हाड़ौती का दुर्ग वैभव

दुर्ग निर्माण की परम्परा में राजस्थान का नाम सर्वोपरि है। यहाँ शायद ही कोई ऐसा जनपद हो जिसमें गढ़ या छोटा दुर्ग का निर्माण न हुआ हो। धर्म व नीति शास्त्र के ग्रन्थों में भी वास्तुकला, दुर्ग रचना एवं स्थापत्य का विवेचन मिलता है। दुर्ग को राज्य के सात अंगों (राजा, मंत्री, सुहत, कोश, राष्ट्र, दुर्ग, सेना) में से एक माना गया है। शुक्रनीतिकार ने दुर्ग को शरीर के प्रमुख अंगों में हाथ की संज्ञा दी है -


दुर्गमात्यं सहच्छत्र मुखं कोशो बलं मनः।


हस्तौ पादौ दुर्ग राष्टे, राज्यागनि स्मृतामिहि।।



दुर्ग नौ प्रकार के बताए गए हैं व उनकी पहचान भी इस प्रकार बताई गई है- जिस दुर्ग के चारों तरफ खाई, काटी तथा पत्थरों से बना दुर्गम मार्ग हो उसे ऐरण दुर्ग कहा जाता है। इसी प्रकार चारों तरफ गहरी खाई हो वो पारिख दुर्ग। जिसके चारों तरफ ईंट, पत्थर व मिट्टि से बनी बड़ी-बड़ी दीवारों का परकोटा हो, वारिध दुर्ग। जिसके चारों ओर बहुत बड़े-बड़े कांठेदार वृक्षों के समूह हो वन दुर्ग। जिनके चारों तरफ मरुभूमि फैली हो वह धन्व दुर्ग। जिसके चारों तरफ बहुत दूर तक फैली जल राशि हो, वह जल दुर्ग तथा जिसमें शूर एवं सदा अनुकूल रहने वाले बान्धव लोग रहते हो, सहाय दुर्ग कहे जाते हैं। किसी एकान्त पहाड़ी पर बना गिरी दुर्ग। जो व्यूह रचना में अभेध हो सैन्य दुर्ग। हाड़ौती में प्रायः गिरी दुर्ग, जलदुर्ग व सहाय दुर्ग दिखाई देते हैं जो राजपूत, भारतीय एवं मुगल शैली की वास्तुकला के सुदृढ़ व सुन्दर उदाहरण है। हाड़ौती क्षेत्र में प्रायः बूंदी, कोटा, बारां, झालाबाड़ जिले सम्मिलित हैं जिनका क्रमवार अध्ययन करेगें।


बूंदी- अरावली की पहाड़ियों पर खड़ा प्रमुख दुर्ग तारागढ़ बूंदी नगर (छोटी काशी, वृन्दावती) का उत्कृष्ट गिरी दुर्ग है। पहाड़ी के शिखर पर तारागढ़ तो दूसरी पर गढ़ महल अर्थात् राजनिवास स्थित हैसम्पूर्ण बूंदी नगर मध्यकालीन परम्परा के अनुसार एक प्राचीर से घिरा हुआ है। तारागढ़ का निर्माण 12वीं सदी में राव बरसिंह ने करवाया। यह एक सुन्दर व सुदृढ़ गिरी दुर्ग हाड़ों की वीरता सर्वप्रसिद्ध है।


