अंत हो गया।' बड़ौदा के गायकवाड़ बच्चों की तरह रोते हुए ढेर हो गए।


अपने समय की कहानी लिखते समय एथेनियन इतिहासकार थ्बुसीडाइड्स (460-400 ई.पू.) ने कहा था कि कहानी को सही परिप्रेक्ष्य देने के लिए लोगों और घटनाओं का आकलन 100 वर्षों से पहले नहीं किया जाना चाहिए। सरदार पटेल उस ऐतिहासिक समय-सीमा को पूरा नहीं करते हैं और शायद इसी कारण से आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी भूमिका के साथ उचित न्याय नहीं हुआ है। यह कहना सही नहीं हो सकता कि वॉशिंगटन के बिना अमेरिका के साथ, अतातुर्क के बिना तुर्की के साथ, बिस्मार्क के बिना जर्मनी के साथ और गैरीबाल्डी के बिना इटली के साथ क्या हुआ होता। लेकिन हमलोग इतिहास के प्रति इस बात को लेकर जुवाबदेह हैं कि सरदार वल्लभभाई पटेल (31 अक्टूबर, 1875 से 15 दिसंबर, 1950) के बिना भारत का क्या हुआ होता। एक कठोर, खुरदरे चेहरेवाला, धोती पहना हुआ गुजराती वकील, जिनकी लन्दन के विधि महाविद्यालय में शिक्षा एवं प्रशिक्षण भी उनके खून में बसी भारतीयता को बदल नहीं पाया।



लेकिन पटेल के अनुसार, भारत कभी भी एकजुट नहीं हो पाता। पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही भारतीय क्षेत्र के विभाजन की शुरूआत हो चुकी थी। लेकिन पटेल ने आगे और विभाजन को रोक दिया था। उन्होंने भारतीय राजाओं को भारतीय संघ में विलय के लिए राजी कर लिया था। जिन्होंने विरोध किया, उन्हें परिणाम भुगतना पड़ा, उदाहरण के तौर पर, हैदराबाद में पुलिस कार्रवाई।


भारतीय संघ में रियासतों का प्रवेश एक नाटकीय घटनाक्रम था। कुछ राजाओं के लिए विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करना एक क्रूर त्रासदी की तरह था। केंद्रीय भारत के एक राजा हस्ताक्षर करने के कुछ ही पल बाद मूर्छित होकर गिर गए और दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी। धौलपुर के राजा ने आँखों में आँसू भरकर माउंटबेटन से कहा, 'आज से हमारे पूर्वजों एवम् आपके राजा के पूर्वजों के बीच की सन् 1765 से चली आ रही सन्धि का अंत हो गया।' बड़ौदा के गायकवाड़ बच्चों की तरह रोते हुए ढेर हो गए। एक छोटे राज्य का राजा कई दिनों तक हस्ताक्षर करने से बचता रहा, क्योंकि उसे अभी भी राजा के दिव्य अधिकारों पर भरोसा था। पंजाब के आठ महाराजाओं ने पटियाला के एक बैंकेट हॉल में एक औपचारिक समारोह के दौरान दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किया, जहाँ सर भुपिंदर सिंह ने अतिथियों के लिए एक शानदार और भव्य भोज का आयोजन किया था। इस अवसर को याद करते हुए एक व्यक्ति ने कहा था कि वातावरण इतना गुमगीन था, जैसे हमलोग दाह-संस्कार में आए हों।।


कुछेक राजाओं, जिनकी संख्या नगण्य थी, ने प्रतिरोध किया। भोपाल के नवाब ने दावा किया कि राजाओं को चाय-पार्टी में । गुलामों की तरह निमन्त्रित किया गया था। उदयपुर के राजा ने अपने आस-पास के राजाओं के साथ मिलकर एक महासंघ बनाने की कोशिश की। ऐसा ही ग्वालियर के राजा ने भी किया, जो इलेक्ट्रिक ट्रेनों के लिए उन्मादी आदमी के पुत्र थे। त्रावणकोर के महाराजा, जिनके पास एक बंदरगाह और यूरेनियम का समृद्ध भण्डार था, उन्होंने आज़ादी के लिए काफी शोरगुल किया। 15 अगस्त के नजदीक आते-आते पटेल पर विरोधियों को अपने पक्ष में लाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन एवम् आन्दोलन होने लगे। उड़ीसा (अब ओडिशा) के महाराजा अपने महल में भीड़ के द्वारा बंदी बना लिए गए। लोग उन्हें तब तक छोड़ने को तैयार नहीं थे, जब तक वह हस्ताक्षर नहीं कर देते। त्रावणकोर के सशक्त प्रधानमंत्री के चेहरे पर काँग्रेस के प्रदर्शनकारियों ने छुरा भोंक दिया। इससे घबराकर महाराजा ने तार के माध्यम से अपनी सहमति दिल्ली भिजवा दी। कोई भी विलय जोधपुर के युवा


