सरदार पटेल और नेहरू के मतभेद

बीसवीं शती की भारतीय राजनीति के लौहपुरुष के सम्पूर्ण जीवन और उनके अवदान पर अब गम्भीरता से विचार होने लगा है। कारण है। कि उनके निष्ठावान् समर्पणमय जीवन और उनकी राष्ट्रीय उपलब्धियों को विस्तृत करने का योजनाबद्ध प्रयत्न सन् 1950 से 1963 तक होता रहा है। आज सभी सोचने लगे हैं कि यदि सरदार पटेल स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो सद्यःस्वतंत्र भारत सक्षम, सशक्त एवं सुसंगठित राष्ट्र के रूप में अवतरित होता। अपने देश को प्रखर राष्ट्रीय दृष्टि एवं सम्यक दिशा मिल जाती। दुर्भाग्य से वह प्रधानमंत्री नहीं बन सके और उनका देहावसान भी सन् 1950 में ही हो गया। सम्भवतः अहंमन्यता, ईर्ष्या एवं द्वेष से ग्रस्त जवाहरलाल नेहरू उनके देहांत से आत्मतुष्ट हुए होंगे। वह निरंकुश हो ही गए थे। यह भी सच है कि बाद में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी तथा डॉ. राममनोहर लोहिया की सार्थक आलोचनाओं से उनकी अहंग्रस्तता, निरंकुशता तथा पूर्वाग्रहलिप्तता विफल हो जाती थी।


मुझे बचपन का स्मरण आता है कि सन् 1947 में मेरे उच्च विद्यालय के साथी ने विद्यालय के प्रांगण में कहा था कि सरदार पटेल उद्योगपति बिड़ला से सम्बद्ध हैं। दूसरे शब्दों में, उन्हें पूँजीपतियों के मित्र के रूप में बताया गया था। मैं मौन रहा। बाद में स्पष्ट हो गया था कि काँग्रेस के नेहरू खेमे की ओर से सरदार के विरुद्ध यह प्रचारित किया जा रहा था, जिससे उनकी छवि धूमिल हो जाए। सन् 1948 में अफवाह उड़ाई गई थी कि गाँधीजी की हत्या पटेल की असावधानी से ही हुई थी। यह भी अफ़वाह थी कि पटेल ने गाँधीजी की सुरक्षा कम कर दी थी। राष्ट्रवादी गाँधीजी के योग्य शिष्य के रूप में मान्य तथा स्वाभिमानी सरदार पटेल के विरुद्ध नेहरू खेमे के षड्यंत्र का यह परिणाम था। कारण था कि सरदार पटेल काँग्रेस संगठन तथा जनता- दोनों में अति प्रिय थे। सन् 1946 में 15 प्रदेश काँग्रेस समितियों में से 12 प्रदेश समितियों ने सरदार पटेल को ही काँग्रेस की अध्यक्षता के लिए प्रस्तावित किया था। शेष तीन ने आचार्य कृपलानी का नाम रखा था। गाँधीजी ने आचार्य कृपलानी से कहकर नाम वापस कराकर नेहरूजी का नाम रखवा दिया था। बाद में महात्माजी ने नेहरू और पटेल को एकसाथ बैठाकर कहा था कि अगर सरदार पटेल चाहें तो नेहरू अध्यक्ष बन सकते हैं। सरदार पटेल ने अपने गुरु गाँधीजी के निर्देश को समझकर अपना नाम वापस ले लिया। उनके इसी त्याग के कारण नेहरू सन् 1946 में काँग्रेस के अध्यक्ष बने और फलतः प्रधानमंत्री भी बन गये। यदि सरदार पटेल सबके समर्थन से अध्यक्ष बन जाते तो प्रधानमंत्री भी बन जाते। नियति ने गाँधीजी को सम्यक् निर्णय नहीं लेने दिया। सम्भवतः मोतीलाल नेहरू और उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू के उच्चस्तरीय राजनीतिक प्रभावपूर्ण दबाव और पिता-पुत्र की चाटुकारिता ने गाँधीजी को मोहग्रस्त कर दिया और नेहरू का अहंजन्य लाभ आज तक उनके वंशजों में दिख रहा है। तभी तो हमें दुर्दिन में सरदार पटेल का स्मरण आ रहा है।