बलहठ बंका देवड़ा करतब बंका गौड़।


हाड़ा बाकां गाढ़ में, रण बंका राठौड़।


बनावट में यह चर्तुभुजाकार दुर्ग है। किले की बाहरी दीवार लगभग 10 फीट की है, जो कहीं-कहीं चौड़ी बनाई हुई है। किले में एक सुदृढ़ विशाल दरवाजे से प्रवेश करते हैंइसके चारों कोनों पर चार बुर्जे है। किले में एक बड़ी ऊँची लाट है जिसका निर्माण शक्तिशाली तोप “गर्भगुंजन' को रखने के लिए 16वीं शताब्दी में किया गया था। कहा जाता है कि इस तोप की आवाज इतनी भंयकर थी कि इसे चलाने के बाद पानी में डुबकी लगा लिया करते थेवर्तमान में कई सारी जगह व महल खण्डहर हो चुकी हैं। फिर भी कुछ ऐसे अवशेष हैं जिनसे उस समय की स्थापत्य, वास्तु व शिल्पकला का अनुमान लगाया जाता है। रानी महल व एक तालाब सुरक्षित हैं। रानी महल में भित्तिचित्र और रंगीन काँच का काम हुआ था। 18वीं सदी के अन्त में कुछ स्थानों का पता लगा जो एक नक्शे में। बना है- इनमें ढूंढ़ा का । महल, घास, अनाज और बारुद्व के स्थान, रिहायशी इलाका, महल व ठाकुर द्वार (मंदिर) थाआपातकाल के लिए यहाँ एक भण्डार सुरक्षा हेतु निर्मित था जिसमें पशुओं के लिए घास, मनुष्यों के लिए अनाज और सुरक्षा के लिए बारुद की पर्याप्त व्यवस्था रहती थी। जनता के रहने के लिए भी महल में सुरक्षित जगह थी। किले में सुरंगों का भी निर्माण किया गया था जो एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के महलों तक जाती थी। इसे महलों का परिसर कह सकते हैं क्योंकि अलग-अलग समय के शासकों ने अलगअलग महल बनवाये। पहाड़ी की सीधी चढ़ाई के बाद हजारी पोल दरवाजा है। दो भव्यविशाल हाथियों की मूर्ति वाला हाथीपोल दरवाजा है। फिर एक बड़ा चौक है। साथ ही अश्वशाला भी हैफिर दिवानेए-आम है जिसमें संगमरमर का बना सिंहासन है। इसी के बाई ओर एक चित्रशाला है जिसमें बूंदी चित्र शैली के चित्र बने है। इसके पीछे आवास का स्थान बना है। जहाँ से सम्पूर्ण बूंदी नगर देखा जा सकता है। 17वीं शताब्दी के नक्शे में बूंदी में कई प्रसिद्ध स्थलों जैसे-महाराज भावजी को बाग, चौरसी खम्भौ की छतरी, रामबुर्ज, दादूजी का महल, नौलखा बाग, चम्पा बाग, चौगान जलेबदार को घर आदि। यहाँ मध्यकालीन चौगान था जो आज के पोलो की तरह खेला जाता थाराजाओं के जलेब जैसी हंडी-भेठी छड़ी लेकर पहरा देने वाले रक्षक जलेबदार कहे जाते थे। बूंदी आज भी प्राचीन स्थापत्य की बनावट के साथ विद्यमान है।



