क्या होता यदि गाँधीजी ने सरदार की सुनी होती...

सरदार गाँधी जी के अन्धानुयायी नहीं थे। उन्होंने किसी भावुक आवेश में आकर गाँधी जी को अपना नेता स्वीकार नहीं कर लिया था। वे एक प्रखर देशभक्त थे। उनकी प्रखर देशभक्ति से ही वह कठोर अनुशासन-भाव जन्मा था जिसे लोगों ने अन्धभक्ति कहा। वे कर्मयोगी थे, जो शब्दों में कम और कर्म में अधिक आस्था रखते थे। गाँधी जी को नेता मानने के पीछे भी उनका यही भाव था; क्योंकि गाँधी जी ने जो कुछ कहा उसे आचरण में उतारने का प्रयत्न भी किया, उन्होंने प्रस्तावों और भाषणों में आगे बढ़कर देश के समग्र सामूहिक कर्मका, त्याग का मार्ग खोला।


“मैंने विभाजन को आखिरी उपाय के रूप में उस समय स्वीकार किया, जब हम सब कुछ खो बैठे। देश-विभाजन का एकमात्र उद्देश्य सामने रखकर मुस्लिम लीग के पाँच सदस्यों ने स्वयं को अन्तरिम सरकार के मंत्रियों के रूप में स्थापित कर लिया था... हमने तय किया कि यदि विभाजन होना ही है तो पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर ही होना चाहिये।... मि. जिन्ना ऐसा कुतरा हुआ पाकिस्तान नहीं चाहते थे, किन्तु उन्हें वही स्वीकार करना पड़ा। मेरी अगली शर्त यह थी कि दो महीने के भीतर सत्ता का हस्तान्तरण हो जाना चाहिये और इसी अवधि में संसद को एक ऐसा एक्ट पास कर देना चाहिये जिसमें गारंटी हो कि ब्रिटेन भारतीय रियासतों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस समस्या से हम खुद निबट लेंगे... ब्रिटिश प्रभुसत्ता का अन्त ही हो जाना चाहिये।''



इन शब्दों में सरदार ने नवम्बर, 1949 में संविधान सभा में देश-विभाजन के निर्णय को अपनाया था। इस निर्णय पर पहुँचने तक सरदार को कितने गहरे अन्तसँघर्ष से गुजरना पड़ा, कितने सपनों को टूटते हुए, कितनी श्रद्धाओं और स्नेह-सम्बन्धों में दरार पड़ते हुए देखना पड़ा, यह कहानी अभी तक पूरी तरह प्रकाश में नहीं आई है। विभाजन के रूप में सरदार ने भारत के अपने तब तक के राजनीतिक जीवन की पराजय स्वीकार की थी, किन्तु उस पराजय के कगार पर भारत को ले जाकर पटकने का दोष उन्हें बहुत ही दुःखी अन्तकरण से गाँधी जी के मत्थे मढ़ने के लिये विवश होना। पड़ा। वह पटेल के जीवन का सबसे कष्टकर निष्कर्ष रहा।


गाँधी जी का एकनिष्ठ अनयायी 


सन् 1917 में अपनी चमकती हुई बैरिस्टरी को ठोकर मारकर जब से वे गाँधी जी के पीछे लगे, तब से ही उन्होंने एकनिष्ठ सेवक एवं शिष्य के रूप में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा एवं कार्यशक्ति को उनके चरणों में उड़ेल दिया। जिस मोर्च पर गाँधी जी ने उन्हें लगाया, उस पर ही उन्होंने विजय प्राप्त करके दिखायी, चाहे वह खेड़ा हो या बारदोली। अपनी प्रत्येक विजय का श्रेय उन्होंने गाँधी जी को दिया और स्वयं उनका एक अति तुच्छ और विनम्र सैनिक ही बताया। गाँधी जी के नेतृत्व पर होनेवाले प्रत्येक आक्रमण को उन्होंने अपने ऊपर झेला। चाहे वह उनके सगे भाई श्री विठ्ठलभाई पटेल की ओर से आया हो, चाहे 1936 में नेहरू की ओर से अथवा 1938-39 में सुभाष बोस की ओर से। गाँधी जी की महत्ता को बनाए रखने के लिये सरदार ने विरोध एवम् अलोकप्रियता का गरलपान स्वयं किया। गाँधी जी का संकेतमात्र होते ही उन्होंने बड़े-से-बड़े गौरव को ठोकर मार दी। 1929, 1936 और 1946 तीन बार काँग्रेस संगठन ने अपना अध्यक्ष पद उन्हें सौंपना चाहा, किन्तु तीनों बार गाँधी जी की इच्छा का पालन करने मात्र के लिये सरदार ने उसे नेहरू जी को सौंप दिया। सरदार को पद से मोह नहीं। था। उनका जीवन राष्ट्र के लिये समर्पित था। किन्तु वे जानते थे कि नेहरू को पद का गौरव दिये बिना गाँधी जी का अनुयायी बनाए रखना कठिन है। अतः उन्होंने सहर्ष त्याग का पथ अपनाया। किन्तु जब नेहरू ने 1936 में काँग्रेस के अध्यक्ष पद का दुरूपयोग गाँधी जी के नेतृत्व को चुनौती देने के लिये करना चाहा, तो सरदार ने तुरन्त आगे बढ़कर नेहरू को यह अनुभव करा दिया कि काँग्रेस की अध्यक्षता उन्होंने (नेहरू ने) अर्जित नहीं की है अपितु वह उन्हें गाँधी जी की कृपा में प्राप्त हुई है। 1950 के अध्यक्षीय चुनाव में प्रधानमंत्री पद से प्राप्त नेहरू की पूरी शक्ति के विरुद्ध राजर्षि टण्डन को विजयी बनाकर सरदार ने यह प्रमाणित कर दिया कि उनके जीते जी काँग्रेस संगठन पर उनके नियन्त्रण को चुनौती देना सम्भव नहीं है।