कोई भी विलय जोधपुर के युवा महाराजा जितना तूफानी नहीं था। जोधपुर के राजा ने अपने पिता की मृत्यु के तुरन्त बाद गद्दी सँभाल ली थी। उनके शौक काफ़ी कीमती थे, जैसे- फ्लाइंग, औरतें और जादूगरी की कला। लेकिन उन्होंने महसूस किया कि इनमें से किसी भी चीज़ को काँग्रेस के समाजवादियों की सहानुभूति नहीं मिल सकती थी। जैसलमेर के महाराजा ने अपने सहयोगियों के साथ दिल्ली में जिन्ना से एक गुप्त मुलाकात का आयोजन किया, जिसमें वे यह जानना चाहते थे कि हिंदू-राज्यों को उनके उपनिवेश में मिलने पर उनका किस प्रकार स्वागत किया जाएगा। हैदराबाद के निजाम ने ग्रेट ब्रिटेन से अपने उपनिवेश को स्वतंत्र कराने का असफल प्रयास किया। अपने महल से वह कृपण शासक यह शिकायत करने से नहीं चूका कि उसके पुराने सहयोगियों ने उसका परित्याग कर दिया और सम्राट् के साथ समर्पण का बन्धन टूट गया। जूनागढ़ के नवाब ने घोषणा की कि या तो वे आजाद रहेंगे या पाकिस्तान के साथ मिल जाएँगे, जबकि इस छोटे हिंदू राज्य की सीमा किसी भी मुस्लिम देश के साथ नहीं मिलती थी। हालाँकि पटेल ने उन सब पर काबू पा लिया था।


भारत में अनेक बोस्निया थे, जो विभाजित हो सकते थे। भारत में 24 मुख्य भाषाएँ एवं विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाओं और आस्थाओं के उप-समूह हैं, जिन्होंने लोगों को विभाजित कर रखा है। अगर पटेल लम्बे समय तक जीवित रहते तो शायद काश्मीर-समस्या नहीं होती और न ही उत्तर-पूर्व में इतनी भारी अशान्ति होती। पटेल गैरीबाल्डी (180782) के युग में थे, जिन्होंने इटली का एकीकरण किया था, बिस्मार्क (181598), जिन्होंने जर्मनी का एकीकरण किया और अतातुर्क (1881-1938), जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ऑटोमन साम्राज्य के ध्वस्त होने पर तुर्की का सुधार किया। पटेल न सिर्फ विश्व के इन नेताओं के संघ में थे, बल्कि इन सबसे कई मायनों में ज्यादा महान थे।


वह एक पारम्परिक वातावरण में पलेबढ़े थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा करमसाड में और हाईस्कूल की शिक्षा पेटलाड़ में हुई थी। मगर उन्होंने स्वाध्याय ही किया था। अपने ज्यादातर सहपाठियों के विपरीत पटेल का शरीर गठीला था और उन्हें एथलेटिक्स में आनन्द आता था, जो उनके आत्मविश्वास एवं ज़िद्दी नेतृत्व में प्रकट होता है। 16 वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गयी। उनके एक बेटा और एक बेटी थी। 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने मैट्रिक और जिला वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिससे वह वकालत करने के योग्य बने। सन् 1900 में उन्होंने गोधरा में जिला वकील का अपना स्वतंत्र ऑफिस खोला और दो साल बाद वह खेड़ा जिले के बोरसाड चले गए। सन् 1908 में जब वह बम्बई की कचहरी में एक मुकदमे की सुनवाई पूरी कर रहे थे, तब उन्हें अपनी धर्मपत्नी की मृत्यु की सूचना मिली। उन्होंने टेलीग्राम को एक नज़र देखा। उसे अपने पॉकेट में डाला और सुनवाई जारी रखी। यह घटना वल्लभभाई पटेल का आकलन करती है और उन्हें एक किंवदंती बनाती है। उन्होंने भावनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। वह व्यावहारिक, निर्णय लेने में सक्षम और जरूरत पड़ने पर क्रूर थे और ब्रिटिश यह बात जानते थे। वह नाटक एवं दिखावे में यकीन नहीं करते थे।


पटेल अगस्त, 1910 में लन्दन के मिडिल टेंपल में पढ़ने गए, जहाँ उन्होंने स्नातक की आखिरी परीक्षा उत्तीर्ण की। फरवरी, 1913 में भारत वापस आकर वह अहमदाबाद में बस गए और फौजदारी कानून के एक अग्रणी बैरिस्टर बने। सन् 1917 में महात्मा गाँधी से मिलने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गयी। पटेल ने गाँधी के सत्याग्रह का पालन किया, कारण यह अँग्रेजों के खिलाफ एक भारतीय संघर्ष था। लेकिन वह गाँधी के नैतिक दृढ़ संकल्प और आदर्श से सहमत नहीं थे और उनके अनुसार भारत की तात्कालिक राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के लिए इनका इस्तेमाल अप्रासंगिक था। फिर भी गाँधी का अनुकरण करते हुए पटेल ने अपनी जीवन-शैली और रूप बदल लिया। उन्होंने गुजरात क्लब छोड़ दिया, भारतीय किसान की तरह सफेद वस्त्र धारण किया और उनकी तरह रहने लगे। 1917 से 1924 के बीच पटेल अहमदाबाद के प्रथम नगर आयुक्त रहे और सन् 1924 से 1928 तक नगरपालिका अध्यक्ष रहे।


 


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