चालुक्य (सोलंकी) क्षत्रियों का प्रथम दुर्ग अनलपुर सोरों सूकरक्षेत्र

सहस्राब्दियों पूर्व सोरों सूकरक्षेत्र को वेणु चक्रवर्ती चालुक्य सोलंकी क्षत्रिय ने अपनी प्रथम राजधानी बनाया था, तथा एक विशाल दुर्ग-'अनलपुर' का निर्माण किया था जो सोलंकियों द्वारा निर्मित प्रथम भवन था। वेणु चक्रवर्ती सोलंकियों के आदि पुरुष हारीतदेव के पुत्र थे।


यहाँ में संक्षेप में 'चालुक्य' व 'सोलंकी' शब्दों तथा इनके वंश-'अग्निवंश' या 'चंद्रवंश' पर चर्चा आवश्यक मानता हूँ 'चालुक्य' शब्द के बारे में दक्षिण भारत में कल्याण राज्य के राजा विक्रमादित्य' (षष्ठ) के राजपण्डित कविवर 'विल्हण' ने 'विक्रमाड-कदेवचरितम्' में उल्लिखित किया- ब्रह्मा के चुलुक (अंजलि या चुल्लू) से उत्पन्न होने के कारण इस वंश के आदिपुरुष को चैलुक्य या चालुक्य कहा गया।


इसी विषय को बिल्लारी शिलालेख में इस प्रकार उकेरा गया-भारद्वाज गोत्रीय द्रोणाचार्य ने राजा द्रुपद को मारने के लिए अंजलि के जल से इस वंश के मूलपुरुष को उत्पन्न किया था।


आमेर के राजा मानसिंह के सेनापति भीमदेव बाघेला ने दो ग्रन्थों के रचना की थी एक कच्छवाह कुल पर था तथा दूसरा या इसमें उन्होंने लिखा 'चालुक्य वंश प्रदीप' था इसमें उन्होंने लिखा है- इस वंश के मूलपुरुष की उत्पत्ति अर्बुदगिरि (आबू पर्वत) पर यज्ञ से हुई थी उनका नाम हारीत देव था जो सोरों सूकरक्षेत्र में आकर तपःरत हुए वे फलाहार और चुलूक जलपान करते थे उनके उग्र तप से प्रसन्न होकर तीर्थ के अधिष्ठातृ देव भगवान पृथ्वीनाथ धरणीधर ने उन्हें वरदान देते हुए- ''चैलुक' कहा इस कारण इनका वंश चालुक्य कहलाया।


अब 'सोलंकी' शब्द का भी अनुशीलन करते हैं- दक्षिणापथ (बादामी) के चालुक्य नरेशों में 'सलख' नामक श्रेष्ठ राजा हुए विद्वानों का मानना है इन्हीं सलख' के नाम से चालुक्य वंश का नाम 'सोलंकी' हो गया। रीवा म.प्र. के कवि अजवेश ने 'सलख' को 'सुलंकदेव' कहा है तथा 'सुलंकदेव' के नाम पर इस वंश का नाम 'सोलंकी' होना बताया है।


लेकिन आमेर के सेनापति कवि भीमदेव बाघेला ने बताया है- इस वंश के मूलपुरुष हारीत देव सोरों (सूकरक्षेत्र) (सोरम) में तपःरत रहे थे यही से उनके वंशजों का अन्यत्र जाना हुआ था फलतः सोरों (सोरम) के नाम पर चालुक्य वंश की प्रसिद्धि सोरम की (सोरों की-सोरंकी-सोलंकी) के रूप में हुई।


चालुक्य 'अग्निवंशी हैं या चंद्रवंशी- अग्निवंशी अवधारण के समर्थक- 'पृथ्वीराज रासो' चन्द्रवरदाई कृत, चालुक्य वंश प्रदीप' - भीमदेव बाघेला कृत, तथा इतिहासकार जगदीश गेहलोत चन्द्र या सोमवंशी अवधारणा समर्थक- पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझाबिल्लारी शिलालेख, जैन विद्वान-हेमचन्द्र, जिन हर्षगणि आदि हैं।



हारीत देव- चालुक्यों के आदि पुरुष जब सोरों सूकरक्षेत्र में निवास कर रहे थे तब काम्पिल्य नरेश शशिशेखर का सोरों आगमन हुआ उन्होंने अपनी पुत्री वीरमती का विवाह हारीत से किया बाद में उनका दूसरा विवाह कन्नौज के राज परिवार से भी विवाह हुआ उनके वेणु सहित ग्यारह पुत्र हुए।


हारीत के द्वार विजित प्रदेशों में अंग, कलिंग, वंग मगध, पाटिलपुत्र कन्नौज, प्रयाग, हिमालय, इन्द्रप्रस्थ, ब्रज पूर्व दिशा के देश आदि थे।


