गढ़ों का देश गढ़वाल हिमालय

कत्यूरी शासक नरसिंह देव (1050 से 1100 ई. तक) ने पहाड़ों की दुर्गमता के चलते, अपने राजय की आंतरिक व्यवस्था के लिए केदारभूमि (गढ़वाल) को बावन गढ़ों में बाँटा और इन बावन गढ़ों में बावन वीरों की नियुक्तियाँ की तथा इन बावन गढ़ों के अन्तर्गत उपगढ़ भी स्थापित किए। 1191 ई. में नेपाली विजेता अशोक चल्ल ने कत्यूरी साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित कर, यहाँ 1209 ई. तक शासन किया। उसके एक दशक बाद 1223 ई. में अन्य नेपाली विजेता क्राचल्ल्देव ने, कत्यूरी शासकों को नष्ट कर गढ़वाल और कुमाऊँ (वर्तमान उत्तराचल राज्य) पर अधिकार कर लिया। उसने भी कत्यूरी नरेशों तथा अपने पूर्ववर्ती शासक अशोकचल्ल के समान, यहाँ पर अपने सामंतों, मांडलियों या गढ़पतियों के द्वारा शासन करना आरम्भ किया। परन्तु उसका शासन यहाँ अधिक समय तक स्थापित न रह सका। परिणामस्वरूप केन्द्रीय शासन की दुर्बलता के चलते, इन गढ़पतियों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली, और केदारभूमि 13 वीं शती के मध्य अनेक छोटी-छोटी ठकुराईयों में विभाजित हो गई। इस प्रकार पंवार वंश के शासक अजय पाल (समय 1500 से 1519 ई.) के पूर्व तक सम्पूर्ण केदारभूमि, अनेक छोटी-छोटी ठकुराईयों में बटी हुई थी। जिसके शासक पारस्परिक स्पर्धा और अन्य कारणों से आपस में लड़ते-झगड़ते थे। पंवार वंशीय इस शासक ने 1500 से 1515 ई. के मध्य, गढ़वाल के सब ठाकुरी राजाओं और सरदारों को विजित कर, उनकी ठकुराइयों को एक साथ मिलाकर, एक सुविस्तीर्ण राज्य स्थापित किया और प्रदेश का नाम अधिक गढ़ होने के कारण गढ़वाल (अर्थात गढ़वाल) रखा। वर्तमान में यह प्रदेश उत्तरांचल राज्य के अन्तर्गत् एक मण्डल है, जिसमें पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, देहरादून, चमोली, रूद्रप्रयाग जिले अवस्थित है।


 


15 वीं शती ई. में अजयपाल द्वारा निम्नलिखित 52 या 64 गढ़ों को जीतकर अपने राज्य में मिलाया गया -


1. उत्तरी सीमान्त (टगंण प्रदेश) के गढ़पति - वर्तमान टकनौर, पेनखण्डा, दशौली परगनें इसके अन्तर्गत् थे। यहाँ पर गढ़ों की संख्या 4 थी। इन गढ़ों के नाम गढ़तांग, पैनखण्डा, खाड, दशौली थे। टगंण प्रदेश के गढ़पति सुगढ़ या बुढेरे कहलाते थे। उनका शासन सम्भवतः कबीलों की शासन प्रथा के समान था। शासक परिवार के बड़े बूढ़ों के आदेशानुसार राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का निर्णय किया जाता था। यहाँ के गढ़पति और निवासी, अपने को शेष गढ़वालियों से भिन्न और उच्च समझते थे। टगंण प्रदेश के जो गढ़पति शक्तिशाली होते थे, वे शीतकाल में अपने दक्षिणी पड़ोसी गढ़पतियों के ग्रामों पर छापामार कर लूटमार मचाते थे।


2. मंदाकिनी उपत्यका के गढ़पति - वर्तमान नागपुर , इसके अन्तर्गत् था। यहाँ पर नागपुर और कंडारा नामक 2 गढ़ थे। प्राकृतिक सौन्दर्य, स्वास्थ्य तथा उपज की दृष्टि से ये भाग अव्वल थे। मंदाकिनी उपत्यका के गढ़पतियों के स्थिर शासन में शांति और सुव्यवस्था स्थापित रही, और यहाँ अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। कहा जाता है कि नागपुर गढ़ के अंतिम गढ़पति सजनसिंह थे, तथा कंडारागढ़ की स्थापना विक्रम की 13 वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुई थी।


