ग्वालियर जिले का सामरिक दुर्ग देवगढ़

गवालियर जिले का देवगढ़ दुर्ग, पिछोर तहसील के अन्तर्गत ग्वालियर से पूर्व दिशा में सिन्ध नदी के समीप दुर्गम पथरीली जंगलों- झाड़ियों से घिरी पहाड़ी पर बीहड़ों में स्थित है। इस दुर्ग के मुख्य दरवाजे से चन्द डगर दूर दतिया जिला लगा है और बायीं और कुछ ही किलोमीटर दूर भिन्ड जिले की सीमा लगी है। इस इलाके को मध्यकाल की बारहवीं- तेरवहीं सदी में ''परमार घार' नाम से जाना जाता था। करैरा, (शिवपुरी जिले की तहसील) पवाया, (ग्वालियर जिले की भितरवार तहसील में) से लेकर कोंच जगम्मनपुर उत्तरप्रदेश तक के क्षेत्र, इस परमार घार के अन्तर्गत थे। बुन्देलखण्ड में परमार ठाकुरों की पन्द्रह के लगभग दुर्ग- गढ़ियाँ थी। बुन्देलखण्ड में परमार ठाकुरों का आगमन तेरहवीं सदी में मालवा से हुआ था। वे राजा भोज के वंशज थे। तेरहवीं सदी के मध्य में पुन्यपाल परमार पवाया का शासक था। इनके ही एक वंशज देवीसिंह परमार ने चौदहवीं सदी के मध्य में इस दुर्ग देवगढ़ की नींव रखी थी। देवगढ़ दुर्ग के पास ही तीन किलोमीटर के फांसले पर रतनगढ़ का दुर्ग था। इसके नष्ट हो जाने पर ही इस देवगढ़ के दुर्ग का निर्माण कराया गया था। रतनगढ़ की देवी का मंदिर इस क्षेत्र का अत्यन्त ही प्रसिद्ध स्थान वर्तमान में है। आइने अकबरी में आगरा सूबे की बयाबन सरकार के अन्तर्गत रतनगढ़ महाल का उल्लेख है। इसमें वर्तमान सेंवढ़ा का नाम तत्समय में सोहन्दी भी महाल के रूप में शामिल है। चूंकि रतनगढ़ और देवगढ़ बिलकुल समीप हैं और किंवदंती हैकि रतनगढ़ के किले को अलाउद्दीन खिलजी ने गिरवा दिया था। अतः बहुत संभव है कि आइने अकबरी में शामिल नाम रतनगढ़ देवगढ़ ही हो। क्योंकि दोनों स्थान करीबकरीब थे और एक ही परमार परिवार के थे। इस समय देखने पर रतनगढ़ में दुर्ग के कोई अवशेष भी दिखाई नहीं देते। आइने अकबरी के अनुसार उस समय इस दुर्ग में दो सौ अश्वारोही और चार हजार पैदल सैनिक रहते थे। उल्लेखनीय है कि सेंवढ़ा के दुर्ग में आठ सौ अश्वारोही और पाँच हजार पैदल सैनिक निवास करते थे। देवगढ़ और सेंबढ़ा दोनों ही सिंध नदी के किनारे हैं और जंगल के रास्ते से बीस किलोमीटर की दूरी पर हैं। दूसरे बयाबन सरकार के अन्तर्गत शामिल छब्बीस महालों में सबसे अधिक सेना का निवास सेंवढ़ा में और उसके बाद दूसरा नम्बर रतनगढ़-देवगढ़ का बताया गया है। यह अकबर कालीन व्यवस्था थी।



देवगढ़ में चार हजार पैदल सैनिक मुगलकाल में रखे जाते थे। इससे दो बातें तो साफ हैं। एक तो परमारों के बाद मुगलों का इस दुर्ग पर अधिकार हो गया था। दूसरे सामरिक दृष्टि से इस दुर्ग का काफी महत्व था। इस स्थान से आगरा से कालपी की ओर जाने वाला मुगलकालीन मार्ग और नरवर सरकार से एरच सरकार की ओर जाने वाले मार्ग करीब से गुजरते थे। यह स्थान ऊबड़- खाबड़ जंगलों, हिंसक पशुओं लुटेरों के लिये सदैव प्रसिद्ध रहा है और यह दुर्ग बहुत विशाल तो नहीं है। पर आज भी यह बहुत अच्छी हालत में है। डाकूग्रस्त क्षेत्र होने के कारण शोध दृष्टि से ओझल हैयह दुर्ग इस क्षेत्र में पथरीगढ़ नाम से जाना जाता है। पथरीला क्षेत्र होने के कारण यह नाम स्थानीय नागरिकों द्वारा दिया गया है। देवगढ़ दुर्ग विन्ध्य पर्वतमाला की श्रृंखला का दुर्ग हैइसी पर्वत श्रृंखला पर नरवर का विशाल दुर्ग बना हुआ है।


