दुर्गों का सिरमौर चित्तौड़गढ़

शोर्य, साहस और बलिदान का तीर्थ चित्तौड़ का किला न केवल राजस्थान के किलों का सिरमौर है अपितु इस किले के साथ हजारों क्षत्रिय योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम के अनगिनत रोमांचक प्रसंग भी जुड़े हुए हैं। रानी पद्ममिनी, राजमाता कर्मवती सहित सहस्रों वीरांगनाओं के जौहर, वीर गोरा बादल, जयमल, कल्ल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया के अपूर्व पराक्रम और बलिदान का पावन स्थल चित्तौड़ का किला इतिहास यह किला अजमेर से खण्डवा जाने वाले रेलमार्ग पर चित्तौड़गढ़ जंक्शन से 3- 4 किलोमीटर दूर गंभीरी व बेड़च नदियों के संगम स्थल के समीप अरावली पर्वतमाला के एक विशाल पर्वत शिखर पर बना है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई लगभग 1850 फीट है। क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी लम्बाई साढ़े तीन मील व चौड़ाई आधा मील है। दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण प्राचीन और मध्यकाल में इस किले का विशेष सामरिक महत्व था। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि चित्तौड़ का किला एक प्राचीन दुर्ग है।



इसके निर्माता के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। जनश्रुति के अनुसार यह किला महाभारत काल में भी विद्यमान था। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि इसका सम्बन्ध मौर्य वंशीय शासकों से था। मेवाड़ के इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद के अनुसार मौर्य राजा चित्रंग (चित्रांगद) ने यह किला बनवाकर अपने नाम पर इसका नाम चित्रकोट रखा था, उसी का अपभ्रंश चित्तौड़ है। इतिहासकार कर्नल टॉड को उपलब्ध विक्रम संवत् 770 के एक शिलालेख में उक्त मौर्य शासक का उल्लेख है। इस वंश का अन्तिम शासक मान मोरी था, जिसके द्वारा निर्मित एक तालाब किले के भीतर आज भी विद्यमान है। मेवाड़ में गुहिल राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल ने इस अंतिम मौर्य शासक को पराजित कर लगभग आठवीं शताब्दी में चितौड़ पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् मालवा के परमार राजा मुंज ने इसे अपने राज्यान्तर्गत किया तथा बाद में गुजरात के प्रतापी सोलंकी नरेश सिद्धराज जयसिंह ने चित्तौड़ के इस ऐतिहासिक दुर्ग पर अपनी विजय पताका फहरायीबारहवीं शताब्दी के लगभग चित्तौड़ पर पुनः गुहिल राजवंश का आधिपत्य हुआ। यद्यपि इस किले पर अधिकांशतः मेवाड़ के गुहिल राजवंश का आधिपत्य रहा तथापि विभिन्न कालों में यह मौर्य, प्रतिहार, परमार, सोलंकी, खिलजी, सोनगरे चौहानों और मुगल बादशाहों के भी अधीन रहा।


चित्तौड़ दुर्ग में तीन इतिहास प्रसिद्ध साके हुए। पहला सन् 1303 में हुआ जब दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन के आक्रमण के मूल में उसकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा तो थी ही, चित्तौड़ के राणा रतनसिंह की अनिंद्य सुन्दरी रानी पद्ममिनी को पाने की उत्कट अभिलाषा भी निहित थी। 'तारीख ए अलाई' में इस आक्रमण का वृत्तान्त है। उसके अनुसार 28 जनवरी, 1303 को सुलतान अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर अधिकार करने के लिए दिल्ली से रवाना हुआ और वहाँ आकर चित्तौड़ के किले को घेर लिया। लगभग छह माह के घेरे के बाद अगस्त, 1303 में किला फतह हुआ। चित्तौड़ के राणा रतन सिंह ने वीर गोरा-बादल सहित अपने सुभट सामन्तों के साथ शत्रु सेना का डटकर मुकाबला किया। भीषण युद्ध के बाद जब विजय की कोई आशा नहीं रही तो राजपूत 'केसरिया' पहनकर शत्रु पर टूट पड़े तथा रानी पद्ममिनी सहित दुर्ग की अन्य क्षत्रिय ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया। अमीर खुसरों ने लिखा है कि तीस हजार हिन्दुओं को कत्ल करने की आज्ञा देने के पश्चात् सुलतान ने चित्तौड़ दुर्ग अपने पुत्र खिज्रखाँ को सौंप दिया और उसका नाम खिजराबाद रख दिया गया। कुछ वर्षों तक (सम्भवतः 1311 ई. तक) चित्तौड़ पर खिज्रखाँ का अधिकार रहा जिसने वहाँ अपने शासन की अवधि में गम्भीरी नदी पर पाषाण का एक सुदृढ़ पुल बनवाया जो आज भी मौजूद है।


आगे चलकर अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर के कान्हड़दे सोनगरा के भाई मालदेव सोनगरा को जो इतिहास में मालदेव पूँछाला के नाम से विख्यात है, को चित्तौड़ का हाकिम नियुक्त किया। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद गुहिल वंशीय हम्मीर ने जो कि मेवाड़ के सीसोदे संस्थान का स्वामी था, सोनगरों से चित्तौड़ ले लिया।