3. पूर्वी सीमान्त के गढ़पति - वर्तमान बधाण, चांदपुर, मल्ला सलाण इसके अन्र्तगत् थे। यहाँ पर स्थित गढ़ों की संख्या 11 थी। इन गढ़ों के नाम बधाण, चाँदपुर, चौड़, तोप, राणीगढ़, लोहवा, धौना, बनगढ़, कांडा, गुजडू, सावली मिलते हैं। इस प्रदेश से सटे कुमाऊँ में उन दिनों बैजनाथ, कत्यूर, द्वाराहट और बारामण्डल की ठकुराईयाँ थी। पूर्वी सीमान्त के * गढ़पतियों से उनके निरन्तर लड़ाई-झगड़े होते रहते थे। विक्रम की 16 वीं शती में जब चम्पावत के चंद नरेशों ने कुमाऊँ की ठकुराईयों को जीत लिया, तो वे गढ़देश के पूर्वी सीमान्त गढ़ों को छीनने का बार-बार प्रयास करने लगे। फलतः इस प्रदेश की प्रजा को अनेक कष्ट उठाने पड़े। लोहवागढ़ के गढपतियों में दिलेवरसिंह और प्रमोदसिंह को बड़ा प्रतापी बताया गया है। इस प्रदेश के समस्त गढ़पतियों में चौड़गढ़ के चौंडाल, तोपगढ़ के तोपाल तथा चाँदपुरगढ़ के शासक जिन्हें चहमान बताया गया है, बड़े शक्तिशाली हुए।


4. पूर्वी पठार के गढ़पति - वर्तमान देवलगढ़, बारहस्यूँ, चांदकोट परगने इसके अन्तर्गत् थे। यहाँ पर 9 गढ़ स्थित थे। जिनके उल्का, ऐडासू, देवल, नयाल, कोल्ली, धौना, बन, कांडा, चांदकोट नाम मिलते हैं। इनमें देवलगढ़ को छोड़कर, अन्य गढ़ों के बारे में हमें जानकारी प्राप्त नहीं होती हैं। सम्भवतः चौंड़, तोप या चाँदपुर गढ़ी के शक्तिशाली शासकों ने, बहुत पहले ही पूर्वी पठार के बहुत बड़े भाग पर अधिकार करके, इस प्रदेश के गढ़पतियों को अपने आधीन कर लिया था। अनुश्रुति के अनुसार, देवलगढ़ को कांगड़ा के देवल नामक राजा ने बसाया था। कुमाऊँ नरेश से पराजित होने पर अजयपाल को चाँदपुर गढी से भागना पड़ा था। उसने अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ में और फिर श्रीनगर में स्थापित की थी। पूर्वी पठार के गढ़पतियों का शासन अपेक्षाकृत अधिक स्थिर रहा। फलतः उन्हें अपनी शक्ति और शासित प्रदेश में वृद्धि का अवसर मिला।


5. पश्चिमी पठार के गढ़पति - वर्तमान उदयपुर कीर्तिनगर, चंद्रबदनी, चिल्ला, प्रतापनगर, भरदार, भिलंग इसके अन्तर्गत् थेयहाँ स्थित गढ़ों की संख्या 6 है। जो कि उपू, मौल्या, रैंका, बांगर, भरदार, संगेला हैं। पश्चिमी पठार भाग वनों से ढका है। अनुश्रुति के अनुसार, बागरगढ़ पर घिरवाण खासियों का अधिकार था। किसी नागवंशी राजा ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। उपू गढ़ पर प्रसिद्ध कफू चौहान का अधिकार था, जिसे अजयपाल ने पराजित किया था। अनुश्रुति के अनुसार, भिलंग उपत्यका पर पंवार नरेशों के अधिकार से पूर्व, सोनपाल का राज्य था।


6. पश्चिमी सीमान्त के गढ़पति - वर्तमान जौनपुर, रंवाई शिमला परग इसके अन्र्तगत् थे। यहाँ स्थित गढ़ों की संख्या 8 थी। जिनके नाम जोर, बिराल्टा, सिलगढ़ मुंगरा, सांकरी, बड़कोट, डोडराक्वांरा, रामी मिलते हैं। पश्चिमी सीमांत जौनपुर रंवाई और हिमालय प्रदेश से सटे इस क्षेत्र के गढ़ों के विषय में, अब कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।



