अक्षय कीर्तिजल दुर्ग गागरोन

हाल ही में 21 जून 2013 ई.को यूनेस्को द्वारा राजस्थान प्रदेश के जिन 6 दुर्गों को विश्व विरासत में शामिल किया गया, उनमें इस प्रदेश के झालावाड़ जिले का जलदुर्ग गागरोन भी हैं। समस्त उत्तरी भारत तथा समूचे राजस्थान प्रदेशका एकमात्र प्राचीन शास्त्रोक्त विधि से बना जलदुर्ग गागरोन अपने में एक हजार वर्ष का गौरवशाली इतिहास समेटे है। मध्ययुग में हाड़ौती, मेवाड़, मालवा और गुजरात का केन्द्र बिन्दु रहा यह दुर्ग देशका एक मात्र ऐसा दुर्ग है, जहाँ शक्ति के साथ भक्ति के हिन्दु-मुस्लिम धर्म की महान् आस्था के दो तीर्थ भी हैं, जिन्होंने देश के इतिहास में इस दुर्ग की संस्कृति का निर्माण किया और उसे गाया। विश्व विरासत में शामिल जलदुर्ग गागरोन में 21 जून 2013 को पुरातत्व विभाग झालावाड़ तथा स्थानीय संस्थाओं ने मिलकर आतिशबाजी की ओर जनता ने मिलकर मिठाईयाँ बाँटी। इस अवसर पर यूनेस्को टीम को गागरोन का दौरा करवाने वाले, गागरोन पर लेख एवं पुस्तक लेखन का कार्य करने व जन-जन में गागरोन को प्रचारित करने के लिये इतिहासविद् ललित शर्मा का भव्य जन सम्मान भी किया गया। इस लेख को ललित शर्मा जी ने अपने गहन अध्ययन के आधार पर लिखा है।



दक्षिण पूर्वी राजस्थान और प्राचीन मालवा के पठारी क्षेत्र में स्थित झालावाड़ जिला मुख्यालय से उत्तर की ओर चार किलोमीटर दूर तथा आहू और कालीसिन्ध सी वेगवती सरिताओं के संगम व मुकंदरा पर्वतमाला की सुदृढ़ चट्टानों पर बना हुआ है-''सदियों पुराना गागरोन का'' “जल दुर्ग।''


शुक्रनीति में जल दुर्ग के लक्षणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है- “जलदुर्ग स्मूंत तज्झैरासमन्तन्महाजलम्' अर्थात् जो जल से घिरा हो उसे जलदुर्ग कहते है। इस दृष्टि से गागरोन का दुर्ग 'जल दुर्ग', की प्राचीन श्रेणी में आता है। इसी शुक्रनीति में वर्णित अनेक दुर्ग लक्षणों में से पाँच लक्षण एक साथ स्वयं में सजोने वाला भी यही एक मात्र दुर्ग है। यथा : इसके तीनों ओर गहरा, बहता जल, दुर्गम पथ, विशाल खाई, मजबूत चट्टानी परकोटा व जल संचय का प्रबन्ध। पूरे देश में एकमात्र यही ऐसा दुर्ग है जो विशाल और अभेद्य चट्टानों पर बगैर नींव के सदियों से आज तक खड़ा हुआ है। इन सभी विशेषताओं को देखते हुए इतिहासकारों ने इसे अपने आप में इकलौता दुर्ग कहा है। सारतः इस दुर्ग क्षेत्र की समूची भौगोलिक व प्राकृतिक स्थिति देशभर में इसे इकलौता बना देती है। मध्यकाल में इस दुर्ग का इतना अधिक महत्व था कि “मआसिरे महमूदशाही'' के प्रख्यात लेखक शिहाब हाकिम ने इस दुर्ग को ''हिन्दुस्तान के सारे दुर्गा (किलों) के कंठहार का बिचला मोती' कहकर प्रशंसित किया है। यहाँ तक कि विश्नोई सम्प्रदाय के महान् प्रवर्तक सन्त जाम्भोजी महाराज ने भी अपने एक 'सबद में अनेक प्रसिद्ध गढ़ों में गागरोन का भी उल्लेख किया है जिससे इसकी ख्याति एवं महत्ता का ज्ञापन होता है।


अजमे हूँतां नागोवाडे, रणथम्भौर गढ़-गागरणों। कुकंम, कांछणी, सोरठि, मरहट तिलंग, दीप गढ़ गागरणो।


