जामनगर राज्य के दुर्ग

राष्ट्र का प्रदेश प्राचीनकाल से महत्वपूर्ण रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व इसमें कुल 222 देशी रियासतें थी। इसमें जामनगर राज्य का क्रम जूनागढ़ और भावनगर के बाद तीसरा था। उसके राजा 'जाम' कहलाते थे। इसलिए उनके नाम पर से वह राज्य ''जाम-नगर'' कहलाता था। वास्तव में उस राज्य का नाम तो नपा नगर था। बाद में इस राज्य का नाम नपानगर रहा लेकिन उसकी राजधानी का नाम जामनगर रखा गया था। इस राज्य के शासक जाडेजा वंश के थे। जाडेजा खुद को चंद्रवंशी और कृष्ण के यादव कुल के मानते हैं। जाडेजाओं ने सिंध में से कच्छ में आकर अपनी सत्ता बारहवीं सदी में (1147) स्थापित थी। उसी वंश की एक शाखा के जामरावल ने 1540 में जामनगर राज्य की स्थापना की थी। जामरावल के पूर्वज (मूल पुरुष) का नाम झलाजी था। उसके ऊपर से उस प्रदेश का नाम झलार या झालावाड़ पड़ गया थाजाम रावल के बाद विभाजी और उसके बाद सताजी (सत्रसाल) (1569-1608) शासक हुए। उसके संबंध गुजरात के आंसन्न सुलतान मुजफ्फरशाह-3 के साथ अच्छे थे। उसने चाँदी का ''कुंवरी' नामक सिक्का रुपिये के एक सिक्के के साथ एक थैली में रखकर सुलतान को भेजकर संदेश में कहा था कि* “मैं अपनी सिक्का रूपी ''कुंवरी'' की शादी आपके सिक्का रूपी रुपिये के साथ करता हूँ।'' इस प्रकार की चतुराई भरी बात से खुश होकर सुलतान ने उसको (सताजी) अपने सिक्के ढालने की संमति दी थी ये सिक्के बाद में “कुंवरी'' का अपभ्रंश होकर ''कोरी'' के नाम से प्रचलित रहे।



अन्य राज्यों की माफक जामनगर राज्य ने भी अपने सुरक्षा प्रबंध के लिए दुर्ग बनवाये थे जिसमें से जामनगर बालंभर, जोडिया, इडोयाणा, जामखंभालीया माडपर वगैरे के दुर्ग महत्व के रहे हैं। उसमें भी जामनगर का जो दुर्ग है वह प्रक्षणिय और महत्व का है। जामनगर का यह दुर्ग 1788 में राज्य के दीवान मेरुखवास ने बंधवायाथा। यह दुर्ग सफेद पत्थर का था। उसमें पाँच दरवाजे और 23 बुर्ज थे। आज भी उसके बुर्ज और दीवारें विद्यमान है। इन दरवाजों में से खंभालिया दरवाजा सबसे1714 बड़ा और अच्छा है। इस किले के निर्माण के बाद जामनगर शहर की सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ हो गई थीमेरु के सत्ताकाल में ही जसयण के वाजसुर खाचर ने अष्टकोट का कस्बा जाम जसाजी की शादी के उपलक्ष्य में नजराने के रूप में दिया था। यहाँ पर अष्टकोणी दुर्ग बनाया गया था। उसके ऊपर से उसका नाम अष्टकोट पड़ा है। कच्छ के लाखा फुलाणी यहाँ पाटण के मूलराज सोलंकी के साथ में हुई लड़ाई में मारे गये थे। यहीं लाखा फुलाणी के बारे में कहा जाता है कि उसने पाटण में जाकर लँट चलाई थी। उसके मित्र राग्रहार के कहने पर उसने अष्टकोट बसाया था, और काठियावाड़ में सौ प्रथम बाजरी की खेती उसी ने शुरू करवाई थी। इसके बारे में एक दुहा भी प्रचलित है कि-