7. दक्षिणी सीमांत के गढ़पति - वर्तमान् तल्लासलाण, गंगा सलाण, भाबर, नरेन्द्रनगर, देहरादून इसके अन्र्तगत् थे। यहाँ पर 24 गढ़ होने का उल्लेख मिलता हैजिनके महाब, बाग अजमेर, श्री गुरु, मवाकोट, गड़कोट, भैरव, घुघुती, ढांगू, बदलपुर लालढांग, चांडी, सांतूर, कोला, शेर, ननोर, नाला, वीरभद्र मोरधवज, पत्थरगढ़ कुजणी, रतन, कुइली, भरपुर नाम मिलते हैं। दक्षिणी सीमांत पर गढ़ों की प्रचुरता इस तथ्य को सिद्ध करती है कि हमलावर सहारनपुर आर रूहेलखण्ड की ओर से गढ़देश के दक्षिणी भाग पर बार-बार छापे मारते थे। अतः उनसे अपने प्रदेश की रक्षा के लिए, दक्षिण सीमांत पर सुदृढ़ गढ़ों की आवश्यकता थी। उपरोक्त गढ़ों में से कुछ गढ़ों के विषय में जानकारी हमें मुस्लिम इतिहास लेखकों के ग्रंथों से भी प्राप्त होती हैजिसमें सन्तोरगढ़, कोलागढ़, शेरगढ़, कानीगढ़, ननोरागढ़, लालढ़ाग मुख्य हैं। दक्षिणी सीमांत के गढ़ों की लम्बी सूची के आधार पर यह नहीं माना जा सकता है कि प्रत्येक गढ़ का एक-एक स्वतंत्र गढ़पति थाअधिक सम्भव यह है कि प्रत्येक गढ़पति ने अपने शासित प्रदेश में एक से अधिक गढ़ों की स्थापना की थी।


उपरोक्त वर्णित 64 गढ़ों के वास्तुविन्यास की हमें जानकारी अत्यंत अल्प है, क्योंकि इनमें अधिकांश गढ़ों के अवशेष ही शेष रह गये हैं। क्योंकि बाहरी आक्रमण (विशेषतया गोरखा आक्रमण, 1803 में) के फलस्वरूप ये और इनसे सम्बधित अभिलेख क्षतिग्रस्त हो गये, या नष्ट कर दिए गये। यही नहीं जो पुरातात्विक प्रमाण शेष भी रहे होंगे, वो देखभाल के अभाव में नष्ट हो गये। इसके अतिरिक्त साहित्यों से भी हमें इनके विषय में कोई खास सूचना प्राप्त नहीं होती है। अतः जो भी जानकारी हमें उपलब्ध है, वो इन गढ़ों के भग्वशेषों के अध्ययन से या प्रचलित अनुश्रुतियों से प्राप्त होती हैं।


गढ़ शब्द, उन पहाड़ी किलों का बोधक हैं, जो किले पर्वतों की चट्टानों पर अधिकता से पाये जाते हैं, ठकुराईयों के स्वामी अपने शासित प्रदेश के अन्र्तगत् समर सुरक्षा, और शासन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर, गढ़ (दुर्गों) की स्थापना करके, उसमें अपनी सेना, युद्ध सामग्री और परिवार को रखते थे। इसे किसी ऊँची पहाड़ी पर ऐसे दुर्गम स्थान पर पत्थरों, ईंटों से बनाया जाता था, जहाँ सरलता से पहुँचना सम्भव नहीं होता था, और जहाँ से दूर-दूर तक दृष्टि रखी जा सकती थी। गढ़ को अपनी ठकुराई का मुख्यालय बनाकर निकट की घाटियों में, और पहाड़ी ढालों पर बसे ग्रामों के ऊपर, शासन किया जाता था। इस तक पहुँचने के समस्त मार्गों को दीवार के द्वारा बंद करके, केवल एक मार्ग रखा जाता थी। इस प्रकार इनकी सुरक्षा के प्रत्येक इंतजाम किये जाते थे। गढ़ ऊँची दीवार से घिरा होता था। इसके अंदर जाने के लिए कटे पत्थर की सीढ़ियाँ होती थी। पहाड़ी किले यद्यपि ज्यादा बड़े नहीं होते थे, परन्तु सुरक्षा की दृष्टि से ये अत्यधिक सुदृढ़ थे। गढ़ों के तीनों तरफ खाईयाँ काटी जाती थी, औरइसके चारों ओर निगरानी के लिए चौरियाँ बनी थी। गढ़ों में बड़े-बड़े पत्थरों को भी इकट्ठा करके रखते थे, जिसका उपयोग युद्ध काल में दुश्मनों पर किया जाता था। गढ़ के अंदर दो प्रमुख भाग थे, एक भाग में देवी या देवता का मंदिर होता था, तथा दूसरे भाग में राजा का निवास- रानिवास- मां त्रिपरि पद भण्डारागार राजगद्दी कक्ष आदि होते थे। रानियों को रानिवास से बाहर जाने की इजाजत नहीं होती थी। राजभवन विशाल सुंदर कटे पत्थरों से बनीं, एक या एक से अधिक मंजिला इमारत थी, जिसकी दीवारों पर सुंदर बेलबूटे चित्रित होते थे। इस प्रकार राजभवन को विभिन्न प्रकार से अलंकृत कर उसकी शोभा बढ़ाई जाती थी।