समुद्रतल से 1654 फीट की ऊँचाई व मुकंदरा पर्वत की 340 मीटर की ऊँची पहाड़ी पर बना जलदुर्ग गागरोन 23.27 उत्तरी अक्षांश व 76.16 पूर्व देशान्तर में स्थित है। गागरोन ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ पुरातात्विक महत्व का भी महत्वपूर्ण स्थल रहा है। यहाँ से भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं को अनेक पाषाण कालीन उपकरण मिले हैं जो सभ्यता के आदिम युग पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। 1958-59 में गागरोन में पैलियोलिथिक युग के द्वितीय स्तर के पाषाण हथियार जो उत्कृष्ट ग्रेनाइट, जैस्पर पाषाण के बने थे, गागरोन क्षेत्र में ही मिले थे। पुरातत्ववेत्ता डॉ. वी.एस. वाकणकर को गागरोन की कालीसिन्ध नदी के तट पर पूर्वाश्म युग के मानव के ऐसे गोलाश्म उपकरण मिले थे जो कंदमूल उत्खनन व मासांदि काटने के काम आते थे। बाद में उन्हें अश्युलीय उपकरण भी मिले जिसमें कुदाल, कुठार, तक्षणी आदि थे जिनका अनुमानतः काल 1 से 5 लाख वर्ष के मध्य का है। डॉ. वाकणकर ने इस क्षेत्र में शैलचित्र की खोज 1953 ई. में की थी। उन्हें इस दौरान 1954 ई. में गागरोन दुर्ग के पीछे की बलिण्डा घाट की पहाड़ी में मेसोलिथिक (मध्याश्मीय युग) का हरिण का शैलाश्रय मिला था जिसका काल उन्होंने 10000 व.पू. से 4000 व.पू. आंका था। गागरोन की काली सिन्ध नदी के क्षेत्र में प्रस्तर युगीन मानव की उपस्थिति के भी प्रमाण मिलते है जो एक लाख वर्ष पूर्व के हैं। ऐसे प्रमाण पाषाणों के रूप में हैं। ये ऐसे पाषाणी औजार हैं जो भद्धे और भौंड़े हैं। इनका प्रयोग करने वाला इस क्षेत्र का मानव निरा बर्बर था। 1985 में कोटा एवं झालावाड़ के संग्रहालयों के प्रभारियों ने एक शोध अभियान में गागरोन दुर्ग के तलहटी क्षेत्र व काली सिन्ध तथा आहू के संगम क्षेत्र में मध्य पाषाण काल के उपकरण (STONETULS) खोजे थे जिनमें कुल्हाडे, स्क्रेपर, अस्ताग्र आदि शामिल हैं। लगभग 3 वर्ष पूर्व लेखक को शोध के दौरान गागरोन दुर्ग के आन्तरिक भवनों की भूमि से सफेद, सलेटिया, भूरे व गेहूए रंग के चमकदार व सलीके से कटे चौकोर लघुपाषाण उपकरण मिले थे जिनकी पुरातात्विक जाँच में इन पाषाणों को सम्भावना रूप में चैलियोलिथिक (ताम्रपाषाण काल) के बताये थे। रिपोर्ट में इन उपकरणों को 'स्क्रेपर' की श्रेणी में दर्शाया गया। इनका निर्माण Coutrol Flaking Technique है हुआ था और रेखांकित किया गया कि ये उपकरण Working Edge esa inverse Techinque is Retouchin द्वारा बनाये गये थे। इनका उपयोग राजस्थान स्थित ताम्रपाषाण युग के मानव समूह द्वारा किया गया होगा।


पुरातात्विक महत्व के अलावा गागरोन का सम्बन्ध पौराणिक मान्यता के क्रम में भगवान कृष्ण के पुरोहित गार्गाचारी से भी जोड़ा जाता है, जिनका पूर्व युग में यह क्षेत्र निवास था। इम्पीरियल गजेटियर में इस प्राचीनता को प्रकट करने वाली इस मान्यता का उल्लेख हुआ है। यथा - “The village (Gagron) is belived to be very ancient and it is said to have been called “Gargashtar aftar Gargachari the purohit of Shri Krishana who lived here. Others identify it as the Gargaratpur of ancient writings, from which, the Hindu astronomer Garga calculated longitude.”


कहा जाता है कि इसका पुराना नाम 'गलका नगरी' था। यहाँ 92 रमणीक देवालय थे जिनके कई ध्वसाशेष आज भी यहाँ देखे जा सकते हैं। यहाँ का 100 वर्षीय ज्योतिष पंचाग कभी राष्ट्र भर में प्रसिद्ध था। गागरोन के पूर्व में उनके नाम मिलते हैं। यथा- गर्गारण्य, गगरूण, धुलरगढ़, गलका नगरी, गोगारन, ढोलरगढ़ गर्गराट आदि। मध्यकाल के फारसी ग्रन्थों में गागरोन दुर्ग का नाम कारकून मिलता है।


इस दुर्ग के निर्माण के बारे में कई मान्यतायें हैंमुंशी मूलचंद के अनुसार गोगा चौहान नामक एक राजा ने रणथम्भौर लूटकर अर्जित धन से इसका निर्माण करवाया। उस समय इस दुर्ग का नाम उसके नाम पर 'गोगारन' था। गौगा चौहान का राज्य अजमेर से सतलुज नदी तक था। वह अजय पाल की तीसरी पीढ़ी में थाइसी क्रम में एक अन्य मान्यता है कि दौलत कविकृत स्व॒म्माण रासो ग्रन्थ का हवाला इतिहासकार जेम्स टाड ने देते हुए लिखा है जिसमें गागरोन का जिक्र आता है कि सन् 812 से 836 ई. तक राजा खुम्माण ने चित्तौड़ पर राज्य किया। उसके काल में चित्तौड़ पर खुरासान के बादशाह 'मामुन' ने आक्रमण किया। उसी आक्रमण पर राजा खुम्माण की ओर से जो नरेश युद्ध में लड़े उनमे गागरोन के खींची नरेश भी थेइस बात से सम्भावना प्रकट होती है कि राजा खुम्माण के उक्त युग में गागरोन दुर्ग का निर्माण हो चुका था। कालान्तर में इस दुर्ग का कई बार परिवर्धन एवं विस्तारण हुआ जो 18वीं सदी तक रहा।


ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार पूर्व में गागरोन पर डोड़ राजपूत बीजलदेव डोड़ का शासन था। उसी के नाम पर इसका नाम 'डोड़गढ़' या 'धूलर गढ़' था एवं इसके अन्तर्गत इक्यावन परगने थे। बीजलदेव का विवाह बूंदी के पास 'खटकड़' के राजा पिलपिंजर खींची की पुत्री और देवनसिंह (घारू) की बहिन गंगाबाई से हुआ था। बाद में किसी षड़यन्त्र के तहत देवनसिंह ने धूलरगढ़ पर चढ़ाई कर अपने बहनोई बीजलदेव को मार दिया। इससे गंगाबाई सती हो गई। बाद में देवनसिंह ने अपनी बहिन 'गंगा' के नाम पर इसका नाम 'गंगारमण' या 'गागरून' रखा। इस घटना का समय 1250 ई. माना जाता है। गागरोन में खींची वंश का संस्थापक भी इसी देवनसिंह को माना जाता है। उसके अधीन मालवा के 52 परगने थे। उसके बाद यहाँ का शासक चंडपाल रहागागरोन के खींची राजवंश में यहाँ एक से बढ़कर एक वीर और प्रतापी शासक हुये। देवनसिंह और चंडपाल के बाद 1303 ई. में गागरोन के राजा जैतसी खींची हुए जिन्होंने मालवा के सुल्तान कमालुद्दीन को मारा था। जैतसी के समय बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को सेना ने गागरोन पर आक्रमण किया था परन्तु जैतसी ने उसका सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था। इस प्रतिरोध में मालवा के एक शासक महलकदेव ने जैतसी खींची की काफी सहायता की थी। स्वयं जैतसी के भाई धारू जी खींची ने इस युद्ध में अतुल वीरता का प्रदर्शन किया था। जैतसी खींची के समय मे गागरोन में अल्लाह के एक वली और ख्यात नामक सूफी सन्त 'ख्वाजा हमीदुद्दीन चिश्ती का आगमन हुआ था। जिनकी आज भी गागरोन दुर्ग में विशाल दरगाह हैवे आज भी ''मिठे साहब' के नाम से लोक में पूजे जाते हैं। वहीं खजीनतुल असफिया (फारसी) में ख्याजा सा. का पर्दा करना (स्वर्गवास) 1003 हिज़ी में बताया गया है एवं उन्हें ''शेख मिठ्ठ'' (काकरूनी) लिखा है।


जैतसी खींची के बाद गागरोन में सादल जी उर्फ सांडन सिंह व उसके बाद सांवत सिंह राजा हुए। उसके पश्चात् क्रोध सिंह उर्फ कड़वा राव गागरोन के राजा बने। क्रोध सिंह के बाद गागरोन का राज्य उसके बड़े पुत्र प्रतापराव के हिस्से में आया। बाद में राजा प्रतापराव ने गागरोन का सारा राजपाट और वैभव त्याग कर एवं काशी जाकर प्रख्यात संत रामानंद का शिष्यत्व धारण किया। तब वे देशभर में 'सन्त पीपा जी' के रूप में जाने गये। उल्लेखनीय होगा कि प्रतापराव (पीपाजी) के गागरोन राज्यकाल में दिल्ली का सुल्तान फिरोज तुगलक था। उसने सरदावतदर और जर्द फिरोज के नेतृत्व में सेना भेजकर गागरोन पर आक्रमण करवाया परन्तु उसमें उसे पराजय मिली। गागरोन पर खींचियों का अधिकार बना रहा। प्रतापराव (पीपाजी) ने गागरोन का राज्य अपने भतीजे कल्याण राव को दिया। कल्याण राव के बाद भोजराज गागरोन के शासक रहे।


इसी भोजराज का पुत्र अचलदास खींची गागरोन का सर्वाधिक ख्यातनाम शासक हुआ। उसके शासन काल में गागरोन का सबसे विराट युद्ध और जौहर हुआ। यह अचलदास मेवाड़ के महाराणा मौकल का दामाद था। उसकी पटरानी 'लाला मेवाड़ी' मौकल की पुत्री और राणा कुम्भा की बहिन थी। 1423 ई. में माऊँ के सुल्तान होंशगशाह गौरी ने एक विशाल सेना के साथ गागरोन पर आक्रमण कर दिया। इसमें गौरी के साथ 84 हाथी, 30 हजार घुड़सवार व हजारों योद्धा थे। उसकी फौज में खेरला धार, उज्जैन के अमीर, गौरी के पुत्र, बूंदी का राजा, देवड़ा हिन्दुराय, मालदेव दूसरा व समरसिंह सरीखा थे। इधर मानधनी अचलदास ने अधीनता स्वीकार करने की अपेक्षा युद्ध करना अधिक उचित समझा। अतः दोनों ओर से गागरोन में युद्ध आरम्भ हुआ जो 13 सितम्बर 1423 से 27 सितम्बर 1423 तक चला। इसमें अचलदास शत्रुओं का वीरतापूर्वक मुकाबला करता हुआ काम आया और उसके अंतःपुर की सहस्रों ललनाओं ने जौहर कर स्वयं को चिता की लपटों में समर्पित कर दिया। उल्लेखनीय होगा कि उक्त युद्ध से पूर्व अचलदास ने अपने श्वसुर मोकल से सहायता चाही थी परन्तु तब तक समय निकल चुका था। अन्ततः वंश रक्षार्थ अचलदास ने अपने पुत्र 'पाल्हणसी' को सुरक्षित रखा। सुरक्षित रहने वालों में अचलदास का एक चारण कवि 'गाडण शिवदास' भी था जिसने उक्त युद्ध का आँखों देखा हाल डिंगल भाषा में 'अचलदास खींची री वचनिका' में लिखा है। यह वचनिका प्राचीन राजस्थानी गद्य साहित्य (चम्पू काव्य) का उत्कृष्ट नमूना है। इसमें तत्युगीन इतिहास पूर्व-परम्परा, सभ्यता- संस्कृति भी उद्घाटित हुई है इसलिये इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। यह वीर रस प्रधान कृति भी है। इसकी ओजस्विता, सत्य और कवित्व से प्रभावित होकर डॉ. टैक्सीटोरी ने इसके बारे में लिखा है :- The graet clas- sical Model (वचनिका प्राचीन राजस्थानी साहित्य की उत्कृष्ट सांस्कृतिक निधि है) 



