भारत का अभेद्य दुर्गम दुर्ग समूह है :सतगढ़

भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रतीक छत्तीसगढ़ अंचल का अपना एक विशिष्ट योगदान रहा है। अतीत से ही हिन्दुस्तान के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के दक्षिण पूर्वी हिस्से पर अवस्थित छत्तीसगढ़ का अपना एक विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व रहा है। अतीत में यह दक्षिण कोसल, महा-कोसल, महाकान्तार, दण्डकारण्य आदि नामों से जाना जाता था और हर युग में इसका अपना एक विशेष महत्व था। इस क्षेत्र में वर्तमान रायपुर, दुर्ग, बस्तर, बिलासपुर, सरगुजा और रायगढ़ जिलों का क्षेत्र ही नहीं अपितु उड़ीसा के सम्बलपुर जिले का भी बहुत सा भू-भाग सम्मिलित था।



भारतीय इतिहास और संस्कृति को सर्वथा सर्वागीण रूपेण परिपूर्ण बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि भारत के विभिन्न प्रदेशों विशिष्ट क्षेत्रों और अनेक प्रयोजनीय अंचलों के इतिहास संस्कृति, साहित्य तथा उलाओं का व्यापक अध्ययन ही नहीं परन्तु उनका समुचित रूपेण उपयुक्त समाकलन भी किया जावे। इनके अध्ययन की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। संप्रति कई ऐसे क्षेत्र या प्रदेश हैं, जिनका प्राचीनकाल में कभी विशेष महत्व था परन्तु मध्यकाल में अन्यत्र स्थित तत्कालीन सत्ता, व्यापार अथवा अथवा संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रेरक केन्द्रों से असम्बद्ध होने के कारण ही उनकी प्राचीन परम्पराएँ विछन्न हो गई और पश्चात् कालीन नवीन राजनीतिक परिस्थितियों तथा बदलते हुए प्रशासनिक पुनर्गठनों में उनके महत्वहीन बने रहने के कारण ही उनका विकास नहीं हो पाया।


प्राचीन भारत के जिन ऐतिहासिक क्षेत्रों को मध्यकाल से लेकर अब तक उपर्युक्त अवहेलना अथवा विस्मरण जन्य बाधाओं तथा कठिनाइयों का निरन्तर सामना करना पड़ा है। उनमें विशेष रूपेण उल्लेखनीय दक्षिण कोसल प्रदेश है। मध्यकाल में वहाँ गोंड़ों का प्राधान्य हो जाने के कारण ही फारसी इतिहास ग्रंथों में उसे गोंडवाना कहा गया। प्रदेश की सुरक्षा एवं सुव्यवस्थाओं की परियोजनाओं में गढ़ों का महत्व सदैव की सुरक्षा एवं सुव्यवस्थाओं की परियोजनाओं में गढ़ों का महत्व सदैव से रहा है परन्तु यहाँ के मध्यकालीन गोंड़ राज्यों की विशिष्ट सामन्तीय व्यवस्था के कारण उनकी राजकीय सत्ता का जो विशेष विकेन्द्रीकरण हुआ उससे वहाँ के गढ़ों का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया तथा ऐसे महत्वपूर्ण सुदृढ़ गढ़ों की संख्या को लेकर ही यह प्रदेश छत्तीसगढ़ कहलाने लगा और सभी गढ़ों का महत्व सर्वथा समाप्त हो जाने पर भी वही नाम अब तक यथावत् सर्वमान्य बना हुआ है।


भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रतीक छत्तीसगढ़ अंचल का अपना एक प्रतीक छत्तीसगढ़ अंचल का अपना एक विशिष्ट योगदान रहा है। अतीत से ही हिन्दुस्तान के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के दक्षिण पूर्वी हिस्से पर अवस्थित छत्तीसगढ़ का अपना एक विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व रहा है। अतीत में यह दक्षिण कोसल, महाकोसल, महाकान्तार, दण्डकारण्य आदि नामों से जाना जाता था और हर युग में इसका अपना एक विशेष महत्व था। इस क्षेत्र में वर्तमान रायपुर, दुर्ग, बस्तर, बिलासपुर, सरगुजा और रायगढ़ जिलों का क्षेत्र ही नहीं अपितु उड़ीसा के सम्बलपुर जिले का भी बहुत सा भू-भाग सम्मिलित थायह प्रदेश मैकल रायगढ़ और सिहावा की पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा महानदी (चित्रोत्पला) और उसकी सहायक शिवनाथ, माढ, खारुन, जोंक और हसदो नदियों के जल से सिंचित है। इन नदियों के तट पर विभिन्न सभ्यताओं का उदय और विकास हुआ जिनके अवशेष बिखरे हुए होने पर भी प्राचीन छत्तीसगढ़ के गौरव की झोंकी प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। मुगल शाही जमाने में दक्षिण कोसल का नाम छत्तीसगढ़ हो गया था क्योंकि इस राज्य में 36 गढ़ थे।