सामरिक महत्व - देवगढ़ का दुर्ग ''गिरि दुर्ग'' है। यहाँ चढ़ाई सीधी है और दुर्ग के मुख्य दरवाजे को घुमावदार तरीके से दो दीवालों के बीच बनाया गया है। इसकी चहारदीवारी को प्राकृतिक चट्टान के सहारे निर्मित किया गया थाइसमें छब्बीस बुर्ज हैंबुर्जा का निर्माण दुर्गों को मजबूती प्रदान करने के लिये किया जाता था। बाहरी आक्रमण होने पर और बाहर से गोलावारी होने पर बुर्ज से प्रहार-प्रतिरोध तो सैनिकों द्वारा किये ही जाते थे, साथ में आक्रमण से बाहरी दीवाल का वही भाग क्षतिग्रस्त होता था। जो दो बुर्जा के बीच होता था। अतः दुर्ग को मजबूत रखने और बाह्म आक्रमण से प्रतिरोध करने में दुर्ग के बुर्ज का सामरिक महत्व साफ है। दुर्ग में पानी की व्यवस्था के लिये बाबड़ी और बरसाती पानी एकत्रित रखने के चौकोर पक्का जलाशय हैबाहर जंगल में जाने के लिये ऊपर से पूरी ढकी मांग भी इसमें है, जो एक कुँए में निकलती है। इससे दुर्ग से बाहर से राशन, जल लाया जा सकता था। और जरूरत पड़ने पर दुर्ग से बाहर भी निकला जा सकता था इसमें आज भी सोलह-अठारह फीट लम्बी तोपें रखी हैं। जो दुर्ग के सामरिक महत्व की ओर इशारा करती है।


अकबरकालीन समय में देवगढ़ दुर्ग से चारों तरफ सत्तर-अस्सी किलोमीटर दूर तक कोई बड़ा कस्बा नहीं था। मधुकरशाह बुन्देला ओरछा के शासक ने ग्वालियर के मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण के लिये भांडेर होकर देवगढ़ का मार्ग चुना था। बाद में उनके पुत्र वीरसिंहदेव बुन्देला ने 1602 ई. में अबुलफजल के वध के बाद एरच के दुर्ग में शरण लेने के लिये बड़ोनी-देवगढ़ होकर एरच का मार्ग पकड़ा था। वीरसिंहदेव अकबर की मुगल सेनाओं से बचते हुए बहुत दिनों तक देवगढ़-सेंवढ़ा के जंगलों में छिपे रहे थे। देवगढ़ से लगा हुआ 'भदावर' का क्षेत्र था। जो इस काल में उपद्रव के लिये जाना जाता था। इस क्षेत्र से इटावा, भिण्ड होकर कालपी का मार्ग निकला थारसद पूर्ति करने वाले बंजारे और मुगल दलों को अक्सर इस क्षेत्र के उपद्रवी लूट लिया करते थे। ओरछा- भांडेर-सेवढ़ा-देवगढ़ होकर एक मार्ग ग्वालियर भी गया था। इन सब कारणों से देवगढ़ का सामरिक महत्व मुगलकाल में अत्यधिक था। इस क्षेत्र का यह सबसे सुरक्षित और ऊँचा दुर्ग है। इसकी पहाड़ी सीधी खड़ी है। आज भी यहाँ घनघोर जंगल है। जो आज से चार सौ साल पहले उस दुर्ग की अतिदुर्गम स्थिति की कल्पना की जा सकती है। बुन्देलखण्ड के उत्तर-पश्चिमी भागों के उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों की निगरानी रखने के लिये और उत्तर-पूर्व के मुगल राजमार्ग, जो भदावर के क्षेत्रों से कालपी होकर निकलता था की सुरक्षा की दृष्टि से देवगढ़ दुर्ग की पुख्ता मुगल व्यवस्था बड़े काम की थी। दुर्ग की ऊँचाई अधिक होने के कारण यहाँ से बड़ी दूर तक देखा जा सकता था। देवगढ़ दुर्ग की सुगढ़-चौकस सैनिक व्यवस्था के ही कारण आगरा से कालपी की ओर आने-जाने वाले मार्ग अकबर से लेकर शाहजहाँ (1542-1658) तक पूर्व सुरक्षित रहा। ग्वालियर के दुर्ग की दूरी यहाँ से लगभग सवा सौ किलोमीटर होगी। देवगढ़ का दुर्ग आकार में तो ग्वालियर के दुर्ग से काफी छोटा है। पर दुर्गमता, वन्यसुरक्षा, जलीय सुरक्षा, पर्वतीय सुरक्षा, बीहड़ीय सुरक्षा की दृष्टि से बहुत आगे था। अतः सामरिक दृष्टि से बुन्देलखण्ड के उत्तर-पश्चिमी भाग का यह सबसे अधिक सामरिक महत्व का दुर्ग था।