बूंदी से 77 किलोमीटर दूर एक पहाड़ पर सुंदर किला बना हुआ है। जो इन्द्रगढ़ का किला कहा जाता है। इसका निर्माण 17वीं शताब्दी में इन्द्रसाल सिंह हाड़ा द्वारा करवाया गया था। इसमें चार दरवाजों के साथ एक भारी दिवार भी है। तीन सुंदर व चित्रकारी से सुसजित महल हैं जनाना महल, सुपारी महल व हवा महल। बारां- एक सुहद व ऐतिहासिक प्राचीन दुर्ग कोषवर्धन (शेरगढ़) के नाम से प्रसिद्ध है। यह किला एक तरफ वन व एक तरफ परबन नदी के किनारे पर स्थित है इसे वन दुर्ग व जल दुर्ग दोनों की श्रेणी में रखा गया है। यह सातवीं सदी से भी प्राचीन माना गया हैयहाँ एक माध सुदी छट, संवत् 870 (सन् 791 ई.) का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जो कि संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण नागर पुरानी लिपी में है और उस पर उल्लेख है कि बौद्ध अनुयायी नांगवंशी राजा देवदत्त का शासन था एवं उसके बाद परमार राजाओं का शासन रहा। दूसरा शिलालेख 11वीं शताब्दी का प्राप्त हुआ है जो कि प्राचीन लक्ष्मीनारायण मंदिर में लगा है जिसमें एक पर घार के परमार शासकों वाक्पतिराज से उदयादित्य तक की वंशावली है। शेरगढ़ में तीन खण्डित जैन प्रतिमाओं की चरण चौकी पर 11वीं शताब्दी के लेख से पता लगता है कि यह नगर कोषवर्धन या और इन प्रतिमाओं का निर्माण किसी राजपूत सरदार ने करवाया और इसी समय तीन जैन मंदिरों का भी निर्माण हुआ। परमारों के बाद खीचिंयों ने फिर मालवा के सुल्तानों ने इस पर राज किया। 1542 ई. में शेरशाह सूरी जब मालवा पर आक्रमण कर गागरोन होते हुए रणथम्भोर के लिए रवाना हुआ था तब कोषवर्धन को छावनी बनाया था। शेरशाह सूरी को यह स्थान बहुत पसन्द आया और उसने इस किले की मरम्मत करवाई। दुर्ग के मध्य की दीवार का निर्माण भी करवाया और कोषवर्धन से नाम बदलकर इस दुर्ग का नाम शेरगढ़ रख दिया। सन् 1562 इस पर में मुगलों का अधिकार हो गया। इसके बाद यह किला कोटा राज्य के हाड़ा शासकों के अधिकार में आ गया। डॉ. मथुरा लाल शर्मा ने लिखा है कि कोटा राज्य के संस्थापक रावंमाधोसिंह (1648) के समय यह उनके प्रमुख परगनों में शामिल था। उसके बाद कोटा के छठे शासक भीमसिंह (1764- 77) ने कोटा का नाम नन्दग्राम एवं शेरगढ़ का नाम बरसाना रख दिया था। उस समय यह तीर्थस्थल बन गया था। वि.स. 1826- 76 में कोटा के प्रधानमंत्री झाला जालिम सिंह ने किले की सबसे बाहर की दीवार और नगर प्राचीर का निर्माण करवाया। शेरगढ़ में पिड़ाडियों को रहने की अनुमति भी जालिम सिंह ने दी थी। यह किला द्विस्तरीय है। प्रथम भाग में शहरवनाह तथा द्वितीय भाग में प्राचीन दुर्ग स्थित है। शहरपनाह का प्रवेश द्वार बरखेड़ी द्वार है जिसके बाँई ओर की ताक में सबसे प्राचीन शिलालेख लगा हुआ है। परकोटा पूर्ण सुरक्षित रूप में बनाया गया है। इसके भीतर बस्ती बनी हुई है। यहाँ कई प्राचीन भवन और हवेलियाँ भी हैं जो प्रायः खण्डर हो चुकी है। किसी समय शेरगढ़ शैव, वैष्णव जैन व मुस्लिम संस्कृति का अनूठा संगम था। यहाँ आठ मंदिर है जिनमें आज भी पूजा होती है। चार जैन मंदिर व सात छत्तरियाँ सही स्थिति में हैं। लक्ष्मीनाथ एवं त्रिमूर्ति जैन मंदिर पुरातत्व विभाग के सरंक्षण में हैयहाँ कल्याण राय जी का मंदिर सबसे प्रमुख थाशहरपनाह में गोपाल मंदिर, चर्तेर्भुज मंदिर, जोहरा-बोहरा मंदिर आज भी जीवन्त हैयह छोटी पहाड़ी पर बना गिरी दुर्ग है। इसका प्रवेश द्वार जीर्ण-शीर्ण हैइसके पास एक द्वार है जिसे भैरव दरवाजा कहा जाता है। यह हमेशा बन्द रहता है। यत्र-तत्र यहाँ प्रस्तर खंड व प्रतिमाएँ, तोपे, राइफलें, तोप, गोले व अन्य उपकरण हैंदुर्गा बुर्ज के पास प्राचीन बावड़ी में मैथून मूर्तियाँ भी है। वर्तमान में यह बारां जिले की अटरु तहसील में है। अब यह एक एतिहासिक धरोहर है।



