आदित्य स्वरूप सम्राट विक्रमादित्य

हमारा विक्रम संवत लोकोत्तर मालवागणाधीश भगवान महाकालेश्वर के परम सेवक विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित किया गया। छठी शताब्दी ई.पू. में आर्थिक परिवर्तनों के कारण ऋग्वैदिक कबीलायी जनजीवन में परिवर्तन हो क्षेत्रीय भावना के जागृत होने से नगरों का निर्माण होने लगा । बुद्ध के समय (जन्म से पूर्व) में 16 महाजनपदों का जन्म हो चुका था, जिसका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में मिलता है। इन 16 महाजनपदों में अवन्ति (उज्जैन), उत्तरी अवन्ति (उज्जयिनी) एवं दक्षिणी अवन्ति (महिष्मती) का अस्तित्व भी था। भर्तृहरि शतक के निर्माता योगीराज गोरखनाथ के अमर शिष्य भर्तृहरी सम्राट विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भ्राता कहे जाते है। ज्येष्ठ के विरक्त होकर सिंहासन त्याग देने पर विक्रमादित्य ने अवन्ति का सिंहासन स्वीकार किया।



साम्राज्यवाद की भावना (नीति) के कारण भारत शकों के आक्रमण से आक्रान्त होता जा रहा था। राजा विक्रमादित्य ने उन शत्रुओं को अपने पराक्रमबल से पराजित कर उन्हें उत्तर सीमांत के पार भगाया, इसी शौर्य ने उन्हें शकारि नाम से भूषित किया। इतिहास में वर्णित है कि राजा, सम्राट एवं प्रशासकों ने अपनी विजय के उपलक्ष्य में अपने काल समय में संवत का चलन प्रारम्भ किया। विभिन्न संवत जो भारत में पूर्वकाल- सप्तऋषि संवत, कलियुग संवत, वीर संवत, शाक्यसंवत, मौर्य संवत, विक्रम संवत ....आदि।


विक्रम संवत को मालवसंवत (मालवकाल) भी कहा गया है। इसके सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है कि मालवा के राजा विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त इस संवत का प्रारम्भ किया। ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों में- राजपूताना संग्रहालय में रखे नगरी (मध्यमिका, उदयपुर राज्य) के शिलालेख में मालवापूर्व कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन...। कोटा के समीप कणस्वा के शिव मन्दिर में लगे शिलालेख से मालवा जाति अथवा मालव राज्य के सम्बन्ध में ज्ञात होता है। उक्त पुरातात्विक एवं इतिहास परक विवरण इस तथ्य को पुष्ट करते है कि मालव गण एवं मालव जाति के राजा की स्वतन्त्र स्थापना के समय इस संवत का श्री गणेश हुआ ।


पुरातात्विक साक्ष्यों में कार्कोटक नगर (जयपुर राज्य के नगर) से कुछ मुद्राओं पर मालवान (नां) जय (यः) का उत्कीर्ण ज्ञात होता है। पुरातत्वविज्ञों के मतानुसार उन मुद्राओं की लिपि विक्रम संवत के प्रारम्भ या समक्ष मानी गयी है। इन मुद्राओं से सम्भावना व्यक्त की जाती है कि मालवा जाति के लोगों ने विजय प्राप्त कर स्मृति स्वरूप में यह मुद्राएँ चलाई। एक अन्य मतानुसार मालव गण ने अवन्ति प्रदेश को विजित कर अथवा मालव जाति का राज्य स्थिर होने के उपलक्ष्य में इस संवत का चलन किया जो मालव संवत कहलाया। कालान्तर में न्यायप्रिय महाराज विक्रमादित्य के नाम पर विक्रम संवत के नाम से प्रचलित हुआ।


गणनाओं के आधार पर विक्रम संवत में 56-57 घटाने पर ईस्वी सन् ज्ञात होता है। डॉ. पीटर्सन, डॉ. व्यालूट एवं प्रो. पलीट ने ईस्वी सन् से पूर्व सम्राट विक्रमादित्य की स्थिति मन्दसौर शिलालेख के आधार पर स्वीकार की। इतिहास में वर्णित है कि मन्दसौर से प्राप्त शिलालेख में मालव गण (जाति) की जानकारी का उल्लेख हैविक्रमादित्य शालिवाहन के पूर्ववर्ती है, यह इतिहास सिद्ध कर रहा है।


भारत एकात्मता स्त्रोत में विक्रमादित्य प्रमुख है


चाणक्यचन्द्रगुप्तौ च विक्रम शालिवाहनः।


समुद्रगुप्त:श्रीहर्ष शैलेन्द्रो बप्पारावलः।।