जलती होली से निकलता पंडा

मुम्बई से दिल्ली जाने वाले रेल मार्ग पर, मथुरा रेलवे स्टेशन से कुछ आगे छोटा सा स्टेशन है, कोसी और वहां से सड़क के रास्ते कुछ किलोमीटर दूर फालैन गांव है। होलिका दहन की प्रातः मैं, अपने निवास स्थल सवाईमाधोपुर से सुपरफास्ट रेलगाड़ी द्वारा मथुरा पहुंचा। वहां से फालन के लिए लोकल ट्रेन पकड़ी। कोसी में पूछताछ की तो पता चला कि फालैन में होलिका दहन कल प्रातः चार बजे होगा। इसके साथ ही मुझे यह भी बताया गया कि उसके पास जटवारी ग्राम में आज रात को दस बजे होली जलेगी। वहां भी एक पंडा होलिका में प्रवेश करता है।


धधकते अंगारों पर कदमबोशी करने के अनेक उदाहरण भारत में हैं किन्तु फालैन की धधकती हुई होली से निकलते पंडे की धज कुछ और ही है। 142 वर्ष पूर्व एक अंग्रेज इतिहासकार एफ.एस. ग्राउस ने अपनी पुस्तक “मथुराः ए डिस्ट्रिक मैमोयर' में सर्वप्रथम फालैन की जलती होली से गुजरते हुए पंडा का वर्णन किया। ग्राउस ने लिखा है कि मैं होली स्थल से काफी दूर बैठा था लेकिन होली की लपटें इतनी तेज थीं कि मैंने अपने आप को झुलसता महसूस किया। बहरहाल, फालैन जाकर उस उत्सव को देखने की बीस बरस पुरानी मेरी हौंस पिछले वर्ष पूरी हुई। मुम्बई से दिल्ली जाने वाले रेल मार्ग पर, मथुरा रेलवे स्टेशन से कुछ आगे छोटा सा स्टेशन है, कोसी और वहां से सड़क के रास्ते कुछ किलोमीटर दूर फालैन गांव है। होलिका दहन की प्रातः मैं, अपने निवास स्थल सवाईमाधोपुर से सुपरफास्ट रेलगाड़ी द्वारा मथुरा पहुंचा। वहां से फालैन के लिए लोकल ट्रेन पकड़ी। कोसी में पूछताछ की तो पताचला कि फालैन में होलिका दहन कल प्रातः चार बजे होगा। इसके साथ ही मुझे यह भी बताया गया कि उसके पास जटवारी ग्राम में आज रात को दस बजे होली जलेगी। वहां भी एक पंडा होलिका में प्रवेश करता है। मगर मुझे तो फालैन की विख्यात होली देखनी थीलिहाजा, मैं, उस ओर जाने वाली बस में बैठ गया। उसी बस में मुझे एक सज्जन और मिले वे भी फालैन जा रहे थेउन्होंने बताया कि उस गांव में उनके रिश्तेदार रहते हैं और वह अक्सर वहां जाया करता है। जब बस ने हमें फालैन मोड़ पर उतारा तो सांय हो चली थी। गांव को जोड़नेवाली सड़क पर आवागमन बढ गया था। नजदीकी गांवों से ठट्ट के ठट्ट लोग पैदल, स्कूटरों, मोटरसाईकिलों, कारों, जीपों तथा ट्रेक्टर ट्रालियों में उमग रहे थे। उस अनजान साथी ने एक ट्रेक्टर ट्राली को रूकवा लिया। हम उसमें बैठकर फालैन पहुंच गये। वहां मेले का सा माहौल था। कहीं ढोल-बाजे बज रहे थे तो कहीं डेक पर संगीत गूंज रहा था। उन धुनों पर नृत्य मंडलियां धूम मचा रही थीं। रोजमर्रा के उपभोग की वस्तुओं तथा खाद्य पदार्थों की दुकानें सजी थींहर घर के आगे एक चारपाई बिछी थी तथा घर के वाशिंदे, वहां से गुजरने वाले राहगीरों से चाय-पानी और भोजन की मनुहार कर रहे थे। इस युग में वह व्यवहार अभिभूत कर देने वाला था। अनेक ग्रामवासियों ने तो मेलार्थियों हेतु रात्रि विश्राम की व्यवस्था भी की हुई थी।