1423 ई. में गागरोन को हस्तगत करने के पश्चात् गौरी ने इसे अपने पुत्र गजनी खाँ को सौपा जिसने इस दुर्ग को विस्तारित करवाया। गजनी खाँ जब माँड़ का सुल्तान बना तब 1436 ई. में उस धोखे से विष पिलाकर मार दिया गया। उसने पहले अपने सरदार बॅदर खाँ को फिर उसकी मृत्यु के बाद दिलशाद को गागरोन दुर्ग का दुर्गाध्यक्ष नियुक्त किया। इसी दिलशाद के समय अचलदास के पुत्र पाल्हणसी ने गागरोन पर पुनः अपना आधिपत्य स्थापित किया। उस समय महाराणा कुम्भा मेवाड़ का शासक था। (जो पाल्हण का मामा था) इस क्रम में 'कुम्भलगढ़ प्रशस्ति' के अनुसार कुम्भा ने मालवा-विजय से लौटते हुए गागरोन दुर्ग को भी विजय कर उसे अपने भाँजे पाल्हणसी को सौंप दिया था। इस प्रकार पाल्हणसी ने दुर्ग विजित कर अपने पिता की अन्तिम इच्छा को पूरी कर दिखाया। उसके समय महमूद खिलजी को जब केन्द्रीय मेवाड़ में कोई सफलता हाथ नहीं लग पाई तब उसने अपना ध्यान हाड़ौती, खींचीवाड़ा पर केन्द्रित किया। उस समय गागरोन दुर्ग हाड़ौती, मालवा और मेवाड़ की सीमाओं पर स्थित होकर राजनैतिक आकांक्षा का चर्चित केन्द्र था। अतः महमूद खिलजी ने सारा ध्यान प्रथमतया गागरोन पर ही केन्द्रित किया। ''मआसिरे-महमूदशाही'' के अनुसार महमूद एक विशाल सेना लिये गागरोन की ओर बढ़ चला। चूंकि यह दुर्ग आहू नदी और काली सिन्ध नदी के किनारे (संगम) पर था। महमूद ने अपना शिविर आहू के किनारे 13 शव्वाल 847 हिज्री (3 फरवरी 1444) को लगाया। आहू से आगे बढ़ता हुआ वह काली सिन्ध के पास आया और उसने दुर्ग का घेरा डाल दिया। पाल्हणसी इस दुर्ग का अधिपति था तथा उसने दुर्ग में पर्याप्त सैन्य सामग्री व रसद इकट्ठा कर रखा थी। महमूद ने घेरा डालते ही दुर्ग की बुर्ज पर आक्रमण कर दिया। पाल्हणसी ने विगत 7 वर्षों से दुर्ग की रक्षा की पूरी तैयारी कर रखी थी। फिर भी उसने अपने मामा महाराणा कुम्भा से सहायता माँगी। कुम्भा ने धीरा उर्फ धीरजदेव के नेतृत्व में युद्ध उपकरणों व दो कमान-राड़ भारी पाषाण (शत्रु पर फेंकने का यन्त्र) से सुसज्जित एक सैन्यदल मदद हेतु गागरोन भेजा। दोनों तरफ से भीषण युद्ध हुआपरन्तु सातवें दिन धीरजदेव मारा गया चूँकि पाल्हणसी उसकी सलाह से युद्ध का संचालन कर रहा थाअतः उसकी हिम्मत टूट गई। विजय की आशा न देख वह अपने कुछ साथियों सहित जंगल में निकल गया परन्तु दुर्भाग्य से उसका पाला जंगल के बर्बर भीलों से पड़ गया जिन्होंने उसका व उसके प्रत्येक साथी का वध कर डालादुर्ग में धीरजदेव की मृत्यु व पाल्हणसी के वध का समाचार सुन गागरोन के राजपूतों में भय छा गया जिसके फलस्वरूप उन्होंने जौहर का आयोजन किया जिसमें बच्चे, बूढ़े, महिलायें जल मरे व कुछ ने जहर खा लिया तथा कुछ ने तलवार से अपने ही फिर काट डाले। जब जौहर की लपटों में रात में दिन का सा उजाला और हाहाकार मचा तब शाही सेना ने किवाड़ तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया तो दुर्गवासियो के जले शरीर, मस्तक, धड़ व रत्नाभूषण बिखरे पड़े थे। शाही सेना ने उन्हें लूटा, बचे सैनिकों को बन्दी बनाया महिलाओं व सोना चाँदी को हथियाया। महमूद ने दुर्ग पर अधिकार कर इसका नाम 'मुस्तफाबाद' रख दिया। जफरूलवालेह' ग्रंथ में भी उक्त घटना का हवाला प्राप्त होता है परन्तु उसमें गागरोन दुर्ग नाम ''काकरून मिलता है।