मेवाड़ के यशस्वी शासक राणा कुम्भा के शासनकाल (1433 से 1468 ई.) में चित्तौड़ अपनी समृद्धि और कीर्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचा। राणा कुम्भा ने शक्तिशाली शत्रुओं-मालवा और गुजरात के सुलतानों से न केवल अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित रखा बल्कि यथा अवसर उसका विस्तार भी किया।


वीर विनोद के अनुसार कुम्भा ने चित्तौड़ के किले पर स्तम्भ (विजय स्तम्भ), कुम्भश्याम मन्दिर, लक्ष्मीनाथ मन्दिर, रामकुण्ड इत्यादि बनवाये। इतिहासकार गौरी शंकर ओझा लिखा है कि पहले चित्तौड़ के किले पर जाने के लिए रथमार्ग (सड़क) नहीं था इसलिए कुम्भा ने रथमार्ग बनवाया और किले में सात प्रवेशद्वार (रामपोल, हनुमानपोल, भैरवपोल, महालक्ष्मीपोल, चामुण्डापोल, तारापोल और राजपोल) बनवाये। उसने वहाँ आदिवराह का मन्दिर, जलयन्त्र (अरहट) सहित कई तालाब एवं बाबड़ियाँ भी बनवाई।


राणा सांगा मेवाड़ का पराक्रमी शासक हुआ। उसके बाद रतन सिंह और फिर विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। विक्रमादित्य के शासनकाल में गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दो बार आक्रमण किये।


बहादुरशाह के दूसरे आक्रमण (1534 ई.) में अल्पवय महाराणा विक्रमादित्य को छोटे भाई उदय सिंह के साथ उसके ननिहाल बूंदी भेज दिया गया तथा देवलिया प्रतापगढ़ के रावत बाघ सिंह के नेतृत्व में मेवाड़ के वीर योद्धाओं ने आक्रान्ता से लोहा लिया। बहादुरशाह के सैनिकों ने बारूदी सुरंग के विस्फोट द्वारा किले की लगभग 45 गज प्राचीर उड़ा दी जिसके फलस्वरूप भीषण युद्ध आरम्भ हो गया। वीर विनोद के अनुसार बहादुरशाह ने जलेब में (आगे) तोपें रखकर पाडलपोल, सूरजपोल व लाखोटा बारी की तरफ से हमला कियातब भीतर के बहादुरों ने भी किले के किवाड़ खोल दिये और बड़ी दिलेरी के साथ गुजराती फौज पर टूट पड़ेरावत बाघ सिंह पाडलपोल दरवाजे के बाहर, राणा सज्जा व सिंहा हनुमानपोल के बाहर तथा इसी तरह सैकड़ों योद्धा विभिन्न स्थलों पर वीरतापूर्वक लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। राजमाता हाड़ी कर्मवती सहित दुर्ग की सहस्रों वीरांगनाओं ने जौहर की ज्वाला प्रज्वलित कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। बहादुरशाह का चित्तौड़ के किले पर अधिकार हो गयायह युद्ध इतिहास में चित्तौड़ के दूसरे साके के नाम से प्रसिद्ध है।


चित्तौड़ का तीसरा साका 1567 ई. में हुआ जब मुगल बादशाह अकबर ने एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर चढ़ाई की। इस समय चित्तौड़ पर राणा उदय सिंह का शासन था। भीषण नरसंहार के बाद 25 फरवरी, 1568 को अकबर का चित्तौड़ के किले पर अधिकार हो गया। आसफखाँ पर किले की रक्षा का दायित्व छोड़कर अकबर अजमेर चला गया। जयमल और पत्ता की वीरता पर मुग्ध होकर अकबर ने आगरा के किले के प्रवेश द्वार के बाहर उनकी हाथी पर सवार संगमरमर की प्रतिमाएँ स्थापित करवायी जो औरंगजेब के समय तक वहाँ विद्यमान थीं।


गम्भीरी और बेडच नदियों के संगमस्थल के समीप एक विशाल पर्वत शिखर पर बना यह प्राचीन किला गिरि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। किले पर जाने का प्रमुख मार्ग पश्चिम की और से है जो शहर के भीतर से पुरानी कचहरी के पास से जाता है। इस मार्ग में सात प्रवेश द्वार हैं जो एक सुदृढ़ प्राचीर द्वारा आपस में जुड़े हैं, इनमें प्रथम दरवाजा पाडलपोल कहलाता है। उसके पाश्र्व में प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंहका स्मारक बना है जो चित्तौड़ के दूसरे साके के समय बहादुरशाह की सेना से जूझते हुए वीरगति को प्राप्त हुये थे। किले का दूसरा प्रवेश द्वार भैरवपोल और तीसरा हनुमानपोल है। इन दोनों ऐतिहासिक दरवाजों के मध्य अकबर की सेना को लोहे के चने चबवाने वाले अतुल पराक्रमी जयमल और कल्ला राठौड़ की छतरियाँ बनी हैं जो 1567 ई. के दुर्धर्ष युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये थे। तत्पश्चात् गणेशपोल, जोड़लापोल और लक्ष्मणपोल आते हैं। सातवां और अन्तिम दरवाजा रामपोल हैजिसके सामने मेवाड़ के आमेठ ठिकाने के यशस्वी पूर्वज पत्ता सिसोदिया का स्मारक हैजिसने तीसरे साके के समय आक्रान्ता से संघर्ष करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग किये। पूर्व की ओर सूरजपोल चित्तौड़ दुर्ग का प्राचीन प्रवेश द्वार है। उत्तर और दक्षिण दिशा में लघु प्रवेश द्वार या खिड़कियाँ बनी हैं जिनमें उत्तरी दिशा की खिड़की लाखोटा की बारी कहलाती है।