हैहयवंशी राजा रतनपुर में रात्य करते थेउनके हिसाब की किताबों से 48 गढ़ों का होना पाया जाता है। कदाचित् पहिले 36 गढ़ होंछत्तीसगढ़ प्राचीन चेदिशगढ़ का एक टुकड़ा था। त्रिपुरी अर्थात् तेवर से एक शाखा तुम्मान और उसके पश्चात् रतनपुर में राज्य करती थी।


लाल प्रद्युम्नसिंह ने महाकोसल को ही छत्तीसगढ़ माना है। खैरागढ़ राज्य के दलराम राव ने 1487 में अपनी एक रचना में छत्तीसगढ़ शब्द का प्रथम बार प्रयोग किया है।


लक्ष्मीनिधि राय सुनो चित्त दै, गढ़ छत्तीस में न गदैया रही


मरदुमी रही नहीं मरदन के, केर हिम्मत से न लडैया रही।


भयभाव भरे जन गाँव रे हे, भय है नहीं जाए उरैया रही


दलराम कहै सरकार सुनो, नृप कोऊ न ढाल अद्वैला रही।।


रतनपुर के कवि गोपाल मिश्र ने खूब तमाशा में 1689 में तथा 150 वर्ष बाद बाबू रेबाराम ने विक्रम विलास में इसका प्रयोग किया है। राज्य की शक्ति इंगित करने के लिए गढ़ों की संख्या की जाती थी जैसे बादनगढ़ मंडला, सोरागढ़ नागपुर, बाइस गढ़ उडियान अठारह गढ़ रतनपुर, 18 गढ़ रायपुर छत्तीसगढ़ राज्य में भी रतनपुर राज्य के अन्तर्गत 18 गढ़ शिवनाथ के उत्तर में तथा रायपुर राज्य के अन्तर्गत 18 गढ़ शिवनाथ के दक्षिण में थे। अतः छत्तीसगढ़ के नामकरण में भी 36 गढ़ों का आधार है।


9वीं सदी के अंत में त्रिपुरी के कल्चुरियों ने दक्षिण कोसल में अपनी शाखा स्थापित करने का प्रयत्न किया था। द्वितीय शंकरगण मुग्धतुंग प्रसिद्ध धवल ने पाली देश पर कब्जा किया था जिसका समय ईस्वी सन् 890-910 माना जाता है। बाद में सोमवंशीयों (वर्तमान सोनपुर) के कारण यह शाखा दक्षिण कोसल में कुछ समय सुदृढ़ न रह सकी। अभिलेखों के वर्णनानुसार प्रथम युवराजदेव और उसके पुत्र द्वितीय लक्ष्मणराय ने दक्षिण कोसल पर चढ़ाई कर वहाँ के राजाओं को पराजित किया था, जिसका उद्देश्य सोमवंशी राजाओं को पराजित करना था। द्वितीय कोकल्ल देव के राजकाल (990-1050 के बीच) में कलिंगराज नाम कल्चुरि शासक ने अपने बाहुबल से दक्षिण कोसल को जीतकर तुम्माण नगर में जहाँ से उसके पूर्वजों ने राज्य चलाया था अपनी राजधानी स्थापित की पश्चात् रतनपुर के कल्बुरि राजवंश के अन्तर्गत सन् 1020 के लगभग गद्दी पर बैठा। कमलराज के बाद प्रथम रत्नराज गद्दी पर बैठा। उसने कोभोमंडल के अधिपति बजुक अथवा वजुवर्मन की कन्या नोहल्ल से विवाह किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विवाह से छत्तीसगढ़ पर उसका अधिकार दृढ़ हो गया था क्योंकि उसके बाद के अनेकों ताम्रपत्रों में इसका उल्लेख आया है। रत्नदेव ने अपने नाम से रत्नदेव ने अपने नाम से रत्नपुर नामक अपनी राजधानी स्थापित की थी। यह रतनपुर बिलासपुर जिले में स्थित वर्तमान रतनपुर ही है।


14वीं शताब्दी के अंत में छत्तीसगढ़ का कल्चुरि साम्राज्य विभाजित हो गया। उसकी एक शाखा रतनपुर में अपनी राज्य स्थापित की दूसरी शाखा ने खल्वाटिका (खल्लारी) बाद में रायपुर में अपनी राजधानी स्थापित की। 18वीं सदी के मध्य में (1741) मराठों के आक्रमण होने तक छत्तीसगढ़ में हैहयवंशियों का राज्य रहा।


रतनपुर राज्य की गद्दी पर रघुनाथ सिंह एवं राजपुर में अमरसिंहदेव अंतिम कल्चुरि राजा थे। 1757 में पुर्णतः यह क्षेत्र भोंसलों के अधिकार में आ गया। रावबहादुर हीरालाल ने लिखा है-“जड़ सुखी पुनः सूखे पत्ते अंत। डेढ़ सहस्राब्दिक तरूहि विलंब न लायो झडंत।'' 


प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी कल्चुरि काल छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय माना जा सकता हैम.प्र. का छत्तीसगढ़ अंचल ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ प्राचीनकाल की शासन व्यवस्था अर्वाचीन काल तक चली आई है। छत्तीसगढ़ प्रान्त में मराठों के आक्रमण के साथ ही एक युग की समाप्ति हुई।