वेणु ने अतिरंजीपुर (निकट कासगंज) में कालीनदी के तट पर भी एक सुदढ़ दुर्ग का निर्माण किया। इस किले पर सोमक (सोमदत्त सोलंकी) का भी अधिकार था। अतरंजीखेड़ा के टीले की खुदाई अलीगढ़ वि.वि. के प्रो. आर. सी. गौड़ के देखरेख में हुई थी इसका विवरण इण्डियन एक्सप्रेस में दिनांक 26/08/1960 को छपा था जिसमें इसे 1100 ई. पू. वैदिक काल का बताया गया हैइसी का विवरण हिन्दुस्तान टाइम्स 25/08/1960 में छपा।


वेणु के सात विवाह हुए जिनसे बत्तीस पुत्र हुए उनमें सोनमति सबसे बड़े थे। सोनमति का पुत्र भौनदेव का पुत्र अजित का पुत्र नरसिंह का पुत्र अजयदेव था जिसने अयोध्या को राजधानी बनाया गया था


जयसिंह सूरी द्वारा प्रणीत कुमारपाल प्रबन्ध से ज्ञात होता है चौलुक से दसवीं पीढ़ी में राजा पृथु हुए इसमें पाँचवी या छठी पीढ़ी में लोट' नामक राजा हुए जिन्होंने लवकोट लाहौर पर अधिकार कियाइनका पुत्र हृदयराज था। जिसने सोरों को पुनः अपनी राजधानी बनाया थाइस प्रकार सोरों दूसरी बार सोलंकियों की राजधानी बना। हृदयराज से बीसवीं पीढ़ी पर सोमक (सोमदत्त) 836ई. नामक राजा हुआ। जिसने पुनः सोरों को अपनी राजधानी बनाया। इस प्रकार सोरों तीसरी बार सोलंकियों की राजधानी बना। इसके उपरान्त भूवड (भूयराज, भूवड़) को मेरूतुंगाचार्य ने कान्यकुब्ज देश कल्याकटक राजधानी का शासक बताया है इसका उत्तराधिकारी करूणादित्य (करणादित्य) हुआ इसके बाद चन्द्रादित्य शासक बना जिसका पुत्र सोमादित्य इसने कल्याण कटक को छोड़कर सोलंकियों की पुरानी राजधानी सोरों में बनाई अपने पूर्वज सोमदत्त के महलों का जीर्णोद्धार कराया। सोमादित्य का पुत्र भुवनादित्य थे। जिनके तीन पुत्र थे- राज, वीज, दण्डक। राज व वीज के राज्जी व विज्जी नाम भी लिखे मिलते हैं। यही सोरों का दुर्ग ध्वंस हो चुका था। इस प्रकार लगभग 1100 ई. पू. से 1000 ई. तक कई सोरों सूकरक्षेत्र सोलंकियों की चार बार राजधानी बना व ध्वंस हुआ।


मौर्य काल में जैन ग्रन्थ वृहत् कल्पसूत्र भाष्य के अनुसार 2512 राज्य मौर्य साम्राज्य की भुक्तियाँ थीं। इन राज्यों में 'कुसहा' नामक भी एक राज्य था जिसकी राजधानी- 'सोरिय' थी। मौर्य युग में बहुत से प्राचीन नगर नष्ट हुए थे और नए बसे थे। कुशावर्त या कान्यकुब्ज की राजधानी सोरिय यानी आधुनिक सोरों थीं।


अब सोरों सूकरक्षेत्र के दुर्ग के वास्तु का अवलोकन करते हैं। महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 152 के अनुसार राजा लोग सुरक्षा की दृष्टि से 6 प्रकार के दुर्ग बनाते थे- उनमें सोरों का दुर्ग- महीदुर्ग श्रेणी में आता हैजो संलग्न मानचित्र में देखा जा सकता है कि गंगा नदी दक्षिण की ओर से उत्तर की ओर प्रवाहित होती है जो दुर्ग पश्चिम दिशा में होकर गुजरती है उत्तर से यह नदी फिर पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित है। इस प्रकार तीन दिशाएं गंगा से सुरक्षित हैं दक्षिण और दक्षिण पूर्व का क्षेत्र ही नगर में प्रवेश का मार्ग था।



सोरों सूकरक्षेत्र के राजा लोग 'मौलबल' रखते थेइनके अतिरिक्त 'भृतकबल', 'श्रेणीबल', 'मिश्रबल' आदि भी रहते होंगे। औत्साहिक बल के सन्दर्भ में संभावना कम हैं।


