ईसा पूर्व भारत में दुर्गों का सामरिक महत्व

सिन्ध में कोहवास-बूटी नामक स्थान पर हड़प्पा युग के प्राचीन अमरी सभ्यता की एक दुर्ग बन्द बस्ती एन.जी. मजूमदार ने खोज निकाली। यह दुर्ग ऐसे पर्वत शिखर पर स्थिर है जो तीन और से बिल्कुल खड़ा तथा दुर्गम है। केवल दक्षिण की ओर शनैः-शनैः ढलुआँ रूप में मैदान से केवल दल फुट की ऊँचाई पर आकर रूक जाता है। इस दक्षिणी ढाल पर चढ़ते हुए सर्वप्रथम एक नीवी प्राचीर मिलती है; उसके पश्चात् एक और उससे बड़ी तथा अधिक दृढ़ प्राकार दृष्टिगोचर होती है।इस जिव्राती (Cyclopean) प्राचीर में चार अस्र-व्यस्त बुर्जा तथा दक्षिण पूर्व की ओर एक द्वार के अवशेष विधमान हैं। 


सघर्ष जीवन का स्वाभाविक अंग है। वैयक्तिक एवं सामूहिक संघर्षों का वृत्तान्त ही इतिहास के पृष्ठों का प्रमुख भार है। सुरक्षात्मक एवं आक्रामक युद्धों के इतिहास में दुर्गों का विशिष्ट महत्व रहा है। आज तो वायुयान तथा अन्य विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कार के कारण दुर्गों की महता न्यूनतम रह गई है। किन्तु दीर्घकाय प्राचीन दुर्ग अतीत के भीषण युद्धों एवं युग-प्रवर्तक गतिविधियों के स्वायी स्मारक हैं। राजवंशों की गाथाएँ, वीरों की आहुतियाँ, शत्रु का भय तथा जनता की आशाएँ उनकी सशक्त प्राचीरों में साकार हैं।


दुर्ग नगरों तथा समीपवर्ती गाँव की रक्षा करते थे, मुख्य मार्गों, नदीयों तथा विस्तृत भू-भाग पर नियंत्रण रखते थे, आक्रमण काल में सुरक्षात्मक प्रश्रय प्रदान करते थे। ऐसे लोग भी, जिन्हें युद्धविद्या तथा रण- कौशल की शिक्षा कभी न मिली हो, जो अन्यथा रण-क्षेत्र में युद्ध करने के लिये अनुपयुक्त हों, दुर्ग की प्राचीरों की रक्षा में सहायक सिद्ध होते थे। शत्रु को किसी दुर्ग पर आक्रमण करने के लिए दुर्ग में स्थित सेना से दुगनी शक्ति का प्रयोग करना पड़ता था। भारत में किलेबन्दी की कहानी प्रागैतिहासिक युग में आरम्भ हुई। मोहेन्जोदड़ो से 25 मील पूर्व की और कोटड़ीजी नामक स्थान पर हड़प्पा सभ्यता से भी प्राचीन एक दुर्ग-बन्द नगर खोज निकाला गया है। इसकी सुदृढ़ प्राचीर पत्थर तथा मिट्टी की ईंटों में बने आयताकार बुर्जा से और भी अधिक सशक्त बना दी गई थी। 2400 ई. पूर्व के लगभग इस स्थान के विध्वंस के पश्चात् यहाँ एक नई हड़प्पन' बस्ती बसी, किन्तु अब पुनः दुर्गबन्दी नहीं की गई।



