जल दुर्ग गागरोन : भारतीय दुर्ग भारतीय दुर्ग पटपटा का गौरव

गागरोन मूलतः उत्तरी भारत का एक मात्र प्राचीन जल दुर्ग है। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान और मालवा के प्राचीन पठारी क्षेत्र पर स्थित, कोटा महानगर से 85 कि.मी. दूर मुख्यालय झालावाड़ के निकट। इसी जलदुर्ग गागरोन का शोधपरक और प्रामाणिक इतिहास, अतीत और वर्तमान के साथ झालावाड़ के इतिहासकार ललित शर्मा के इस शोध ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है। ग्रन्थ पढ़ने से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि इसकी शोध, लेखन में कितना श्रम, समय और अर्थ भी लगा होगा। अनेकानेक सन्दर्भो (संस्कृत, हिन्दी) तथा मौलिक शोध से पुष्ट यह रचना राजस्थान और मालवा के इतिहास, पुरातत्त्व के उत्तम शोध प्रबन्ध के स्तर की है। 



विवेच्य ग्रन्थ में कुल छः अध्याय हैं, इनमें क्रमशः जलदुर्ग गागरोन का परिचय, गागरोन की मध्ययुगीन ऐतिहासिक महत्ता, गागरोन की आध्यात्मिक धारा, गागरोन की साहित्यिक धारा, गागरोन के अभिलेख, शिल्प, मूर्तियां एवं चित्रकला तथा गागरोन के दर्शनीय ऐतिहासिक पार्यटनिक वैभव स्थलों का प्रतिपादन किया गया है। अन्त में 34 दुर्लभ अंग्रेजी ग्रन्थों, 61 संस्कृत, हिन्दी ग्रन्थों, 5 उर्दू भाषा के ग्रन्थों तथा 8 पत्र-पत्रिकाओं, रिर्पोट्स की सूची है। इतनी विस्तृत सहायक सामग्री और स्वयं शोधकर्ता की मौलिक खोजों के आधार पर लिखा गया यह ग्रन्थ किसी भी एतदिषयक शोध प्रबन्ध से अधिक प्रामाणिक और उपयोगी है। जलदुर्ग गागरोन से सम्बन्धित किंचित मात्र भी कहने, लिखने को नहीं बचा है। निश्चय ही अपने प्रदेश की ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक धरोहर को विशिष्ठता के साथ उजागर करने वाला यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। इसके पन्ने-पन्ने पर लेखक की शोध और मौलिक खोज उसके परिश्रम के साथ उजागर होती है। लेखक ललित शर्मा एक खोजी इतिहासकार है तथा वे सुविख्यात पुरातत्त्ववेत्त्ज्ञा (स्व.) वी.एस. वाकणकर के शिष्यों की माला में रहे हैं। ललितजी इससे पूर्व 8 इतिहास शोधग्रन्थ जो उनके अपने जिले पर हैं, की मूर्तिकला, शिलालेख, संत परम्परा, ऐतिहासिक धरोहरें व उनके वैशिष्ठय पर प्रणयन कर चुके हैं। इन ग्रन्थों के माध्यम से उन्होंने सम्पूर्ण राजस्थान तथा मालवा के इतिहास का भी यशोगान किया है। अतः इन प्रदेशों के लिए भी उनके ग्रन्थ उपयोगी हैंइसी क्रम में यह ग्रन्थ उनके पूर्व प्रकशित गागरोन ग्रन्थ का संशोधित व परिवर्द्धित रूप है


प्रस्तुत ग्रन्थ में स्वामी रामानन्द के प्रमुख शिष्य व संत कबीर के गुरू भाई राजर्षि संत पीपाजी तथा ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती 'अजमेरी' के शार्गिद ख्वाजा हमीदुद्दीन चिश्ती 'गागरोनी' का सम्बन्ध गागरोन से बताया है। स्वामी रामानन्द व संत कबीर ने पहली बार राजस्थान में गागरोन की यात्रा व चतुर्मास संत पीपाजी की प्रार्थना पर ही की थी, शक्ति के साथ भक्ति साधना व आध्यात्म का भी केन्द्र रहा हैयह सूफी संत ख्वाजा हमीदुद्दीन चिश्ती 'गागरोनी' की साधना स्थली रहा है। इस वीर भूमि गागरोन का कण-कण राजा अचलदास खीची के अद्भुत शौर्य, रानियों के विराट जौहर तथा खीची नरेश जैतसिंह के अचल दृढ़ संकल्प एवं प्राणोत्सर्ग का प्रमाण हैजिन्होंने अपनी मरणधर्मी कटिबद्धता से गागरोन का निर्माण किया।