अनलपुर दुर्ग के ध्वंसावशेष टीले में आलेख के साथ संलग्न चित्र और मानचित्र से देखा और समझा जा सकता है कि दुर्ग के निर्माण में विविध आकार के सैण्डस्टोन, मौर्य और कुषाण कालीन वृहदाकार ईटों, फर्रा, ककइया, गुम्मा आदि का प्रयोग किया गया था किले में प्रयुक्त अलंकृत प्रस्तर में वालु पत्थर या मडस्टोन का ही प्रयोग है। दुर्ग का ध्वंस होने के बाद इन प्रस्तरों को स्थानीय आसपास के लोगों ने अपने आवासों में प्रयुक्त कर लिए थे।


सोरों दुर्ग सर्वतोभद्राकार था इसमें चारों दिशाओं में द्वार थे। दुर्ग का पूर्व द्वार- पंचाल दरवाजा कहलाता था। दक्षिण द्वारसूरज पोल मुख्य द्वारा था जो कपिल मुनि भागीरथ आश्रम सूरसेन द्वार कहलाता था। पश्चिम द्वार- योगनाथ व वैवस्वत द्वारा कहलाता था। जहाँ उत्तरवाहिनी गंगा प्रवाहित होती थी। यही गंगा की धार पूर्व की और घूमती थीद्वार के निकट ही अति प्राचीन कूप हैजो सैण्डस्टोन से बना है इसमें रस्सियों के गहरे निशान हैं यहीं पर भगवान शिव व मार्कण्डेय ऋषि की भव्य प्रतिमा कुछ समय पूर्व तक प्रतिष्ठित थी। उत्तर द्वार- सोम गंगाद्वार कहलाता था।


दुर्ग के सचिवालय प्रांगण में तीर्थ के अधिष्ठातृ देव भगवान वराह का मन्दिर था जिसके विषय में पद्मपुराण में वर्णित है कि यह तीन हजार तीन सौ तीन हाथ परिमाण वाला था। लेकिन सोलंकी काल में यह परिमाण नहीं था। सल्तनत और मुगल काल के विध्वंसको की दृष्टि से यह स्थान भी नहीं बचा सनातन हिन्दु प्रतीकों का इस्लामी करण कर दिया गया। 1658 ई0 में औरंगजेब के आक्रमण के बाद सीताराम मन्दिर का ही पुनरोद्धार हुआ जो कहा जाता है कि एक रात में ही बना दिया गया। जो कभी सोलंकियों की यज्ञ शाला थी। दुर्ग के समीप ही केशव भगवान का मन्दिर था उसकी मूर्तियाँ ध्वंसावशेष मैंने देखे तथा चित्र भी खींचे हैं।



दुर्ग का रनिवास दुर्ग में पश्चिम दिशा की ओर रहा होगा क्यों कि इधर गंगाजी धारा होने से आक्रमण का भय कम रहता होगा। यहाँ तक पहुँचने का एक गुप्त मार्ग भी था जो उपाध्याय अथांई मौहल्ले से मिश्रान, बारू, दहलान मौहल्ले से होकर जाता था तथा मुख्य मार्ग में जुड़ता था तथा दूसरा गुप्त मार्ग वल्लभराम मिश्र के घर के समीप से चैधरियान मौहल्ले से होकर दुर्ग के आवासीय परिसर तक जाता था। राजअतिथियों की अतिथिशाला चैदहपौर व चन्दन चैक आदि स्थानों पर थीं।


अश्व व गजशाला लहरा कक्ष की ओर रही होगी क्योंकि यहाँ जल की सुव्यवस्था थी। सुरक्षाकर्मी व प्रहरियों के निवास स्थान वर्तमान के बड़ा बाजार, घटिया, मुदगलान, मिश्रान, मढ़ई आदि मौहल्लों में रहे होंगे। वाणिज्य स्थल- दुर्ग के दक्षिण की ओर रहा होगा। जो बड़ा बाजार कहलाता है। तीर्थ निवासी ब्राह्मण आवास भी किले के समाने दक्षिण की ओर रहे होंगे।


सम्राट अशोक ने यहाँ किले समीप एक स्तम्भ का निर्माण कराया था।


'सोलंकियों राजपूतों! आपके द्वारा स्थापित प्रथम राजधानी और प्रथम दुर्ग एक टीले में परिवर्तित हो चुका है जहाँ कब्रिस्तान बन गया लोगों के आवास बन गये आपका कीर्ति यश और वैभव पद दलित है उद्धार की वाट जोह रहा है जैसे सोमदत्त ने अपने पूर्वज वेणु की विरासत को स्थापित किया था वैसे ही सोमादित्य की विरासत को कोई भी संभालने सहेजने को नहीं आ रहा हैक्यों? पुरातत्व विभाग भी इधर दृष्टि नहीं कर रहा है?''