महाराणा सांगा के समय मेवाड़ की शक्ति काफी विकसित हो चुकी थी और मालवा का बड़ा भाग उसके अधिकार में आ चुका था, जिसमें गागरोन दुर्ग भी था। इसी समय माँडू के सुल्तान महमूद खिलजी (द्वितीय) द्वारा निर्वासित सामन्त मैदिनीराय ने राणा सांगा की शरण प्राप्त की और राणा ने उसे गागरोन की जागीर प्रदान कर अपना सरदार बनाया। 1519 ई. में महमूद (द्वितीय) ने उक्त बात से चिढ़कर मैदिनी राय को दण्ड देने के लिये गागरोन दुर्ग पर आक्रमण कर दियाउस समय मैदिनी राय की ओर से गागरोन दुर्ग पर भीमकर्ण शासन कर रहा थाइस आक्रमण से पूर्व महमूद ने मैदिनी राय के पुत्र नत्थु को मार डाला था और इसी समय मैदनीराय राणा सांगा के पास सहायता के लिये भी गया हुआ था। इस परिस्थिती में यह सम्भव था कि युद्ध की घड़ी टल जाती परन्तु नत्थु के मरने की घटना का पता चलते ही राणा सांगा ने 50 हजार की सशस्त्र सेना के साथ गागरोन की ओर प्रयाण कियागागरोन में 1519 ई. में राणा सांगा और महमूद के मध्य घमासान युद्ध हुआ जिसमें महमूद बुरी तरह घायल होकर गिर पड़ा व कैद कर लिया गया। युद्ध में उसके सेनानायक व आसफ खाँ मौत के घाट उतार दिये गये। राणा ने कुछ समय तक महमूद को बन्दी बनाकर मेवाड़ में रखा और बाद में उत्तम व्यवहार करने की प्रतिज्ञा पर मुक्त कर दिया। इस घटना से राणा सांगा की काफी प्रशंसा हुई।


यहाँ यह भी उल्लेख आवश्यक होगा कि मुगलवंश के संस्थापक बाबर के पत्रानुसार राणा सांगा विलायत हिन्द में ऐसा गालिब था जिसके पास बड़े-बड़े सरदार और फौजें थी। इनमें शुभदेव खींची गागरोन दुर्ग का 6 हजार सवारों का सरदार (मालिक) भी था। बाबर के पत्र से ज्ञात होता है कि राणा सांगा ऐसे बड़े सरदारों के साथ चैत्र शुक्ल 15, सन् 1527 तारीख 16 मार्च को खानुवा मैदान में आये थे। इस प्रमाण से ज्ञात होता है कि 1527 ई. में गागरोन दुर्ग पर शुभदेव खींची राणा सांगा की ओर से अधिकृत था तथा संभवतः उसने मैदिनीराय को गागरोन के बाद चंदेरी का ही सामन्त बनाया होगा। 1532 ई. में बहादुर शाह गुजराती ने मेवाड़ (चित्तौड़) पर अभियान करने से पूर्व गागरोन पर आधिपत्य किया था1540 ई. में शेरशाह सूरी हिन्दुस्तान का बादशाह बना और 1542 ई. में उसने मालवा पर चढ़ाई की व मालवा के अधिकांश भू-भाग सहित गागरोन पर भी उसका अधिकार हो गया। एक अवसर पर वह ग्वालियर से रवाना होकर सीधा गागरोन आया था, जहाँ रायसेन के पूरणमल ने उससे भेंट की थी। गागरोन से वह सांरगपुर गया था। 