“बलिहारी तारी बाजरा जेमा लांबा पान घोड़े पाँखों आपीयो, बड़ा भया जवान


अर्थात् लंम्बे पानवाले बाजरे की तोबलिहारी है क्योंकि उसके खाने से घोड़े को भी जैसे पंख आ जाते हैं और उड़ने जैसी गति पकड़ लेते है और बड़े उसको खाने से जवान जैसी शक्ति प्राप्त करते हैं।


इसी प्रकार जामनगर रियासत के जोड़ीया परगणा में बालंभर आमरण और जोड़ीया के दुर्ग भी महत्व के रहे है। ''तारीखे-सारेठ'' के अनुसार बालंभर में सबसे1714 में कच्छ के राव देशलजी ने बहुत बड़े दुर्ग का निर्माण करवाया थाबालंभर मूलतः जामनगर राज्य के आधीन था। लेकिन जाम तमाची ने कच्छ के शासक को उसने जो मदद कीथी उसके बदले में बालंभर बक्षीस के रूप में दिया था। परन्तु बाद में जामनगर के दीवान महेरामण (मेरा) खवास ने कच्छ को हराकर बालंभर पुनः प्राप्त कर लिया था। लेकिन जामनगर में मेरु खवास की स्थिति डांवाडोल देखकर 1768-70 में कच्छ के राव गोडजी-2 ने बालंभर का दुर्ग पुनः प्राप्त कर अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उसके लिए उसने एक प्रबल सैना को बड़ी तोपों के साथ प्रस्थान करवाया। परन्तु कच्छ का रण पारकर उसका सैन्य बल बालभर पहुँचाते उसके पहले ही जामनगर की सेना वहाँ आ पहुँची और बालंभर के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। कच्छ के दुर्ग रक्षक अधिकारियों ने घेरे से थककर किला जामनगर की सेना को सौंप दिया। जामनगर की सेना को बड़ी मात्रा में साधन सरंजाम, तोप और धनकोष प्राप्त हुआ। इससे जामनगर की प्रतिष्ठा में वद्धि हुई और कच्छ को मुँह की खानी पड़ी।


बालंभर दुर्ग इसलिए महत्व का है कि वह कच्छ की खाड़ी में कच्छ के बिलकुल सीमा के सामने आया हुआ है। यहाँ से कच्छ पर समुद्र को सरलता से पार किया जा सकता है। एक प्रकार से जामनगर का यह सीमा रक्षक दुर्ग था। इसी प्रकार जोडीया, जो कि एक बंदरगाह है, वहाँ भी मेरु खवास के भाई भवान और भतीजे प्रागजी और सगराम ने दुर्ग का निर्माण करवाया था। 1813 में मस्कती अरबों ने कंडारेणा और पड़हरी के दुर्ग जीत लिये थे। लेकिन अंग्रेजों की मदद से जामनगर ने अरबों को वहाँ से खदेड़ दिया तो वे संगराम खुवास की जागीर में स्थित जोड़ीया के दुर्ग में छुप गये थे। जामनगर के शासक की वितनी पर कर्नल स्ट के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सेना ने जोडिया के दुर्ग पर आक्रमण किया था। अंत में सगराम खवास भागकर मारबी चला गया परन्तु बाद में हुई संधि के अनुसार जोडीया का दुर्ग तो उसके पास से ले लिया गया लेकिन जिवाई के लिए आमरण का परगणा उसको वापस दे दियागया। बाद में जोडीया और बालंभर के परगने ब्रिटिश सरकार के देशी एजेन्ट सुंदरजी शिवजी को वार्षिक 1 लाख 15 हजार कोरी (21000 रुपये) में ठेके पर दिये गये थेअब जोड़िया, बालंभर और आमरण के यह मध्यकालीन दुर्ग 2001 के भूकंप में विध्वंश हो गये है।