उस साथी ने मुझे बड़े चाव से मेला दिखायावह मुझे दहन स्थल पर ले गयावहां दस फुट ऊंची और बीस फुट चौड़ी होलिका स्थित थी जिसे राजस्थान से मंगवायी गयी झाड़ों से निर्मित किया गया था। उसके चारों ओर कलाया धागा लिपटा हुआ था। गोबर की बहुत सारी बलुड़ियां लटकी हुई थीं। होलिका स्थल के ठीक सामने एक मंदिर था। वहां युवा पंडाजी बैठे थे। हमें यह बताया गया कि पंडाजी का नाम हीरालाल है और वे पहली बार होली में प्रविष्ट होंगेमैंने पंडाजी से पूछा, “आप पहली बार होलिका में प्रविष्ट होंगे तो क्या आपके मन में इसका कोई भय है?''


पंडाजी कुछ बोलते उससे पूर्व ही उनके मोबाइल पर रिंगटोन बज उठी और वे वातार्लाप में व्यस्त हो गये। तब, पंडाजी के बगल में बैठा एक व्यक्ति बोला, "कैसा डर? यह हमारी बरसों पुरानी परंपरा है। थोड़ी देर बाद यहां हवन प्रारंभ होगा और वह सुबह चार बजे तक चलेगा। उसके बाद पंडाजी होलिका में प्रवेश करेंगे''


मेरे साथी ने कहा कि अब घर चलकर आराम करेंगे, सुबह फिर इधर आयेंगे। उस शख्स के रिश्तेदारों ने हमारी आव-भगत की। हमने भोजन किया। हमारे अलावा और भी बहुत से आगंतुक वहां भोजन ग्रहण कर रहे थे। उस घर में मेरा परिचय डा. सतीशचंद से हुआ। उन्होंने कहा कि सुबह वहां इतनी भीड़ होगी कि आपकी पार नहीं पड़ेगी। मैं आपके साथ चलूंगा और पास के किसी मकान की छत पर आपको एडजेस्ट करवा दूंगा। वहां से आप सारा दृश्य सरलता से देख सकेंगे। अभी आप आराम कीजिये, सुबह तीन बजे मैं आपको जगा दूंगा। 


एक हवेली में बिछी चारपाईयों में से एक पर मुझे सोने को कहा गया। प्रातः तीन बजे मेरी आंख खुद-ब-खुद खुल गयी। हवेली के सारे लोग यहां-वहां गहरी नींद में गाफिल थे। उनके घर में देर रात तक अतिथि आते रहे थेअतः मेजबानगण काफी थक गये थे। मैंने हवेली में डॉक्टर साहब को खोजने की कोशिश की। उन्हें आवाज भी लगायी किन्तु कोई जवाब न मिला। शायद वे गहन निद्रा में गाफिल थे।


होलिका दहन देखने का अवसर कहीं चूक न जाऊं, यह सोचकर मैं वहां से चल दिया। मार्ग में मुझे बहुतेरे लोग मिले। उनके साथ मैं आगे बढ़ता रहा। वाकई, वहां भारी भीड़ थी। आस पास के मकानों की छतें भी पूरी प्रकार से भरी हुई थींउनके प्रवेश द्वार बंद कर दिये गये थे। लगता था कि उत्सुक दर्शक घंटों पूर्व ही वहां जम चुके थे। खैर, मैंने किसी तरह से होलिका के पास स्थित एक चबूतरे पर स्थान बनाया। वहां से उस मंदिर के प्रवेश द्वार भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था। होलिका में प्रवेश हेतु, पंडाजी उसी द्वार से बाहर आने वाले थे। उस चबूतरे के बिल्कुल सामने एक हवेली की छत पर कुछ जापानी नागरिक अपने कैमरा लिये खड़े थेआकाश में उनके द्वारा छोड़ा गया एक ड्रोन भी छायांकन हेतु उड़ रहा था।