देवगढ़ क्षेत्र का ऐतिहासिक महत्व - औरंगजेब के 1656 ई. में गद्दी पर बैठने के बाद बुन्देलखण्ड के इस उत्तर-पश्चिमी भाग में क्षेत्रीय शक्तियों की ताकत बढ़ गई थी। देवगढ़ में गोहद में जाटों का प्रभुत्व था। और उत्तर- पूर्व में इंदुरखी के गौड़ों का बोलबाला था। दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रों में दतिया के बुन्देलों की सत्ता थी। ये लोग मुगलों के जागीरदार भी थे। परन्तु फिर भी अपने-अपने क्षेत्रों में महाराजाधिराज ही कहलाते थे। ऐसी स्थिति में देवगढ़ महाल के क्षेत्र सेंवढ़ा-दतिया के बुन्देलों के आधिपत्य में चले गये थे और इस बीहड़ और घोर जंगली क्षेत्र में मुगल सत्ता उठ गई थी। स्थानीय सूत्र, कथायें और किंवदंतियाँ यह बताती हैं कि इस देवगढ़ दुर्ग के समीप समर्थ रामदास ने डेरा डाल रखा था। सन् 1666 ई. में शिवाजी के औरंगजेब के जाल में फंस जाने के बाद वे यहीं रहे और समर्थ रामदास ने यहाँ देवगढ़-रतनगढ़ के जंगल में एक पहाड़ी पर माता के मन्दिर की मूर्ति पधराई थीजो आज भी उनके नाम से प्रसिद्ध है। यहीं रहकर समर्थरामदास ने योजना बनाकर शिवाजी को औरंगजेब की कैद से छुडाया था। उल्लेखनीय है, कि ये समर्थ रामदास शिवाजी महाराज के गुरु और महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत थे। इससे अनुमान होता है कि समर्थ रामदास इसी दुर्ग में साधु के रूप में रहे होंगे और मुगलों की क्षेत्रीय इकाईयों की दृष्टि उन पर नहीं पड़ी। मुगलकालीन भारतीय इतिहास की यह अति महत्वपूर्ण घटना है। जिसका सम्बन्ध रतनगढ़-देवगढ़ दुर्ग से है। इतिहास की दृष्टि से शिवाजी का आगरा से औरंगजेब की कैद से भाग जाना एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ।


यहाँ, यह बताना समसामयिक होगा किशिवाजी आगरा से भागकर मथुरा गयेतत्पश्चात वे मथुरा से जमुना किनारे होते हुये इलाहाबाद गये। ये इलाहाबाद वाला मार्ग इटावा-भिन्ड के बाद देवगढ़ के समीपवर्ती क्षेत्रों से होकर गुजरता थादूसरे शिवाजी साधु का भेष बनाकर गये थेअतः शिवाजी की देवगढ़ के दुर्ग व उसके समीपवर्ती जंगल में साधुवेषधारी लोगों से कोई न कोई संवाद जरूर था। इतिहास के विषय में शोध करते समय पुराने समय से चली आ रही किंवदंतियों को भी प्रमाण के रूप में पूरी मान्यता देना चाहिये। भारतीयता की पूरी परख करने के लिये यह आवश्यक भी है।


इन तथ्यों के संदर्भ में बुन्देलखण्ड के देवगढ़-रतनगढ़ दुर्ग के सामरिक महत्व को और मुगलकालीन इतिहास में उसके व्यावहारिक योगदान को स्वीकार करना होगा। तत्समय में यह देवगढ़ का दुर्ग ग्वालियर संभाग का गौरव और कीर्ति दुर्ग है।


जंगली क्षेत्र होने और शिकार के लिये जानवरों की बहुतायत होने के कारण व सिंध नदी के समीप होने से इस क्षेत्र में गर्मियों में अच्छी ठंडक रहती थीइसलिये उन्नीसवीं सदी में आसपास के रजवाड़ों ने यहाँ पहाड़ियों पर कई गढियाँ बनवा रखी थी। अतः वर्तमान में देवगढ़ दुर्ग का विकास पर्यटन की दृष्टि से किया जा सकता है। शासन को ऐसे महत्वशाली दुर्गों को अपने संरक्षण में ले लेना चाहिये। यहाँ से ग्वालियर जाने वाले रास्ते में तानसेन का जन्मस्थान बेहट भी मिलता है। इन दुर्गों से मानव की जीवटता का बोध होता है। यही ऐसे दुर्गों का श्रेष्ठ भविष्य होगा।