सिन्ध में कोहवास- बूठी नामक स्थान पर हड़प्पा युग के प्राचीन अमरो सभ्यता की एक दुर्ग बन्द बस्ती एन.जी. मजूमदार ने खोज निकाली। यह दुर्ग ऐसे पर्वत शिखर पर स्थिर है जो तीन ओर से बिल्कुल खड़ा तथा दुर्गम है। केवल दक्षिण की ओर शनैः-शनैः ढलुआँ रूप में मैदान से केवल दस फुट की ऊँचाई पर आकर रूक जाता है। इस दक्षिणी ढाल पर चढ़ते हुए सर्वप्रथम एक नीवी प्राचीर मिलती है; उसके पश्चात् एक और उससे बड़ी तथा अधिक दृढ़ प्राकार दृष्टिगोचर होती है। इस जिव्राती (Cyclopean) प्राचीर में चार अस्त-व्यस्त बुर्जा तथा दक्षिण-पूर्व की ओर एक द्वारा के अवशेष विद्यमान हैं। पिगट के अनुसार यह एक अन्तरीप दुर्ग था। वे इसकी तुलना सिन्ध में स्थित थारो पर्वत के दुर्ग से करते हैं। थारो पर्वत पर भी ठीक इसी प्रकार दो सुदृढ़ प्राचीरों द्वारा दुर्ग-बन्दी की गई है। सिन्ध में ढिल्लनीजो कोट नामक स्थान पर भी अमरी सभ्यता की बस्ती के चारों और सुरक्षात्मक प्राचीर के अवशेष विद्यमान है।


दक्षिण बलूचिस्तान में टोजी तथा मजेनाडेम्ब नामक स्थलों पर कुल्ली सभ्यता की समसामयिक प्राचीरों के चिन्ह मिलते हैं। सियाहडेम्ब तथा मुगलघुण्टई में भी प्राचीन सुरक्षात्मक प्रकारों के अवशेष मौजूद हैं।


व्हीलर ने हड़प्पा तथा मोहेन्जोदड़ों में अन्वेषण एवं खुदाई द्वारा विशालकाय नगरप्रकारों का अस्तित्व सिद्ध कर दिया। दोनों स्थानों पर भीमकाय ठोस प्राचीरें छाई हुई थीं, तथा अनुमानतः दोनों स्थानों पर ही निरंकुश ''प्राचीन शासन' का बोल-बाला था, जिसका वास्तविक रूप आज भी अस्पष्ट है। यदि आगामी वर्षों में सैन्धव लिपिका रहस्योद्घाटन हो गया, तो संभवतः तत्कालीन प्रशासन की रूपरेखा पर नवप्रकाश प्राप्त हो।


हड़प्पा की सुरक्षात्मक प्राचीरें समानान्तर चतुर्भुज का सा आकार प्रस्तुत करती हैं, जिसकी भुजायें 460 गज लम्बी तथा 215 गज चोडी हैं। पश्चिम की ओर एक जटिल द्वार विद्यमान था, जिसमें समारोहों के लिये वेदियों का प्रयोजन था, तथा जिसके बाह्य किनारों पर प्रहरी-गृह बने थे। मुख्य द्वार संभवतः उत्तरी ओर था।


मिट्टी या मिट्टी की ईंटों से बनी विशाल प्राकार बाढ़ के जल को रोकने के लिय बांघ का कार्य करती थी। 10 से 20 फुट तक ऊँची इस प्रकार ने शेष सुरक्षात्मक निर्माण को बाढ़ के स्तर से ऊँचा उठा दिया था। इस बाँध के ऊपर कच्ची ईटों की बनी मुख्य प्राचीर थी, जो बाहरी और थोड़ी ढलुआं बनाई गई थी। इसके आधार की चौड़ाई 40 फुट तथ ऊँचाई लगभग 35 फुट थी। बाहरी ओर इस प्राचीर की पकी हुई ईटों से सुदृढ़ बनाकर उध्वापिर से 23-31° का ढाल प्रदान किया गया था। आयातकार बुर्ज बनाकर इसे और दृढ़ बनाया गया। कुछ बुर्ज मुख्य प्राचीर से भी ऊँचे थे।


बाहर की ओर लगी पक्की ईटों का आगे चलकर जीर्णोद्धार करना पड़ा। कुछ स्थानों पर प्राचीर अत्यन्त मोटी बना दी गई। इस पुनर्निर्माण में पूरी ईटों का ही प्रयोग किया गया है। यह हड़प्पा के यश का चरम युग था। किन्तु इसके अगले चरण में उत्तर- पश्चिम में एक अन्य दीवार बाहर की ओर बनाई गई, और पश्चिमी द्वार व्यवस्था के दो मार्गया तो बिल्कुल या थोड़े बहुत बन्द कर दिए गए। व्हीलर के अनुसार अब हड़प्पन रक्षात्मक मार्ग पर थे।