1774 में पोरबंदर के राणा सरतानजी ने भटोली में एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। यह दुर्ग जामनगर राज्य की सीमा के बिल्कुल सामने होने के कारण जामनगर ने इसे शत्रुता का कार्य गिना था। यह दुर्ग इतना अच्छा बना हुआ था कि आसपास के लोग उसे देखने आते थेजामनगर राज्य के एक भाट ने भी उसे देखने की इच्छा प्रगट की। लेकिन उसे किलेदार ने प्रवेश नहीं दिया। तब से वह हाथ में चूड़ियाँ पहनता थाबाद में यह राज्य दरबार में साड़ी और चूड़ियाँ पहनकर गया तब दीवान मेरु खुवास ने दरबार में उसका कारण पूछने पर उसने बताया कि- “क्योंकि मेरा स्वामी स्वत्वहीन है, इसलिए यही पोशाक पहनना चाहिए। और बाद में उसको भटोली के किले में प्रवेश न दिये जाने की बात बताई। उसके बारे में एक दोहा भी प्रचलित है कि -


“उठने अजयालना, भटोणी कर थूपको, राणो वसाप से धूमली, तो जाम मागशे दूको।''


(ओ अजा खवास के पुत्र मेरु तू भटोली के किले पर आक्रमण कर और उसका विनाश कर)



पोरबंदर के लिए शक्तिशाली जामनगर राज्य का मुकाबला करना कठिन था। उसने जूनागढ़ के शक्तिशाली दीवान अमरजी की मदद ली और उसकी मध्यस्थी से समाधान हुआ। जिसके अनुसार निश्चित की गई अवधि में पोरबंदर ने भटोली का दुर्ग तोड़ डालने का वचन दिया थालेकिन वचन का पालन न करने पर जामनगर ने फिर आक्रमण किया। उस समय पोरबंदर ने गोंडल राज्य के कुंभाजी-2 की मदद माँगी। उन्होंने भी समाधान कराने का प्रयत्न किया। लेकिन मेरु खुवास ने उसको स्वीकृत नहीं किया और दुर्ग का ध्वंश किया और उसके पत्थर ढुलवाकर जामनगर की सीमा में एक नये दुर्ग का निर्माण किया।


इसी प्रकार मोडपर का दुर्ग भी जामनगर रियासत का एक महत्व का दुर्ग है जो 17वीं शताब्दी में बना था। इस दुर्ग में जामनगर के एक अरब सैनिक ने एक अंग्रेज अमलदार को मार डाला था। तब ब्रिटिश सेना ने उस पर आक्रमण कर 1812 में जामनगर को संधि करने पर बाध्य किया जिसमें एक शर्त यह भी थी कि मोडपर के किले को तोड़ डाला जाएलेकिन यह शर्त कभी पूरी नहीं की गई। इसी प्रकार पोशित्रा का दुर्ग द्वारका के पास ओखा मंडल में स्थित है। वहाँ समुद्री डाकुओं का बहुत प्रभाव था। इस विस्तार के व्यापार को उनसे बहुत हानि पहुँचती थी। जामनगर ने इसके पूर्व इसको नियंत्रित करने के प्रयत्न किये थे। लेकिन ज्यादा सफलता नहीं मिली थी। जामनगर के मेरु खुवास ने जूनागढ़ के दीवान अमरजी की मदद से 1775 में योशित्रा के दरियाई डाकुओं का भय दूर करवाया और डाकुओं की सम्पूर्ण पराज्य हो पाई। उनके पास से बहुत सी धनराशि विजेताओं को प्राप्त हुई।