प्रथम अध्याय में बताया है कि गागराने प्राचीन जलदुर्ग है - तीनों ओर विशाल जलराशि से घिरा हुआ दुर्ग। यह आहू और कालीसिन्ध नदियों के संगम पर है तथा यह कठोर, अभेद्य पाषाणी विशाल चट्टानों पर बगैर नींव के बना खड़ा है। ललित शर्मा ने मआसिरे-महमूद शाही के इतिहास लेखक शिहाब हाकिम, संत जाम्भोजी, गाडण कैसोदास, सूर्यमल्ल मिश्रण, बाकींदास जैसलमेर री ख्यात, गुण जवान रासो और राजविलास तथा अचलदास खीची ही वचनिका, चैहान कुल कल्पद्म, वीर विनोद, मेडीवल मालवा सहित अनेक मूल अंग्रेजी व हिन्दी ग्रन्थों का उदाहरण व पुरातत्त्व की खोज शोध का उद्धरण देकर गागरोन दुर्ग की महत्ता का प्रतिपादन किया है। मूल उद्धरण देकर लेखक ने यह विशिष्ठता दशा है कि मध्ययुगीन भारतीय दुर्गों में यह (गागरोन दुर्ग) भारत के समस्त दुर्गों के कण्ठहार का बिचला मोती (नगीना) कहलाता था।


द्वितीय अध्याय में सप्रमाण यह स्थापित ही गागरोन के प्रसिद्ध खीची वंश का प्रथम संस्थापक था। उसके अन्तर्गत गागरोन में मालवा के 52 विशाल परगने थे तथा वह 21 वर्ष तक यहां का शासक रहा था। लेखक ने चैहान कुल कल्पद्रुम, खीचीयों की हस्तलिखित ख्यात के आधार पर इस दुर्ग के खीची शासकों के विषय में इस अध्याय में पर्याप्त शोध सामग्री नवीन मौलिक चिन्तन के साथ प्रस्तुत की है। बाद में इस दुर्ग के शासक पीपाराव बने। वे दिल्ली के फिरोज तुगलक के समय थे। एक युद्ध के दौरान वे जीते परन्तु भंयकर रक्तपात को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा और वे संत बन गये। उन्होने अपने भतीजे कल्याणराव को गागरोन का राज्य दे दिया। कल्याणराव का पौत्र अचलदास खीची इस दुर्ग का बड़ा वीर और सुविख्यात इतिहास प्रसिद्ध शासक हुआ। इसी के काल में गागरोन का बड़ा युद्ध और विराट जौहर हुआ। सन् 1423 ई. में माण्डू के बादशाह ने गागरोन पर चढ़ाई की। दोनों के मध्य यहां एक पखवाड़े तक युद्ध हुआ। इस युद्ध में अचलदास वीरगति को प्राप्त हुआ और उसकी रानियों ने जौहर किया। इस युद्ध के अलावा महमूद खिलजी (द्वितीय) ने भी गागरोन दुर्ग पर आक्रमण किया था। सन् 1519 ई. में उसने गागरोन पर आक्रमण किया, परन्तु महाराणा सांगा ने उसे यहां पराजित कर बन्दी बनाया और कुछ समय बाद अच्छे व्यवहार की प्रतिज्ञा करने पर छोड़ दिया। तभी से यह दुर्ग मालवा, मेवाड़, हाड़ौती और गुजरात के राजनैतिक केन्द्र का ऐसा बिन्दू बन गया कि इस पर विजय प्राप्त करने से चारों ही क्षेत्रों पर यौद्धिक नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। ऐसे ही कारणों से शहशाह अकबर और शेरशाह जैसे महान शासक भी दिल्ली से मालवा जाते समय बाद अच्छे व्यवहार की प्रतिज्ञा करने पर छोड़ दिया। तभी से यह दुर्ग मालवा, मेवाड़, हाड़ौती और गुजरात के राजनैतिक केन्द्र का ऐसा बिन्दू बन गया कि इस पर विजय प्राप्त करने से चारों ही क्षेत्रों पर यौद्धिक नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। ऐसे ही कारणों से शहशाह अकबर और शेरशाह जैसे महान शासक भी दिल्ली से मालवा जाते समय गागरोन आकर रूके। अकबर के बाद गागरोन में खीची वंश समाप्त प्रायः हो गया था। जहांगीर ने फिर बूंदी के राव रतन हाड़ा को पंच हजारी मनसब के साथ यह दुर्ग सौंपा। फिर यह कोटा राज्य के कई महारावों, माधोसिंह, भीमसिंह, शत्रुसाल के आधीन रहा। इन शासकों कंकाल में गागरोन की सामरिक दृष्टि से देशभर के दुर्गों में तूती बोलती थी। परन्तु लगातार युद्ध, हिंसा, पलायन के कारण यह वीरान होता गया, फिर भी भारतीय दुर्ग परम्परापर शोध करने वालों के लिए जलदुर्ग गागरोन अति महत्वपूर्ण हैऔर उस अध्ययन की सोच, खोज और स्त्रोत सामग्री की प्रस्तुति के रूप में ललित शर्मा का यह ग्रन्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है।