सम्राट अकबर भी 1561 ई. में अधम खाँ की बगावत को दबाने के सिलसिले में मालवा आया तब उसने गागरोन दुर्ग पर घेरा डाला था। उस समय गागरोन में बाजबहादुर का कोई सामन्त अधिकृत था जिसने वक्त की नजाकत को देखते हुए अकबर से लड़ना व्यर्थ समझकर यह दुर्ग उसके हवाले कर दिया। इस प्रकार गागरोन पर मुगलों का आधिपत्य हो गया। इस मध्य खिची चौहानों ने संगठित हो अपने पैतृक संस्थान गागरोन दुर्ग पर पुनः अधिकार स्थापित करने हेतु रायसल खींची के नेतृत्व में अपना संघर्ष जारी रखा किन्तु मुगल सेनानायक आम्बेर के कुंवर मानसिंह और उसके भतीजे राव खंगार ने उनके इरादे विफल कर दिये। 1567 ई. में पुनः अपने चित्तौड़ अभियन के लिये जाते समय अकबर कुछ दिनों के लिये गागरोन दुर्ग में ठहरा था। वहाँ अबुल फजल के बड़े भाई ''फैजी'' ने उससे भेंट की थीअकबर ने गागरोन दुर्ग बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र व अपने दरबार के नवरत्न ''पृथ्वीराज को जागीर में दिया था जो एक भक्त कवि और वीर-योद्धा था। विद्वानों का मानना है कि ''वेलिकिसन रूकमणी री' ग्रन्थ को पृथ्वीराज ने गागरोन में ही रहकर लिखा था। कारण ''वेलि' का प्राकृतिक वर्णन गागरोन दुर्ग व क्षेत्र की नैसर्गिक सुषमा और अति-सुरम्य परिवेश से साम्यता रखता है तथा यह सन्तों की भक्ति भावना व तप की स्थली भी रहा है। राजस्थानी काव्य की अमृत स्राविंणी 'वेलि' मूलतः एक खण्डकाव्य है जिसमें कृष्ण और रूकमणी के प्रणय एवं विवाह की कथा का समावेश है। यह सहृदय रसिकों का हार, भावुक भक्तों की माला और पंडितों की कसौटी रही है। वेलि डिगंल साहित्य को पृथ्वीराज की अपनी एक अपूर्व देन है। वेलि पाचँवे वेद की सृष्टि के रूप में भी मान्य है।


अकबर के समय (मुगल काल) में गागरोन दुर्ग का सामरिक महत्व इस तथ्य से प्रकट होता है कि “आईने-अकबरी'' में गागरोन का उल्लेख मालवा सूबे की एक सरकार के रूप में किया गया है। स्वयं अकबर ने इस दुर्ग में एक मेगैजीन (गोला- बारूद का भण्डार) बनवाया था। उसके शासन काल में इस दुर्ग का सुरक्षा अधिकारी (हाकिम) कल्याणमल का पुत्र सुल्तान सिंह राठौड़ था जो बीकानेर का था। 1567 ई. के सितम्बर-अक्टूबर माह में अकबर ने आसफ खाँ एवं वजीर खाँ को गागरोन में जागीरें प्रदान की थी। उसके काल में सरकार गागरोन के अन्तर्गत 11 महाल (परगने) थे जिनका कुल जमीनी क्षेत्रफल 63529 बीघा था एवं कुल वार्षिक आय 45 लाख, 35 हजार 794 दाम थी। दाम मूलतः ताँबे का एक सिक्का था, जिसकी संख्या 40 होने पर उसे एक रु. माना जाता था। गागरोन सरकार में निम्न 11 महाल के नाम ही मिलते है जिनके नाम निम्न है :- 1. उरमाल, 2. अकबरपुर, 3. पचपहाड़, 4. चेचट, 5. खैराबाद, 6. रायपुर, 7. सुनेल, 8. सेंदर (सन्धारा), 9. घाटी, 10. गागरोन (समीपवर्ती प्रदेश सहित) एवं 11. नीमथूर। महाल उस समय कृषि से सम्बन्धित भूमि का एक उपभाग होता था एवं परगना उस समय अनेक गाँवों के एक समूह का नाम होता था जिसके प्रमुख को मुखिया कहते थे।


पूर्वोक्त रायसल खींची की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गोपालदास एवं उसके बाद क्रमशः ईश्वर सिंह माधोसिंह और इन्द्रभान महू मैदाना के शासक रहे लेकिन तब तक खींची वंश का प्रभाव नगण्य हो चुका था। इस समय गागरोन के साथ बूंदी व महू-मैदाना (गागरोन के निकट खींची राजाओं का एक शासित स्थल) का प्रश्न उत्पन्न हो गया था। उस समय दिल्ली में जहाँगीर का शासन था, उसी समय बूंदी नरेश राव रतन हाड़ा ने काफी प्रतिष्ठा अर्जित की थी, परन्तु उन्हें गागरोन व उसके अन्तर्गत आने वाले मुख्य स्थल महू- मैदाना, सीसवाली, बडौद के परगने खलते थे। अतः उन्होंने यह परगने अन्तिम रूप में इन्द्रभान से छीन लिये और इस प्रकार जहाँगीर ने राव रतन को पाँच हजारी मनसब और गागरोन दुर्ग प्रदान किया। इन्द्रभान के वंशज रतनसिंह धीरजसिंह व जोराबर सिंह थे जो 1631 ई. तक महू-मैदाना के शासक रहें। बाद में शाहजहाँ ने बूंदी के 8 परगने कोटा महाराव माधोसिंह (1624-1648 ई.) को दिये। कर्नल टड के समय कोटा महाराव का राज्य गागरोन दुर्ग तक था। वहाँ 1631 ई. तक खींची वंश के प्रतिनिधि का शासन था। जो महू-मैदाना के शासक थे। इन शासकों का शासन “गागरोन के राजा' नाम से ही संचालित होता था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद सैय्यद-बंधुओं ने कोटा महाराव को खींचीवाड़ा, उमरवाड़ा के पट्टे दिये। दिल्ली में उस समय की उथल-पुथल के समय गागरोन का शासक चतर सिंह था। बाद में सेहोड़ के युद्ध में कोटा महाराव ने खींचीयों को पराजित किया व गागरोन महराव भीमसिंह के राज्य कोटा में आया। कोटा के महाराव मुकुंद सिंह व शत्रुसाल के समय इस दुर्ग का काफी विकास हुआ और इसमें भवन देवालय बनवाये गये।