यह सच है कि नेहरू खेमे के इन कुप्रचारों से सरदार पटेल दुःखी हो गए थे। संघर्षशील जीवन को अधिक चोट लगी थी, जब गाँधीजी की हत्या में उनकी । असावधानी का भ्रम फैलाया गया था। स्वाधीनता आंदोलन में गाँधीजी के परम शिष्य तथा विश्वसनीय सहयोगी होने के कारण सरदार पटेल विभिन्न आंदोलनों में अग्रणी सेनानी के रूप में प्रस्तुत हुए थे और स्वाधीनता के बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद से प्राप्त बिखरे भारत को सुसंगठित कर देने का राष्ट्रीय पौरुष प्रदर्शित किया था। इसलिए नेहरू खेमे के कुप्रचार से वयोवृद्ध हृदय को सांघातिक चोट लगी। फलतः 15 दिसंबर, 1950 को उनकी असमय मृत्यु हो गई।


स्पष्ट है कि पटेल स्वाधीनता के पहले गाँधीजी के शिष्य होने के कारण सत्यअहिंसा पर निष्ठा रखनेवाले जन-आंदोलनों के सेनापति व सरदार के रूप में लोकप्रिय होते गए हैं। यह स्मरणीय है कि सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उनके पिता श्री झवेरभाई पटेल ने भाग लिया था। वह गुजरात के नाडियाद के एक सामान्य किसान थे। किसान-जीवन की श्रमशीलता, कठोरता, संवेदनशीलता तथा देशभक्तिइन चारों मानवीय गुणों के साथ वल्लभभाई ने जन्म लिया था। विट्ठलभाई पटेल उनके अग्रज थे। ऐसा लगता है कि दोनों भाइयों में सन् 1857 को क्रान्ति की ऊष्मा विद्यमान थी। उसी देशभक्ति की ऊष्मा तथा भारत माँ के प्रति समर्पण के संकल्प ने किसान परिवार के वल्लभभाई को उच्चतम शिक्षा तथा देशसेवा के लिए प्रेरित कर दिया था। वह इंग्लैण्ड से विधि (लॉ) की उच्चतम शिक्षा प्राप्तकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे थे। परंतु वे तो गाँधीजी के चम्पारण (1917) सत्याग्रह के महत्त्व को समझ गए थे। उन्होंने गहरी अनुभूति प्राप्त कर ली थी कि गाँधीजी स्वाधीनता आंदोलन को गाँवों तक, गाँवों के किसानों तक ले जाना चाह रहे हैं। इसीलिए तो वह सन् 1918 के खेड़ा-सत्याग्रह में सम्मिलित हो गये। वह असहयोग आंदोलन में वकालत की आजीविका से मुक्त होकर आ गए। परंतु यह भी सही है कि वह असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन को शामिल करने से सहमत नहीं थे। पर वह गाँधीजी का विरोध नहीं कर सके। खिलाफत आंदोलन असफल रहा। दुःखद रहा। सरदार पटेल ने भारतीय नीति की इस कमज़ोर कड़ी को समझ लिया, जैसे स्वामी श्रद्धानन्द ने समझ लिया था। तथापि देश की स्वाधीनता के प्रमुख आंदोलन बारडोली-आंदोलन, नमक-आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में गाँधीजी के सेनानी के रूप में आगे आए। यह ज्ञातव्य है कि गाँधीजी ने बारडोली आंदोलन में उनकी संगठनशीलता तथा नेतृत्व-कुशलता के कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि से विभूषित किया था। उन्होंने भी स्वयं को अपने गुरु गाँधीजी के सच्चे अनुयायी के रूप में प्रस्तुत किया था। परंतु नेहरूजी नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा में आगे निकल जाना चाहते थे। सुभाष चंद्र बोस तो गाँधीजी के प्रति श्रद्धा के बाद भी उग्र राष्ट्रवादी थे। अतः गाँधीजी तथा नेहरूजी- दोनों ने नेताजी सुभाष को आगे नहीं बढ़ने दिया तो उन्होंने अपना मार्ग अलग कर लिया। परंतु सरदार पटेल ने गाँधीजी के प्रति पूरी निष्ठा दिखायी। अंत तक निभाई भी। काँग्रेस संगठन और जनता में प्रिय होने के बाद गाँधीजी के संकेत पर नेहरू के लिए त्याग भी कर दिया। पर नेहरू अंत तक सरदार पटेल के राष्ट्रवादी लौहपुरुष को सह नहीं सके थे। प्रतिस्पर्धी कलुषता का विष नेहरू के मन में भरा हुआ था।


 


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