शाहबाद का किला- जंगलों के बीच छोटी-सी पहाड़ी पर बारां-शिवपुरी मार्ग पर बारां से 731 मीटर मुकुन्दरा पर्वत श्रेणी पर यह गिरी दुर्ग है। यह हाड़ौती का सबसे मजबूत और बेहतरीन किला है। कुंटकोह की वादियों से घिरे इस किले में 18 तोपें रही हैं। इसमें तोपखाना, बारुदखाना और कई मंदिर है। कहा जाता है कि यहाँ सोने की चेनों से कुएँ से पानी निकाला जाता था। यहाँ ब्राह्मणों की अधिकता थी और ''खाने के पीछे राज्य छोड़ दिया'' बात भी इसी किले से जुड़ी हैकहा जाता है कि यहाँ खजाना आज भी जमीन में दबा हुआ है। ओरंगजेब के पराभव काल में यहाँ मराठों के सेनापति खाण्डेराव से वर्चस्व स्थापित हुआ। 1714 में कोटा के महाराव भीमसिंह प्रथम से इसे मराठों से जीत लिया। जनश्रुति है कि जालिमसिंह झाला ने सेनापति खुण्डेराव के पुत्र मेघसिंह और उनके सामन्तों को कुण्डाखोह नामक स्थान पर भोज के लिए आमंत्रित किया तब झाला के विश्वस्त सेनानायक अनवर खाँ ने शाहबाद दुर्ग पर अधिकार कर लिया। देश स्वतन्त्र होने तक यह कोटा राज्य का ही भाग रहा। इस किले की सुदृढ़ प्राचीर और विशाल बुर्जे शाहबाद के अतीत की कहानी कहते हैं। किले में तीन प्रवेश द्वार व अनेक बुर्जे हैंयहाँ 18 तोपों में नवलबाण तोप दूर तक मार करने की क्षमता के कारण प्रसिद्ध थी। भीतर राजप्रसाद, रनिवास तथा सैनिकों के आवास गृह बने हैं। यहाँ अथाह जल स्रोत हैएक बड़ी बावड़ी प्रसिद्ध हैएक गुप्त मार्ग है जो किले के भीतर से बाहर आपातकाल में निकलने का निकास था। दीवार में गोदामनुमा कक्ष बने हैं। इसमें शायद खजाना भरा होता था। शाहबाद का अलंकृत दरवाजा और बादल महत्व भी अनूठे स्थापत्य के कारण दर्शनीय हैं। प्रवेश द्वार के दोनों और भव्य दो प्रतिमाएँ (अलंलपख-स्थानीय भाषा में) लगी थी। इसके निर्माण व सही तिथि के बारे में प्रारम्भिक तिथियों का अभी भी एकदम प्रमाणिक आधार नहीं प्राप्त है। इतिहासकारों द्वारा दुर्ग का निर्माण 8वीं-9वीं शती के लगभग (हम्मीर वंशीय चौहान) परमार राजाओं द्वारा हुआ। दूसरी मान्यता के अनुसार 1521 में चौहान वंशी धन्धेल राजपूत मुकुटमणि देव द्वारा बनवाया गया थाइस पर मांडु के सुल्तान महमूद खिलजी का अधिकार था किन्तु बाद में राणा कुम्भा ने माड़ सुल्तान को पराजित कर शाहबाद दुर्ग को अपने राज्य के अन्तर्गत मिला लिया था। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर इस दुर्ग का पुर्ननिर्माण शेरशाह सूरी द्वारा करवाया गया। वह अपने कालिंजर अभियान के समय शाहबाद व शेरगढ़ से गुजरा था। उसके बाद मुगलों का राज रहा। शाहजहाँ ने शाहबाद दुर्ग को वहाँ के अंतिम प्रतापी राजा चौहान नरेश इन्द्रमन को पराजित कर लिया। बाद में यह दुर्ग उसने अपने सेनापति विठ्ठलदास को इनायत कर दिया। शाहबाद का प्राचीन नाम कुछ ओर था बाद में शेरशाह व औरंगजेब ने इसका नया नाम दिया। शाहबादकिला अपने चतुर्दिक विशाल घने जंगल व दो तरह कुण्डाखो नामक प्राकृतिक झरने व तीसरी ओर एक तालाब से घिरा अनियमित पर्वतमालाओं के मध्य है। यह प्रकृति प्रद्वत परिवेश के कारण विकट दुर्ग माना जाता है। इस किले से औरंगजेब को विशेष लगाव था। वह अपनी दक्षिणी यात्रा के दौरान इसी किले का उपयोग विश्राम हेतु करता था। इसकी मीनारे 150 फीट ऊँची हैं। यह किला मुगल फौजदार मकबूल द्वारा निर्मित मुगल स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है।