मोहनजोदड़ों में भी पश्चिमी टीला इसी प्रकार के सुरक्षात्मक निर्माण से घिरा था। इस दुर्ग की वेदी कच्ची ईटों तथा मिट्टी से बनाई गई थी, तथा इसके दक्षिण-पूर्वी कोने पर कई बुर्ज पक्की ईटों के बने थे।


दक्षिण-पूर्वी कोने पर बने दो बुर्ज एक द्वार के दोनों ओर बने थे, जो बाद में बन्द कर दिया गया। इसके स्थान पर एक वेदी बनाकर उसके चारों ओर मुंडेर बना दी गई इस वेदी के अवशेषों में लगभग 100 पक्की ईटों के गोले मिले, जो संभवतः स्लिग से फैके जाते थे। बुर्ज तथा इनके पूर्व में अन्य अवशेष किसी छोटे दुर्ग के भाग थे।


प्रकार के पश्चिमी भाग में एक पकी ईटों का बना बुर्ज थोड़ा बहुत खोदा गया है। इस बुर्ज के उत्तर में एक द्वार के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। वास्तव में टीले के चारों ओर ही दुर्ग बन्दी की गई थी, यद्यपि वह हड़प्पा की भंति सामान्य नहीं थी।


सिन्ध में स्थित अलीमुराद नामक 'हड़प्पन' स्थान भी चारों ओर से 3 से 5 फुट तक की मोटी पत्थर की प्राचीर से घिरा था। इस चाहर दीवारी के अन्दर मकानों के अतिरिक्त कम से कम एक कुआँ था। यह दुर्ग किरयर पर्वत माला के फूसी दरें के समीप होने के कारण शत्रुओं तथा लुटेरों से मैदानी क्षेत्र की रक्षा हेतु बनाया गया था। मकरान में सुतकागेन्डोर में स्टाइन ने एक विशालकाय दुर्ग के अवशेष खोज निकाले। यह दुर्ग-बन्दी 170 गज लम्बे तथा 125 गज चौड़े भूखण्ड के चारों ओर की गई थी, साथ में 'हड़प्पन' मृण्मांड भी प्राप्त हुए। यह प्राचीन चौकौर पत्थरों से बनाई गई थी, निचले भाग में 30 फुट चौड़ी थी, भीतरी सतह एकदम खड़ी थी, किन्तु बाहरी सतह 40° के कोण पर ढलुआं बनाई गई थी। यह प्रारंभ में लगभग 25 फुट ऊँची रही होगी। यह स्थान वास्तव में अत्यन्त दृढ़ रूप से दुर्ग-बन्द किया गया था। दक्षिण पश्चिम कोने 8 फुट चौड़े द्वार के चिन्ह दृष्टिगोचर थे। द्वार के दोनों ओर बुर्ज अथवा प्रहरी-गृह थे। किसी समय इस द्वार के भीतर तथा बाहर दोनों ओर निर्मित भवन खड़े थे। सुत्कागेन्डोर एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र था। जार्ज एफ. डेल्स तथा उनके साथियों ने मकरान के तटवर्ती प्रदेश का 500 मील पर्यन्त निरीक्षण किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सुत्कागेन्डोर एक बन्दरगाह था। उन्होंने एक और हड़प्पन स्थल खोज निकाला, जिसका नाम सौतका-कोह है। यह शादी-कौर की घाटी में पसनी से 9 मील दूर स्थिति है। प्राचीनकाल में समुद्र तट तथा भीतरी भू-भाग के मध्य आयात-निर्यात एवं आवागमन पर इसका अच्छा नियंत्रण रहा होगा। यह एक पर्वत पर स्थित है, जिसके पूर्वी किनारे पर 1600 फुट लम्बी पत्थर की प्राचीर है। अन्य अवशेष भू-क्षरण के शिकार हो गए हैं। 


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