चित्तौड़ के किले के भीतर अनेक पुराने महल, भव्य देवमन्दिर, कीर्तिस्तम्भ, अथाह पानी वाले जलाशय, विशाल बावड़ियाँ, शस्त्रागार, अन्न भण्डार, गुप्त सुरंग इत्यादि विद्यमान हैं। इनमें महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित भव्य राजमहल परम्परागत हिन्दू स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।


महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित विजयस्तम्भ अथवा कीर्तिस्तम्भ चित्तौड़ के किले का एक प्रमुख आकर्षण है। नौ खण्डों वाला यह कीर्तिस्तम्भ लगभग 120 फीट ऊँचा है। इसके नौ खण्ड या मंजिलें नव निधियों की प्रतीक हैं। लोकविश्वास के अनुसार महाराणा कुम्भा ने मांडू (मालवा) के सुलतान महमूद खलजी पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में (1440 ई.) इसका निर्माण करवाया जिसकी प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा वि. संवत् 1505 (1448 ई.) में हुई।


कीर्तिस्तम्भ में ब्रह्मा, विष्णु, शिव पार्वती अर्द्धनारीश्वर, दिक्पाल तथा रामायण, महाभारत के पात्रों और विष्णु के प्रायः सभी अवतारों की अत्यन्त सजीव और कलात्मक देव प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं जिनके कारण इस कीर्तिस्तम्भ को पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनमोल खजाना कहा जाता है कीर्तिस्तम्भ की प्रत्येक मंजिल पर जाने के लिए घुमावदार सीढ़ियाँ बनी हैं।


चित्तौड़ दुर्ग का कदाचित सबसे बड़ा आकर्षण राणा रतन सिंह की अनिंद्य सुन्दरी रानी पद्ममिनी का महल हैं जो एक शान्त और खूबसूरत जलाशय पर अवस्थित हैं। उक्त महलों के दक्षिण-पूर्व में दो जीर्ण गुम्बददार भवन हैं जो गोरा बादल के महल कहलाते हैं। महासती स्थान पर चित्तौड़ राजपरिवार की अनेक छतरियाँ व चबूतरे बने हैं। किले के भीतर अन्य प्रमुख भवनों में नौ कोठा मकान या नवलखा भण्डार (संभवतः खजाना, तोषाखाना) एक लघु दुर्ग के रूप में है जो राणा बणवीर ने भीतरी किला (अन्तःदुर्ग) बनवाने के उद्देश्य से बनवाया था। चित्तौड़ के किले में देव मन्दिरों की तो जैसे भरमार है। यहाँ विद्यमान प्राचीन और भव्य मन्दिरों में महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित विष्णु के बारह अवतार का कुम्भस्वामी या कुम्भश्याम मन्दिर, सूरजपोल के पास नीलकंठ महादेव, महासती स्थान पर बना समिद्धेश्वर मन्दिर, मीराबाई का मन्दिर, तुलजा भवानी का मन्दिर, कुकड़ेश्वर महादेव महादेव आदि प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। किले में अनेक प्राचीन जैन मंदिर भी हैंकिले की पूर्वी प्राचीर के निकट एक सात मंजिला जैन कीर्तिस्तम्भ है जो आदिनाथ का स्मारक बताया जाता है। अनुमानतः इसका निर्माण बघेरवाल जैन जीजा द्वारा 11 वीं या 12 वीं शती में करवाया गया। किले के भीतर अपरिमित और अथाह जलराशि वाले अनेक कुष्ठ और जलाशय हैं। इनमें किले के उत्तरी हिस्से में रत्नेश्वर तालाब, कुम्भसागर, मध्यभाग में गौमुख नामक झरना, हाथीकुण्ड, जयमल और पत्ता की हवेलियों के पास भीमलत तालाब, पाडलपोल दरवाजे के पास झाली रानी द्वारा निर्मित झालीबाव, राजटीला नामक स्थान पर पहाड़ी के छोर पर बना चित्रांग मोरी तालाब जलापूर्ति के मुख्य स्रोत थे। दुर्ग के अन्य प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में कंवरपदा के खण्डहर, तोपखाना, भामाशाह की हवेली, सलूम्बर, रामपुरा व अन्य संस्थानों की हवेलियाँ हिंगलू आहाड़ा के महल इत्यादि प्रमुख हैं।