रामगढ़- यह 10वीं शताब्दी में मलय वर्मन उवीश में मेढ़त राजाओं के अधीन था। इसके बाद खीचियों, गोड़वंश, मालवों के आधिपत्य में रहा। अंत में बूंदी के हाड़ाओं का वर्चस्व स्थापित हुआ। बाद में परगना कोटा के आधिपत्य में चला गया। रामगढ़ की डूंगरी के घेरे में माला की तलाई, रावजी की तलाई, पुष्कर सागर, बड़ा तालाब व नौतखा तालाब है। माला की तलाई में वर्षभर पानी रहता हैरामगढ़ की डूंगरी ज्वालामुखी के कारण तश्तरी की बनावट में चारों और से गोलाकार है।


केलवाड़ा किला- यह छोटे आकार का किला है। एक ही दीवार पर मंदिर व दरगाह साम्प्रदायिक एकता की घोषणा करते हैं। इसमें मूर्तिकला का खजाना है।


गुगोर किला- बारां से 65 किलोमीटर छबड़ा के पास यह गुगोर फोर्ट (जल जौहर) स्थित है। इस पर बारां के हाड़ाओं का राज थायह पार्वती नदी पर पुराना किला है। इसमें खींची राजाओं का राज था। यह लगभग 800 साल पुराना है। यह एक गिरी दुर्ग है। यह दुर्ग सार-संभाल के अभाव में यह खंडहर होता जा रहा हैयह कई वीर गाथाओं को समेटे हुए है। इसके छः दरवाजे हैं। इसे तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है। इसके आस- पास प्राचीन छतरियाँ, शतंरज का चबूतरा, रानी महल, बाबा की दरगाह है। यहाँ सुन्दर व बड़ा झरना यहाँ गिरता है। कहा जाता है कि मुगलों के आक्रमण से खींची रानियों ने जल में कूदकर जान देकर जल जौहर किया थाइसलिए इसे रानीदह कहा जाता है। किले के पीछे नदी किनारे अमेष्ठियों में खींची राजा का चबुतरा है। छतरियाँ है जो भूल-भूलैया के नाम से जानी जाती है। नदी के किनारे शंतरज का चबूतरा है। खींची राजा धीरसिंह की यहाँ सभा लगती थी जहाँ बैठकर राजा प्रजा की फरियाद सुनते थे। किले के मुख्य द्वार पर हिन्दु पूजापाठ व मुस्लिम नवाज अदा करते थे। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है। दुर्ग के पीछे कई सैकड़ों वर्ष पुरानी पीर बाबा की दरगाह है। किले में एक गुप्त रास्ता है जो जमीन के अन्दर होकर पार्वती नदी तक जाता है। किले के अन्दर व बाहर कई शिलालेख हैंकई मूर्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी हैं। आज गूगोर के किले को सरंक्षण की आवश्यकता है


