चौहानों के शौर्य का प्रतीक तारागढ़ दुर्ग

लोक गीतों में गढ़ बीटली के नाम से विख्यात अजमेर की पश्चिमी पर्वत श्रेणियों के शिखर पर तारे के समान प्रकाशित तारागढ़ पूर्वी राजस्थान का एक सुदृढ़ दुर्ग है। बारहवीं शताब्दी तक यह अजयमेरू दुर्ग के नाम से जाना जाता था। सन् 1141 के जैन ग्रन्थ 'आवश्यक नियुक्ति से ज्ञात होता है कि शाकम्भरी के चौहान शासक अजयराज ने अजय दुर्ग के नीचे पृथ्वीपुरा नामक नगर की स्थापना की थी। अजयराज ने अपने पिता पृथ्वीराज प्रथम की स्मृति में 12वीं शताब्दी में यह नगर बसाया जो बाद में अजयमेरू या अजमेर नाम से विख्यात हुआ। यह भी उल्लेख मिलता है कि 1123 ईस्वी में अजमेर की सामरिक एवं भौगोलिक महत्ता को देखते हुए ही अजयपाल ने सांभर से अपनी राजधानी अजयदुर्ग में स्थानान्तरित की थी। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार चौहान शासक अजयराज ने ही 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अजमेर नगर तथा अजयमेरू दुर्ग का निर्माण कराया। इतिहासकार हरविलास शारदा इसे अजयपाल द्वारा सातवीं शताब्दी में निर्मित होना मानते हैं जिसका बाद में विस्तार किया।



राजस्थान के अजमेर की पश्चिमी पहाड़ी पर अस्सी एकड़ क्षेत्र में विस्तृत यह दुर्ग समुद्री सतह से 2,855 फीट की ऊँचाई तथा भूमि की सतह से 1,300 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। गिरि दुर्ग होने के कारण पहाड़ियों की बनावट तथा घुमावों को आधार बनाकर ही इसके प्राचीरों की रचना की गई जो अजमेर नगर के शीर्ष पर प्रहरी के समान खड़ा पश्चिमी भारत के प्रवेश द्वार की रक्षा करता है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास में अजमेर अपनी केन्द्रीय स्थिति के कारण राजस्थान एवं गुजरात में प्रवेश के लिए महत्वपूर्ण रहा है। यह दुर्ग अपनी दुर्भेद्यता, धुमावदार चढ़ाई के कारण गिरि दुर्गों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बारहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी के ऐतिहासिक एवं राजनीतिक उतार-चढ़ावों, शत्रुओं के आक्रमण, विश्वासघात, सत्ताओं का परिवर्तन, रक्तपात आदि का यह साक्षी हैइस दुर्ग को तारागढ़ तथा गढ़ बिटली भी कहा गया है। अब इसका मूल रूप इसके अधिष्ठान की भित्तियों के अंश तथा तलच्छन्द के कुछ अवशिष्ट अंशों में ही शेष रह गया है। दुर्ग का ऊर्ध्वछन्द विभिन्न कालों में चौहानों, मुगलों, मराठों, राठौड़ राजाओं द्वारा जोड़ा गया। पृथ्वीराज विजय महाकाव्य में इस दुर्ग को अनेक मन्दिरों, अट्टालिकाओं, बावड़ियों आदि से अलंकृत होने का उल्लेख मिलता है। बीहड़ एवं निकट पहाड़ियों के कारण दुर्गम प्राकृतिक जलाशयों की उपस्थिति, जो वर्षभर पेयजल की आपूर्ति में सक्षम प्राकृतिक जलाशय तथा खाद्य सामग्री के भण्डारण को देखकर ही बिशप हेब्बर ने इस दुर्ग को पूर्व का दूसरा जिब्राल्टर' कहा था। दुर्ग में पेयजल की आपूर्ति के लिए पाँच जलाशय में से चार दुर्ग के अन्दर तथा एक दुर्ग के बाहर बना हैबाहर स्थित जलाशय नानासाहब का झालरा (जलाशय) नकारची बुर्ज के पास है, जो मराठा सरदार शिवाजी नाना द्वारा 1791 ईस्वी में निर्मित कराया गया था। इसी बुर्ज के पास दुर्ग के अन्दर एक गोलाकार जलाशय गोलझालरा भी नाना साहब द्वारा ही बनवाया गया था। इसमें पानी के कूप एवं खाद्य सामग्री के भण्डारण की व्यवस्था थी। इस दुर्ग के प्राचीनतम अवशेषों में कचहरी का भवन चौहान शासकों द्वारा निर्मित है। 32 स्तम्भों पर आधारित आयताकार 50' *"24) सपाट छत चारों ओर से एक फीट मोटी दीवार से आवृत्त है। स्तम्भों की ऊँचाई 11 फीट तथा छत समेत 14 फीट है। 