इस प्रकार जामनगर की रियासत में छोटे-बड़े बहुत दुर्ग थे। लेकिन सबसे महत्व का दुर्ग तो जाम रणमलजी-2 (1820-1852 ई.) के शासन काल में जामनगर के अन्दर में निर्मित किया गया था। 1834 से 1846 के बीच जामनगर राज्य में अकाल पड़ा था। तब अकाल राहत कार्य के रूप में जाम रणमलजी ने 1 लाख रुपये की लागत से एक कोठा और राजमहल बंधवाया था। एक लाख रुपये की लागत से एक कोठा और राजमहल बंधवाया था। एक लाख रुपये की लागत से बनवाया गया था इसलिए इसे 'लाखाटा कोठा' कहते हैं। लाखोटा का जो राजमहल है वह जामनगर शहर के बीच में एक तलाब बनाकर उसके बीच में बनाया गया है और पत्थर के बने हुए पुल के ऊपर से वहाँ पहुँचा जा सकता है। यह महल बहुत भव्य और मध्यकालीन स्थापत्य कला का उन्नत नमूना है। इसमें करीब एक हजार सैनिक रखें जा सकते हैं और कई दिनों तक आक्रमणकारी सैन्य का मुकाबला कर सकते थे। इसके लिए पानी और अनाज के संचय करने की व्यवस्था है। जबकि तलाब के किनारे पर एक कोठा बनाया गया है जो लाखोटा कोठा कहलाता है। तलाब के बीच का महल भी लाखोटा महल कहलाता है। 2001 के भूकम्प से यह संरक्षित स्मारक लगभग ध्वस्त हो गये हैं।


लाखोटा दुर्ग और महल के निर्माण के समय जामनगर के शासक जाम रणमलजी- 2 खुद हाजर रहते थे और जरूरी सूचनाएँ देते थे। इसके निर्माण के समय जमीन में से इतना पानी निकला था कि इसे बाहर निकालने के लिए अनेक जगह से उसके निकालने की व्यवस्था की गई थी। इसके बुर्जा पर तोपें रखी गई थी। “पश्चिम के पादशाह' कहे जाने वाले जाम साहब निर्मित लाखोटा कोठा की तुलना कवियों ने ''इन्द्र की अटारी'' के साथ की है। कवि वजमाल ने इसे ''शोभा की शिरोमणी' कहा है।


इस प्रकार जामनगर शहर में दो दुर्ग थे। एक दुर्ग जिसमें जो पूरे शहर के चारों और बनाया गया था और दूसरा दुर्ग लाखोटा था जो शहर के बीच मे निर्मित तलाब के बीच में बनाया गया था, जो राजमहल भी था और दुर्ग भी था।


इस प्रकार सौराष्ट्र के जामनगर राज्य में जो दुर्ग बने हैं वे बहुधा मध्यकालीन है। मध्यकाल में संरक्षण के साधन की दृष्टि से दुर्ग का बहुत महत्व था। मध्यकालीन दुर्ग स्थापत्य कला के मुख्य लक्षण यहाँ के दुर्ग में भी दृष्टिगोचर होते हैं। जैसे कि दो से लेकर बारह तक दरवाजे, अनेक बुर्ज याने निरीक्षण टावर और बंदूक और तोप की मार करने के लिए छिद्र किले के चारों ओर खाईयाँ भी थी जिसमें पानी भरा था, क्योंकि वह आक्रमण सैन्य को रोकने का भी साधन था। किले के दरवाजे प्रायः रात में बंद कर दिये जाते थे और सबेरे खोल दिए जाते थे। किले के दरवाजों में बड़े-बड़े नुकीले मोटे खीले जड़े गये थे और इसलिए ऐसे दरवाजे तोड़ने के लिए बीच में ओट रखकर हाथियों द्वारा तोड़े जाते थेयह मध्यकालीन दुर्ग स्थापत्य की विशेषताएं हैंजो जामनगर राज्य में भी थी।


इन किलों की श्रृंखलाओं के कारण ही जामनगर राज्य का शक्तिशाली राज्य गिना जाता था और वह अपना राज्य तो सुरक्षित रख ही सका, साथ ही में दूसरे प्रदेशों में विस्तार भी कर सका था। इस राज्य की आक्रमण सेना ने राज्य विस्तार करने में महत्व की भूमिका निभाई थी, जब कि उसके किलों ने राज्य के भू प्रदेश पर उसके स्वामित्व की रक्षा कीइस प्रकार आक्रमण और संरक्षण की संयुक्त नीति द्वारा जामनगर का राज्य इतना शक्तिशाली बन गया कि उसके राजा “पश्चिम के बादशाह' गिने जाने लगे।