गागरोन दुर्ग कोटा राज्य के सेनापति झाला जालिम सिंह के सरंक्षण में काफी फला-फूला। उन्होंने इस दुर्ग को मराठो, पिण्डारियो व अन्य संभावित आक्रान्ताओं से सुरक्षा के लिये यहाँ अनेक भवनों के अलावा एक विशाल परकोटे का निर्माण करवाया जो “जालिम-परकोटा'' कहलाता है। उन्होंने यहाँ कोटा राज्य के सिक्के ढालने की टकसाल भी स्थापित करवाई थी जिसमें चाँदी के सिक्के (सालिम शाही) बनते थे। झाला के समय इस दुर्ग में अनेक राजनैतिक कैदियों को भी नजरबन्द किया आया था। उस समय कोटा राज्य का सबसे शक्तिशाली रक्षक दुर्ग गागरोन ही था। 1817 ई. में झाला जालिम सिंह ने कोटा राज्य की अंग्रेजों से सन्धि करवाने में सफलता प्राप्त की जिससे यहाँ पर अंग्रेजों का प्रभाव हो गया और इसी सन्धि के बाद से गागरोन दुर्ग की महत्ता समाप्त हो गई। यह दुर्ग 1948 ई. तक कोटा राज्य व बाद में कोटा जिले में रहा। 1975 ई. में यह दुर्ग झालावाड़ जिले के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया।


सारतः गागरोन के इस दुर्ग ने इतिहास के अनेक झटके झेले हैं और अनेक राज्य लक्षमियों के उत्थान और पतन का यह एक मूक साक्षी है।


गागरोन दुर्ग की प्राकृतिक, पर्यटन व स्थापत्य की विशेषता


जहाँ तक गागरोन दुर्ग के प्राकृतिक परिवेश, पर्यटन, स्थापत्य, निर्माण तथा गौरव-गरिमा का प्रश्न है यह दुर्ग आज भी न केवल हातौड़ी-मालवा में अपितु समूचे उत्तरी भारत में बेजोड़ माना जाता है। गागरोन दुर्ग की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था। ऊँची पर्वतमालाओं की अभेद पाषाणी दीवारों, सतत प्रवाहमान नदियों और सघन वन ने गागरोन को ऐसा प्राकृतिक सुरक्षा कवच प्रदान किया है जो भारत के चंद दुर्गा को ही प्राप्त होगा। मध्यकाल में मेवाड़, गुजरात, मालवा और हाड़ौती के सीमावर्ती क्षेत्र पर स्थित होने से गागरोन दुर्ग का सामरिक दृष्टि से बड़ा महत्व था। यही तब एक मात्र ऐसा केन्द्र था जहाँ से सभी स्थलों की निगरानी होकर नियंत्रण स्थापित हो सकता था। गागरोन के दुर्ग को अपनी इस सामरिक स्थिती के कारण कई आक्रान्ताओं के भीषण आक्रमण झेलने पड़े। आज भी यह दुर्ग देश भर में जल दुर्ग का वैल्लोर किले के बाद द्वितीय स्थान पर अपना महत्व रखता है।


यह दुर्ग अपने अनूठे स्थापत्य व पर्यटन के कारण भी उत्कृष्ट है। दुर्ग के निर्माण में भौगोलिक स्थिति का पूरा उपयोग करते हुए इसकी बनावट पहाड़ी की बनावट के अनुरूप रखी गयी है। सारत : गागरोन का दुर्ग पर्वतमाला के आकार से इस प्रकार मिल गया है कि दूर से सहसा दिखलाई नही पड़ता। अपनी बनावट की इस अद्भूत विशेषता के कारण शत्रु के लिये दूर से दुर्ग की स्थिति का अनुमान करना कठिन अवश्य रहा होगा। वृहदाकार पाषाणी शिलाओं से निर्मित इस दुर्ग की ऊँची प्राचीरें, विशालकाय बुर्जे तथा सतत जल से भरी रहने वाली खाई, घुमावदार आन्तरिक एवं सुदृढ़ प्रवेश द्वार इन सबकी वजह से गागरोन दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था को भेद पाना किसी भी शत्रु के लिये लोहे के चने चबाने से कम नहीं था।


दुर्ग के ऐसे स्वरूप की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कर्नल टाड ने अपने ग्रन्थ 'एनाल्स... भाग-2, पृष्ठ 589-90 में लिखा है -


“Until you approach close to Gagrown its town and castle appear until and present a bold and is only on mounting the ridge that one per- ceives the strength of this position the rock being scraped by the action being scraped by the action of the waters toon immense height..... On whichever side on enemy might approach it he would have to take the bull by the horn is."