दुर्ग की पहली प्राचीर में प्रवेश करने के लिए लक्ष्मीपोल नामक प्रवेश द्वार हैयह प्राचीन प्राकृतिक पहाड़ियों के आधार पर निर्मित है। प्राचीर की दूसरी श्रृंखला लक्ष्मीपोल में प्रवेश करने के बाद दिखाई पड़ती है। घुमावदार पहाड़ियों पर चढ़ते हुए दुर्ग का तीसरा प्रमुख द्वार आता है। इसमें प्रवेश के लिए एक खिड़की भी है। दुर्ग के अन्य द्वार उत्तर-पश्चिमी दिशा में हैं जो नीचे से ऊपर तक दुर्ग मार्गों की सुरक्षा के लिए बनाये गये थे। इनके नाम भवानीपोल, हाथीपोल, अरकोट का दरवाजा अर्थात् कोट के अन्दर का दरवाजा आदि हैं। दुर्ग प्राचीर में 14 बुर्जियाँ है। बड़ा दरवाजा से पूर्व की ओर घूघट बुर्ज, गूगड़ी बुर्ज, फूटा बुर्ज तथा नकारची का बुर्ज है। श्रृंगार चवरी बुर्ज, जानू नायक बुर्ज, पीपली बुर्ज, इब्राहीम शाहिद का बुर्ज, दोहराई बुर्ज, इमली बुर्ज, बान्दरा बुर्ज, खिड़की का बुर्ज, फतेह बुर्ज आदि में से कुछ के नाम वृक्षों या बनवाने वाले के नाम पर पड़े हैंइनमें खिड़की बुर्ज तथा फतेह बुर्ज दुर्ग में प्रवेश के लिए अन्तिम द्वार हैं।



इन्हीं द्वारों की प्राचीर पर तोपें खड़ी करने के आधार अभी तक दिखाई देते हैं। अजमेर का यह तारागढ़ दुर्ग उत्तर भारतीय इतिहास एवं राजस्थान की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं से सम्बद्ध होने के कारण इतिहासकारों के लिए आज भी अध्ययन का विषय बना हुआ है। चौहान राजाओं के राज्यकाल में अजमेर उत्तरी भारत का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। अजयराज चौहान ने गजनी के मुस्लिम आक्रमणकारियों को अजमेर से वापस लौटने पर विवश किया था। उसके पुत्र अरणोराज ने सन् 1132 में मुस्लिम आक्रान्ताओं को यहीं युद्ध में परास्त किया था तथा अजयमेरू पर हुए रक्तपात में अपवित्र धरती को धोने के लिए आनासागर बाँध का निर्माण कराया था। इसी वंश के बीसलदेव विग्रहराज, पृथ्वीराज द्वितीय, सोमेश्वर तथा पृथ्वीराज तृतीय ने तारागढ़ के आश्रय में रहते हुए दिल्ली तक अपने राज्य का विस्तार किया था। सन् 1192 में मुहम्मद गौरी ने अजमेर पर अधिकार कर लिया था। उसके लौटते ही पृथ्वीराज तृतीय के भाई ने पुनः दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस दुर्ग को फिर 1195 ई. में हस्तगत कर लिया। इसके बाद गुजरात के शासक भीमदेव से परास्त होकर कुतुबुद्दीन ने इसी दुर्ग में शरण ली थी, जहाँ मेरों एवं राजपूत सैनिकों ने छह महीने तक घेराबन्दी कर उसे नष्ट करना चाहा थासन् 1397 से 1555 ई. के बीच मारवाड़ के राव रणमल मेवाड़ के पृथ्वीराज, गुजरात के बहादुरशाह, मेड़ता के राव बीरमदेव, जोधपुर के राव मालदेव तथा शेरशाह सूरी ने भी इस दुर्ग पर आक्रमण किये तथा कुछ समय के लिए अधिकार कियाअकबर ने भी गुजरात तथा राजस्थान के विजय अभियानों तथा विजित प्रदेशों पर प्रशासन की पकड़ मजबूत रखने के लिए अजमेर को ही केन्द्र बनाया। उत्तराधिकार के संघर्ष में औरंगजेब से धौलपुर में परास्त होकर दारा शिकोह ने इसी दुर्ग में शरण ली थी। मुगल शासकों के बाद यह दुर्ग कुछ समय तक जयपुर तथा मारवाड़ राज्य के अधिकार में रहाइसके पश्चात् सन् 1756 से इस पर मराठों का अधिकार हो गयासन् 1801 से 1818 तक ग्वालियर नरेश सिन्धिया के आधीन रहने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी से राजपूताना के राज्यों की संधि होने पर यह अंग्रेज सत्ता के अधिकार में चला गया। सन् 1920 तक नसीराबाद छावनी के अंग्रेज सैनिक यहाँ आरोग्य लाभ के लिए आते थे। यहाँ लगभग 100 सैनिकों के रहने की व्यवस्था थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् एक बार पुनः जीर्णोद्धार के क्रम में यहाँ महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज तृतीय की प्रतिमा की स्थापना की गई जो इसके गौरवमय इतिहास का स्मारक है। तारागढ़ दुर्ग लम्बे समय की यात्रा कर अब ऐतिहासिक स्मारक बन गया है। यह आज भी चौहानों के शौर्य का उज्जवल प्रतीक है।


(लेखक व्याख्याता इतिहास हैं।)