अलबत्ता, होली पूजन प्रारंभ हुआ। पूजन-अर्चन के पश्चात उसे प्रज्वलित किया गया। थोड़ी ही देर में होली भड़ भड़ करती हुई जलने लगी। तभी मंदिर के प्रवेश द्वार पर हलचल मची। कुछ स्वयंसेवक भीड़ के बीच से रास्ता बना रहे थे। वे रास्ते के दोनों ओर लाठियां लेकर खड़े हो गये। दो बार इसी प्रकार से हल्ला और हुआ कि पंडाजी अब बाहर आ रहे हैं। अंततः पंडाजी मंदिर से बाहर निकले। वे प्रह्लाद कुंड की ओर बढे। उसी बीच हवा का एक झोंका चबूतरे की ओर आया। आग की लपलपाती लौ चबूतरे की ओर झुकी। लौ की तपन से बचने की जुगत में दर्शकों में खलबली मच गयी। वे पीछे हटे। भीड़ के दवाब से मेरा स्थान छूट गया। अब, मैं दूसरे स्थान से फोटो खींचने का यत्न करने लगा। जिज्ञासु दर्शक बीच बीच में उचक जाते थे। काफी परेशानी हो रही थी। जलती हुई होली का धुंआ भी परेशानी का सबब बना हुआ था। मेरा कैमरा स्पष्ट अंकन नहीं कर सका। पास खड़े कुछ युवाओं में से एक लड़का अपने साथी के कंधे पर बैठ गया था। उसकी कमेंटरी से इतना तो पता चल गया कि पंडाजी होलिका में प्रवेश कर बाहर निकल आये हैं तथा मंदिर में प्रवेश कर गये हैं। मैंने अपना रूख मंदिर की ओर किया। सोचा कि पंडाजी का हाल देखते हैं। भीड़ में किसी तरह जगह बनाता हुआ मैं मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुंचा। वहां मुझे टी.वी. चैनलवाले मिले। वे भी पंडाजी का इंटरव्यू लेना चाह रहे थे। लेकिन हमें बताया गया कि भीड़ से से बचाने के लिए पंडाजी को एक घर में पहुंचा दिया गया है और अभी उनसे मिलने की इजाजत नहीं हैहमने उस घर को तलाश कर, पंडाजी से मिलने का प्रयास भी किया किन्तु हमें सफलता नहीं मिली।


चैनल के पत्रकार ने मुझसे पूछा, “आपको यहां कैसा लगा?'' मैंने कहा, “यह आयोजन अनूठा हैलेकिन व्यवस्था माकूल नहीं है। अतः पंडाजी के होली प्रवेश को देख पाना सबके बस का नहीं। स्थानीय ग्राम पंचायत अथवा प्रशासन को इस ओर ध्यान देना चाहिए। हां, यहां के लोगों के आतिथ्य सत्कार की ललक वाकई अद्भुत है''


फालैन की होली के बारे में सुना जाता था कि जलती हुई होलिका में प्रवेश करने पश्चात् पंडा ‘डांडे' (डंडे) को भस्म होने से पूर्व ही निकाल लाता था क्योंकि मान्यता है कि वह भक्त प्रह्लाद का प्रतीक है किन्तु अब वैसा नहीं होता है। वहां उपस्थित लोग यह भी कह रहे थे कि पहले पंडा लकड़ियों की दहकती अग्नि से निकल जाता था जबकि अब वह अग्नि उपलों(कंडों) की होती है। इससे उसे अग्नि के बीच में से गुजरने में आसानी होती है। लेकिन मेरा मानना है कि होलिका की जिस अग्नि की प्रचंडता कुछ मीटर दूर स्थित चबूतरे तक दर्शकों में खलबली फैला गयी, उस आग में प्रवेश कर निकल आना विस्मयकारी तो है ही, साथ ही यह अपनी परंपरा के पालन के प्रति अगाध आस्था को भी व्यक्त करता है।