कोटा-कोटागढ़ वैलेस- यह ऐतिहासिकगढ़ 11वीं शताब्दी में (1264) महाराव उग्मेद सिंह ने बनवाया था। इसे कोटागढ़, सीटीपेलेस या कोटा फोर्ट के नाम से जानते है। यह चम्बल के पूर्वी किनारे पर बना हुआ है। सैलर दरवाजा कोट्याभील की स्मृति में बनवाया था जो दक्षिण में केशवपुरा पोल के पास था। यहाँ कई शासकों के समय अलगअलग प्रकार से कार्य होता रहा। यह गढ़ राजस्थान में सबसे बड़े किले परिसरों में जाना जाता है। इसका मुख्यद्वार हाथी पोल कहलाता हैयहाँ बीहड़, दीवारे, गढ़े हुए गुम्बद व हैडरेल्स की सजावट बहुत सुन्दर है। जब यह गढ़ बना तब चम्बल की लहरें दुर्ग की दीवारों से टकराती थी। किन्तु बाद में कोटा बेराज बनाकर दुर्ग व नदी के मध्य सड़क का निर्माण किया गया है। यह दुर्ग रूप में न होकर रियासत के निवास के काम आता था। यह अपनी अद्भुत बनावट के लिए। तात्कालीन शासकों की सामरिक आवश्यकता का प्रतीक था। यह भारतीय व मुगल शैली का सम्मिश्रण है। दुर्ग में ऊँचे दरवाजे व विशाल परकोटा से सजा है। दुर्ग के भीतर बृजनाथ जी का मंदिर, जैतसिंह महल, माधोसिंह महल, बड़ा महल, कॅवरपदा की ड्यौड़ी, अर्जुन महल, जैतसिंह महल (बूंदी के शासक राव देवसिंह के पुत्र जिन्होंने गुलाब महल बनवाया-वर्तमान में यह गढ़ का हिस्सा है) हवामहल, चन्द्रमहल, बादल महल, जनाना महल, दीवाने आम, हथियापोल, दरबार हॉल, भीम महल, बारहदरी और झाला हवेली दर्शनीय हैं। 1970 ई. में यहाँ एक माधोसिंह संग्रहालय भी खोला गया। महाराव उम्मेदसिंह द्वितीय ने इन सभी महलों का पुननिर्माण करवाया था। जनाना महल पाँच मंजिला है और इसकी सीढ़िया इस तरह बनी है कि पहिये वाली कुर्सी व पालकी में बैठकर आराम से चढ़ा जा सकता है। एक भवन में चूने में नीले, हरे एवं सफेद रंग के काँच का किया गया कार्य दर्शनीय है। यहाँ काँच की जड़ाई का कार्य भी बेजोड़ है। लक्ष्मी भंडार की तिवारी, अर्जुनमहल, छत्र महल व बड़ा महल की दीवारों पर बनाये गये भित्तिचित्र बहुत ही सुन्दर व आकर्षक हैं। यहाँ के शिकार दृश्य बहुत अधिक संख्या में बने है। चित्रों में धार्मिक, दरबारी, रागमाला, बारहमासा आदि में प्रकृति का व स्थानीय जंगलों का बहुत सुन्दर दृश्य उकेरे गये हैं। इस गढ़ में पालकियाँ, अस्त्र-शस्त्र, जलघड़ी, मृत छायाचित्र आदि संग्रहित हैं। यह गढ़ स्वतंत्रता की लड़ाई के समय आन्दोलनकारियों का प्रमुख केन्द्र था। इसमें छः ऐतिहासिक दरवाजे सूरजपोल, किशोरपुरा गेट, पाटनपोल, लाड़पुरा, केथूनीपोल आदि हैं। ऐतिहासिक राज्यों से कोटा कुछ समय तक मालवा के सुल्तानों के नियंत्रण में रहा। मुगलशासक ने जब 1631 में राव माधोसिंह को कोटा राज्य शासक बनाया। धीरे-धीरे कोटा परकोटे का विस्तार हुआ। यह दुर्ग एक तरफ पानी व एक तरफ समतल स्थान पर जनता से जुड़ता है। पर्यटन की दृष्टि से यह विशेष महत्व का है।