तृतीय अध्याय में राजर्षि संत पीपाजी तृतीय अध्याय में राजर्षि संत पीपाजी और ख्वाजा हमीदुद्दीन 'गागरोनी' के संदर्भ में गागरोन की भक्ति आध्यात्मिक धारा की महत्ता को उजागर किया है। इस अध्याय में पश्चिम भारत की संत व सूफी परम्परा विशेषकर राजस्थान-मालवा की भक्ति साधना की श्रृंखला में कुछ नवीन जोड़ने के लिये विशेष उल्लेखनीय है क्योंकि इसमें मध्ययुगीन भक्तिकाल में पीपाजी की भूमिका और मालवा में सूफी परम्परा के संत हमीदुद्दीन गागरोनी का प्रभाव दर्शाया है। लेखक ने इस अध्याय में दोनों संतो की दुर्लभ, अनुपमेय व अचर्चित रचनाओं को स्थान दिया है। जिससे यह अध्याय बड़ा पुष्ठ बन पड़ा है। इस आशय से इस अध्याय की उपयोगिता द्विगुणी हो जाती है।


चतुर्थ अध्याय गागरोन की साहित्यिक धारा पर है। इसमें लेखक ने गागरोन में रची शौर्य, वीरता, उत्सर्ग की यशोगाथा वाली रचना 'अचलदास खीची री वचनिका' व भक्ति आध्यात्म की अप्रतिम कृति 'वेलिक्रिसन रूकमणी री' तथा प्रेम श्रृंगार, विरह के रूठीरानी के गीत' (रानी उमादे के गीत) का प्रणयन भी इसी दुर्ग में हुआ बताया है।


पांचवा अध्याय गागरोन के अभिलेख, शिल्पकृतियों, सुन्दर मूर्तियों तथा यहां की भित्ती चित्रांकन परम्परा का सटीक व नैत्ररंजक परिचय प्रस्तुत करता है। गागरोन दुर्ग के अनेक अभिलेखों को ललित शर्मा ने स्वयं अपनी खोज के दौरान खोजा, पढ़ा, पढ़ाया है, जिनका ऐतिहासिक महत्व हैये लेख व मूर्तियां, चित्र अभी तक अचर्चित, अप्रकाशित है तथा शोध की काफी गुंजाईश रखती है। इनसे इस दुर्ग के कई अनछुए पक्षों व कला पर प्रकाश पड़ता है। लेखक ने इन्हें मूल रूप में सव्याख्या से उद्धृत कर बड़ा परिश्रमी कार्य किया है। भविष्य में शायद ये सामग्री कालकवलित ही हो जाए या इन्हें पढ़ने, समझने वाले ही न रहे। गागरोन व उसके आस-पास के क्षेत्र में ऋषभदेव, महावीर, गणेश, चतुर्भुजदेव, मूर्तियों सहित राजाज्ञा व देवमंदिर निर्माण के लेख तथा भक्ति व राजाओं की शाही सवारियों, देव श्रृंगारों के उत्कृष्ट चित्रों का इस अध्याय में सुन्दर परिचय है। इन सभी का अध्ययन इन विषयों के विद्यार्थियों को करना चाहिये। अन्तिम छठा अध्याय गागरोन क्षेत्र की ऐतिहासिक पुरातात्त्विक धरोहरों के पर्यटनिक व ऐतिहासिक महत्व पर केन्द्रित है। जलदुर्ग गागरोन के चतुर्दिक-बिखरे प्राकृतिक सौन्दर्य की अकुत छटा, दुर्गम मार्ग, इसका सामरिक, प्राकृतिक महत्व इसे समूचे उत्तरी भारत के प्रथम अप्रतिम व राजस्थान के अति प्राचीन व शास्त्रोत विधि से बने दुर्ग के रूप में मजबूती से स्थापित करते है। दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्यान्तगत वेल्लोर में भी एक जलदुर्ग है, लेकिन तिहरे परकोटे से आरक्षित और बगैर नींव के नुकीली विशाल चट्टानों पर अड़िग बरसों से अड़ा-खड़ा तो एक मात्र यही दुर्ग है। देश के लगभग सभी दुर्गों की नींवे बड़ी गहरी है परन्तु एक अकेला यही दुर्ग है जो पूरे देश में बगैर नीवं के खड़ा है। मध्ययुग मे दिल्ली से मांडू (मालवा), गुजरात तथा काशी से द्वारका तीर्थ के मध्य यही गागरोन आता था जहां होकर जाना सुगम ही होता था। यह सार्थवाहों के आवागमन का भी मार्ग था।


लेखक ने ग्रन्थ में बलिण्ड़ा घाट के प्राकृतिक गणेशजी व मौत की खौफनाक घाटी गिद्ध कराई के अद्भूत जीवन्त वर्णन के साथ गागरोन के प्रसिद्ध 'रायतोतो' का भी खूबसूरती से उल्लेख किया हैइन्हें 'हिन्दुओं का आकाश लोचन' व 'हीरामन प्रजाति' का गागरोनी तोता भी कहा गया है। देश में यह एक मात्र तोतों की ऐसी प्रजाति है जो हूबहू आदमी की बोली में बोलती हैगागरोन दुर्ग की ख्याति देशभर में इन तोतो की बाहुल्यता के कारण भी रही है। लेखक ने प्रस्तुत ग्रन्थ में यह बताया कि ये तोते आज भी गागरोन के आसपास के ग्रामों में कई परिवारों में पालतू है।


(पुस्तक समीक्षक निबन्धकार एवं इतिहासविद् हैं।)