किन्तु सरदार, गाँधी जी के अन्धानुयायी नहीं थे। उन्होंने किसी भावुक आवेश में आकर गाँधी जी को अपना नेता स्वीकार नहीं कर लिया था। वह एक प्रखर देशभक्त थे। उनकी प्रखर देशभक्ति से ही वह कठोर अनुशासन-भाव जन्मा था जिसे लोगों ने अन्धभक्ति कहा। वह कर्मयोगी थे, जो शब्दों में कम और कर्म में अधिक आस्था रखते थे। गाँधी जी को नेता मानने के पीछे भी उनका यही भाव था, क्योंकि गाँधी जी ने जो कुछ कहा, उसे आचरण में उतारने का प्रयत्न भी किया; उन्होंने प्रस्तावों और भाषणों में आगे बढ़कर देश के समग्र सामूहिक कर्म का, त्याग का मार्ग खोला। राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य की आकांक्षा की पूर्ति के लिये सरदार उनके पीछे, एकनिष्ठ अनुयायी के रूप में चल पड़े। किन्तु वह घोर यथार्थवादी थे। गाँधी जी की अहिंसा को उन्होंने महाशक्तिमान् ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक निःशस्त्र राष्ट्र की रणनीति से अधिक महत्त्व कदापि नहीं दिया। इसलिये जिस दिन उन्हें यह दिखाई दिया कि अहिंसा पर अत्यधिक आग्रह भारत की स्वाधीनताप्राप्ति के मार्ग में बाधक बन रहा है, हिंसा के बल पर संगठित मुस्लिम समाज भारत की राष्ट्रीय आकांक्षाओं पर कुठाराघात कर सकता है, उन्होंने निर्भय होकर गाँधी जी से अपनी मतभिन्नता को प्रगट कर दिया।


अहिंसा बनाम राष्ट्रवाद


गाँधी जी से सरदार की मतभिन्नता सर्वप्रथम प्रकाश में आयी 1940 में। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेजों के युद्ध-प्रयत्नों में भारत के सम्मिलित होने के प्रश्न पर काँग्रेस मन्त्रिमण्डल त्यागपत्र दे चुके थे। किन्तु अंग्रेजों के युद्ध-प्रयत्नों में उसमें कोई बाधा नहीं पड़ी। मुस्लिम समाज ने, जो विगत 23 वर्षों में मुस्लिम लीग और मि. जिन्ना के पीछे पूरी तरह संगठित हो चुका था, ब्रिटिश साम्राज्य के साथ गठबन्धन स्थापित कर लिया था। राजगोपालाचार्य एवं सरदार-जैसे यथार्थवादी नेताओं को स्पष्ट दिखाई देने लगा कि अंग्रेजों एवं मुस्लिम लीग का यह गठबन्धन भारतीय राष्ट्रवाद के लिये बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। और काँग्रेस का असहयोग अंग्रेजों के युद्ध-प्रयत्नों में कोई रुकावट नहीं डाल पा रहा है। अतः उन्होंने यथार्थवादी रणनीति के रूप में इस गठबन्धन को तोड़ने एवम् अंग्रेजों से भारत की सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाने के लिये अंग्रेजों के युद्ध-प्रयत्नों में सहयोग करने का प्रस्ताव पारित करने का सुझाव रखा। गाँधी जी ने अहिंसा के सिद्धान्त को सामने रखकर उसका विरोध किया। अन्त में सरदार ने काँग्रेस कार्यसमिति द्वारा सर्वसम्मत से राजाजी का वह प्रस्ताव पारित करा दिया, जिसमें मित्र राष्ट्रों के युद्ध-प्रयत्नों में सहयोग का सशर्त आश्वासन देते हुए गाँधी जी को इस निर्णय के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया था।


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