तीन सुदृढ़ परकोटो से सुरक्षित गागरोन दुर्ग के प्रवेश द्वारों में कृष्ण द्वार, भैरवपोल, गणेशपोल व सूरजपोल प्रमुख है। दुर्ग की विशाल एवं सुदृढ़ बुर्जा में रामबुर्ज, लक्ष्मण बुर्ज, चौबुर्ज, चूड़ी बुर्ज उल्लेखनीय हैं। प्राचीन काल में दुर्ग के मुख्य प्रवेश, द्वार पर लकड़ी का उठने वाला पुल बना था। इस प्रकार लंका सामान गागरोन दुर्ग के विशिष्ट स्थलों में बारूद खाना, सीलहखाना, राजा अचलदास का महल, मधुसुदन मन्दिर, द्वारिकाधीश का देवालय, आशापाला का मन्दिर, मदन-मोहन मन्दिर, ख्वाजा सा. की दरगाह, बुलन्द- दरवाजा, दरीखाना, रंग-महल, शीश महल एवं बाहर संत रामानंद की स्मृत आगमन छतरी, नदी संगम पर पीपाजी का मठ, एवं दुर्ग के पृष्ठ में बलिण्डा गणेश दर्शनीय है। इसी सथल के आगे की एक ऊँची पहाड़ी को 'गीध-कराई' (ऊँचाई 307 फीट) कहते हैं। कहा जाता है कि पुराने समय में जब किसी बन्दी व्यक्ति को मृत्युदण्ड देना होता था तब उसे इस पहाड़ी के शीर्ष से नीचे गिरा दिया जाता था जहाँ सैकड़ों गिद्धों का जमावड़ा रहता था।


गागरोन दुर्ग भारत में जलदुर्ग का प्राचीन उदाहरण हैं। यह जल दुर्ग की श्रेणी में आता है। क्योंकि यह तीनों ओर से आहू तथा काली सिन्ध नदी से घिरा हुआ है। आहू तथा काली सिन्ध यहाँ विपरीत दिशा से बहती हुई आकर इसी दुर्ग के नीचे दक्षिण में मिल जाती हैं। जहाँ ये दोनों नदियां मिलती है वह स्थल 'समेल जी' के नाम से पवित्र और पूज्यनीय माना जाता है। यहीं से एकाकार होकर ये नदियां दुर्ग भाग की परिक्रमा करती एयं चट्टानों के बीच अठखेलियां करती प्रचण्ड वेग से दुर्ग के समानान्तर प्रवाहित होती हुई उत्तर की ओर बलिण्डा घाट से निकल कर आगे की ओर प्रवाहित हो जाती है। बलिण्डा घाट की पहाड़ी में प्राकृतिक रूप से बनी गणेश जी की प्रतिभा दर्शनीय है। वही समेल जी के ऊपर वाले स्थान पर गागरोन के पूर्व प्रतापी नरेश संत शिरोमणि पीपा जी महाराज का मठ ओर पवित्र समाधि है।


इस प्रकार अरावली की मुकंदरा पर्वतमाला की गोद में स्थित व उसकी परिक्रमा करती उक्त दोनों सरिताओं की अविरल जलधारा से घिरा गागरोन दुर्ग सुन्दर एवं मनोहरी दृश्य उत्पन्न करता है। दुर्ग के चारों और फैले आमझार वन-प्रान्तर की शोभा में नाना प्रकार के पक्षी कलरव करते रहते हैं। गागरोन के पक्षियों में आदमी की बोली में हूबहू बोलने वाले 'राय तोते' बहुत प्रसिद्ध हैं। माना जाता है कि चित्तौड़ की रानी पद्मनी के पास जो 'हीरामन तोता था वह इसी प्रजाति का थागागरोन की पहचान देशभर में इन सुन्दर तोतों के नाम वाले दुर्ग के रूप में भी की जाती है। इतिहास लेखक कर्नल टाड जब गागरोन आया तब वह वहाँ का प्राकृतिक परिवेश देख मुग्ध हो गया था। इसी आशय को उसने इस प्रकार लिखा है।


“Independent of ancient association there is a willd grandeur about Gagrown which makes it well Worthy of a visit."


गगरोन का जलदुर्ग दक्षिण-पूर्वी राजस्थानके झालावाड़ जिला मुख्यालय से 4 किलोमीटर उत्तर दिशा की ओर स्थित है। दिल्ली-मुम्बई रेल्वे लाईन के मध्य कोटा जंक्शन से झालावाड़ मुख्यालय दक्षिण में मात्र 85 किलोमीटर की दूरी पर है। उत्तरी भारत के यात्रियों एवं पर्यटकों को वायुसेवा से यहाँ पहुँचने के लिये यहाँ का निकटतम हवाई अड्डा राजस्थान में कोटा अथवा जयपुर एवं दक्षिण के पर्यटकों के लिये मध्यप्रदेश के इन्दौर महानगर का हवाई अड्डा सबसे निकट है। जयपुर, उदयपुर, इन्दौर, दिल्ली से सीधी राजकीय बस सेवा भी मुख्यालय झालावाड़ के लिये उपलबध है। अब विश्व विरासत में चयनित होने से इस जलदुर्ग का पार्यटनिक वैभव सैलानियों को आकर्षित करेगा। सर्दी एवं वर्षा ऋतु में जब नदियों का अथाह जल प्रवाह इस दुर्ग के तीनों ओर से प्रवाहित होता है तो इसका दृश्य सचमुच रोमांचक हो जाता है। ऊपर नीले अम्बर और नीचे प्राकृतिक हरियाली की विशाल गोद में सघन जलराशि से आवृत जलदुर्ग गागरोन सचमुच विश्व विरासत की महत्त्वपूर्ण निधि है।