पुराणों में पर्वत, जल द्वारा सुरक्षित भूमि को दुर्ग की संज्ञा दी गई है। मत्स्य पुराण में पर्वत से संचारित दुर्ग को महादुर्ग कहा गया है। इस आधार पर यहाँ के पहाड़ी दुर्ग खरे उतरते हैंक्योंकि ये गढ़ ऊँची पहाड़ी पर तो स्थित होते ही थे, साथ ही साथ इनमें जल भोजन आदि आवश्यक सामग्री के संग्रह की सुविधा भी होती थी। जिन गढ़ों में पानी का स्त्रोत नहीं होता था। उनमें बरसाती पानी को रोककर उसे मिट्टी, लकड़ी या पत्थरों के पात्रों में जमा किया जाता था। यदि निकट में पानी का कोई स्त्रोत होता था, तो इस तक उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थी, तथा इस पर नौला बनवाया जाता था, जिसे विभिन्न प्रकार से अलंकृत किया जाता था। नौले के बाहर एक स्थान गढ़पतियों या रानियों के नहाने का भी होता था। गढ़ों के अंदर सुरंग बनाने की भी प्रथा थीजिनका उपयोग आपतकाल में भोजन, पानी लाने के लिए तो किया ही जाता था, परन्तु साथ ही जब युद्ध में गढ़ की रक्षा करना असम्भव हो जाता था, तो राजा राज परिवार के लोग, सुरंग मार्ग से किसी सुरक्षित स्थान के लिए निकल सकते थे। सुरंग में रोशनदान और चैक पोस्ट भी बने होते थे, तथा इसके भीतर आदमी सरलता से आ जा सकते थे।


इस प्रकार हम देखते हैं कि इन गढ़ों का सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्व था। उस दृष्टि से और भी अधिक गढ़ जाता है, जब गढ़वाल हिमालय परिक्षेत्र में विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों की शुरूआत हुई। इसके अतिरिक्त हम यह भी देखते हैंकि ठकुराईयों के शासकों के बीच भी आपसी वैमनस्य था, तथा प्रत्येक गढ़पति अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझता था। वे एक दूसरे को झुकानें और एक दूसरे के क्षेत्रों पर कब्जा करने की फिराक में ही लगे रहते थे। परिणामस्वरूप इसकी परिणति युद्ध के रूप में ही सामने आती थी। कुमाऊँ और गढ़वाल के गढ़पति आपस में तो लड़ते ही थे, परन्तु गढ़वाल के गढ़ शासकों के बीच भी अक्सर युद्ध होते रहते थे। अतः ऐसी स्थिति में जब तलवार का बोलबाला हो, तो प्रत्येक गढ़पति अपनी और अपनी ठकुराई की सुरक्षा को लेकर अवश्य गम्भीर रहा होगाफलतः उस काल में इन पहाड़ी दुर्गों का महत्व अपने आप ही बढ़ जाता है। बहुअराजकता के इस काल में जबकि केन्द्र में ऐसी शक्ति नहीं थीं, जो गढ़वाल के इन गढ़पतियों को अपने झंडे तले एक जुट कर बाँध सकतीअतः इसके अभाव में ऐसी स्थिति होना स्वाभाविक भी था।


एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है कि अधिकांश गणपति राजवंश से सम्बधित नहीं थे। इन्हें वीर भड़-मोड़ाभट-घंघल-योद्धा-जोधा-आल-पैगा आदि नामें से भी पुकारा जाता था। स्थायित्व के अभाव में भले ही, ये कला को बहुत अधिक प्रोत्साहन न दे पाये हों, परन्तु वे गढ़वाल की प्राचीन कला, संस्कृति को बचाने में अवश्य सफल रहे। वे अपनी जनता की संस्कृति, उसकी भूमि के सच्चे रक्षक साबित हुए। तभी तो गढ़वाली लोकगीतों, अनुश्रुतियों में इनकी वीरता के बखान आज भी मिलते हैं। इन्हें आज भी ग्रामों में प्रजा के रक्षक और उनकी भूमि के रखवाले, के रूप में पूजा जाता है।