मध्य प्रांत एवं बरार के 15 में से 14 रियासतें तथा अनेक जमीदारियाँ छत्तीसगढ़ में रही हैं, जो अधिकांशतः आदिवासी प्रशासकों के प्रभाव में थीआदिवासी अंचल में सुरक्षात्मक दृष्टि से कई गढ़ बने हुए थे। गढ़ अधिकांशतः मिट्टी की दीवारों से घिरे थे। जैसाकि मौर्यकाल में उल्लेख मिलता है। इसका कारण संभवतः बाह्य आक्रमण का भय कम करना था अतः सुदृढ़ प्रस्तर निर्मित किले कम मिलते हैं। कल्चुरि काल में प्रस्तर निर्मित गढ़ अधिक मिलते है।


कल्चुरियों की राजधानी रतनपुर में पुराना किला एवं वर्तमान किला क्षेत्र इसी प्रकार बने हैं। चारों और पहाड़ियों से घिरा हुआ क्षेत्र रहा है अतः सुखा के प्रति अधिक ध्यान दिया गया।


गढ़ामण्डला का गोड़वाना राज्य पर मुगल शासन का प्रभाव पड़ने के कारण रतनपुर राज्य की सुरक्षा व्यवस्था भी मवत्वपूर्ण हो गई थीअतः उसके अधीनस्थ राजाओं ने किलों को सुरक्षात्मक दृष्टि से बनाना प्रारंभ किया। पहाड़ी के नीचे चारों ओर पहाड़ी से घिरे गढ़ बनने लगे। आदिवासियों के लिए सघनवन में निर्मित ये गढ़ एक प्रकार से अभेद्य रहेसुरक्षा की दृष्टि से रतनपुर के राजाओं के प्रयास के कारण उत्तरी-पूर्वी सीमा में अनेक दुर्गों का निर्माण किया गया जो प्रायः आदिवासियों के नियन्त्रण में रहते थे। प्रचीन भारत में दुर्ग सुरक्षा के प्रायः दो साधन थे प्राकृतिक एवं कृत्रिम। कौटिल्य के अनुसार नदी, जल, प्रस्तर समूह भूमि और अरण्य रक्षा के प्राकृतिक साधन थे। अर्थशास्त्र में दुर्ग के चार प्रकार बताये गये 1. आदेक, 2. पार्वत, 3. धान्वन और 4. वन दुर्ग, जिनमें पर्वत दुर्ग को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। पर्वत पर बने दुर्ग सुरक्षात्मक प्रकृति के होते है। उनका घेरा डालना और उनपर चढ़ना आसान नहीं होता क्योंकि इस प्रकार के दुर्ग प्राकृतिक रूप से पत्थरों के ढेर और वृक्षों को शत्रुसमूह पर गिराने की सुविधा प्रदान करते हैं।


रनतनुर राज्य के उत्तर-पूर्व अख्यांचल में कवच सदृश सात ऐसे गढ़ थे जिन्हें सतगढ़ या सतगढ़ा कहा जाता है ये गढ़ गढ़ामंडला के गोड़ राजाओं एवं अन्य बाह्य आक्रमणों से रतनपुर राज्य की रक्षा करते थे। यही के गढ़पति राजा के विश्वस्त जन होते थे। ये सात गढ़ थे 1. पेंड्रागढ़, 2. केंदागढ़, 3. लाफागढ़. 4. मातिन गढ़, 5. उपरोड़ा गढ़, 6. छुरी कोसगई गढ़, 7. चौंपागढ़ (कोरबा क्षेत्र) उस समय आक्रमण का भय उत्तर भारत से ही अधिक था। जो छत्तीसगढ़ राज्य की सीमा से लगी हुई थी। पेंड्रा के जमींदार तंवरवंशी कौरवपोत्र और पदवी लाल, केंदा जमींदार तंवरवंशी कौरवगोत्र ठाकुर पदवी, लाफागढ़ के जमींदार दिल्ली के तोमर क्षत्रीय गंगा कांचुल गोत्र देवान पदवी, मातिन वाले जमींदार तोमर क्षत्रीय कौरख गोत्र देबान पदवी, उपरोड़ा के जमींदार तंवर वंशी कौरव गोत्र देबान पदवी, छुरी के जमींदार चन्द्रमा गोत्र प्रधान पदवी, चाँपा के जमींदार सांडेल गौत्र दादू पदवी धारी थे।


सतगढ़ के दुर्ग विशेषकर लफागढ़ चित्तुरगढ़ एवं कोसगई गढ़ पर्वतीय दुर्ग के शेष केंदा, पेंड्रा, मातिन, उपरोड़, चाँपा वन दुर्ग की श्रेणी में आते हैंपेंड्रागढ़ के अन्तर्गत अमरकंटक क्षेत्र आता था। सुरक्षा का दृष्टि से यहाँ के पर्वत एवं सघन वन महत्वपूर्ण रहे हैं। केंदादुर्ग चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है जो बाह्य आक्रमणकारियों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।


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