झालावाड़ :- राजस्थान के 6 प्रसिद्ध किलों में UNESCO World Heritage में झालावाड़ का विश्वस्तरीय गागरोन किला आता हैं। यह जल दुर्ग है जो चारों तरफ से पानी से घिरा है। यह भारत का एकमात्र दुर्ग हैं जो बिना किसी नींव के बना हैइसका निर्माण राजा बीजलदेव ने 12 वीं सदी में करवाया था। 300 वर्ष तक यहाँ खीचियों ने राज किया। 14 युद्ध व 2 जौहर हुए। यह एक मात्र दुर्ग है जसके तीन परकोटे हैं। दो मुख्य प्रवेश द्वार हैं। एक द्वार नदी की ओर तो दूसरा पहाड़ी रास्ते की ओर हैं। पहले इस किले का उपयोग दुश्मनों की मौत की सजा देने के लिए प्रयोग किया जाता था। इसमें गणेश पोल, नक्कार खाना, भैरवी पोल, मधुसूदन मंदिर, रंगमहल, किशनपोल, सितेहखाना का दरवाजा, दीवान-ए-आम आदि दुर्ग परिसर में बने हैं। अकबर ने इसे अपना मुख्यालय बनाया था। बाद में इसे बीकानेर के राजपूत पृथ्वीराज को जागीर में दे दिया। किले की राम बुर्ज में पैदा हुए हीरामन तोते बोलने में दक्ष हैं। यह काली सिंध व आतु नदी के संगम पर बना है। गगरोण दुर्ग के दो साके- प्रथम 1423 ई. में माड़ (मालवा) के सुल्तान अलपखाँ गोरी, अचलदास खींची और पटरानी लाला मेवाड़ी (उम्मादे) तथा दूसरा साका 1444 ई. में मांड़ के सुल्तान महसूद खिलजी प्रथम पाल्हणसी और उनकी रानियों ने किया। यहाँ मिट्ठे साहब की दरगाह, संतपीपाजी की छतरी, बुलंद दरवाजा, गीध कराई व जालिम कोट दर्शनीय स्थल हैं।


झालावाड़ गढ़ पैलेस :- 1838 में राजा मदनसिंह द्वारा निर्माण कराया गया। गढ़ का शीशमहल आकर्षक है। एक तरफ राजाओं के चित्र व रामायण, कृष्णलीला व श्रीनाथजी के चित्र हैं। इसमें तीन द्वार है। तीनों का आकार चौकोर है। आन्तरिक कक्षों में भव्य रंगशालाएँ, कलात्मक झरोखे, जनानी ड्यौड़ी, दरीखाना, सभागार व शीशमहल है। 1915 ई. में भवानी सिंह द्वारा स्थापित संग्रहालय भी है।


मनोहरथाना का किला :- यह झालावाड़ से 90 किमी. दूर है। इसका शाब्दिक अर्थ सुंदर झाँकी हैयह किला परवन और कालीखाड़ नदी के मिलने का साक्षी है। दोहरे स्तर व कंगूरे वाला यह दुर्ग ऐतिहासिक व सामरिक महत्व का है। इसका आन्तरिक भाग प्राचीन व बाहरी भाग भीमसिंह द्वारा बनवाया गया था।


गंगधार का किला :- झालावाड़ से 40 कि मी. की दूरी पर हैं। इसका मुख्य आकर्षण प्राचीन शिलालेख व आस-पास मंदिर है। इसके अलावा झालावाड़ से झालरापाटन की ओर पहाड़ी पर झाला राजा पृथ्वीसिंह द्वारा बनाया नवलखां किला है। जिसका निर्माण 1860 ई. में कराया गया किन्तु यह अधूरा ही रह गया।


इस प्रकार हाडौती क्षेत्र में प्राचीन शैली, राजपूत शैली और मुगल स्थापत्य से निर्मित यह किले न जाने कितनी कहानी समेटे आज भी हाड़ौती की शान बने हुए हैं।